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मध्य प्रदेश में आदिवासी बोलियां विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं

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ऐसे समय में जब सरकार आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए योजनाएं लागू कर रही है, वहीं मध्य प्रदेश में विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा बोली जाने वाली बोलियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. कुछ बोलियां निशान छोड़े बिना लुप्त हो गई हैं.

लक्ष्मीनारायण पयोधी, जिन्होंने आदिवासी संस्कृति पर बड़े पैमाने पर काम किया है साथ ही गोंडी, कोरकू और भीली बोलियों में इस्तेमाल होने वाले शब्दों का शब्दकोश तैयार किया है, ने बताया, “आदिवासी बोलियां अस्तित्व खो रही हैं क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों के शब्द तेज़ गति से उनमें घुस रहे हैं.”

उन्होंने कहा कि जब मैं गोंडी बोली शब्दकोश पर काम कर रहा था तो मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मंडला, डिंडोरी, बालाघाट और छत्तीसगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में गोंडी बोली लगभग छत्तीसगढ़ी हो गई है. छत्तीसगढ़ी के लगभग 70 प्रतिशत शब्दों ने छत्तीसगढ़ से सटे क्षेत्रों में गोंडी बोली में अपनी जगह बना ली है. इसका मतलब है कि उन क्षेत्रों में गोंडी बोली के 70 फीसदी शब्द खो गए हैं.

हालांकि, गोंडी बोली ने सिवनी, बैतूल, छिंदवाड़ा जिलों में काफी हद तक शुद्धता बनाए रखी है. प्रमुख आदिवासी बोलियां गोंडी, भीली, कोरकू, बैगानी, कोलिहारी, भारिया हैं.

लक्ष्मीनारायण पयोधी ने कहा कि कोल समुदाय ने कोलिहारी बोली खो दी है. कोल समुदाय के लोग उमरिया, सीधी, शहडोल में रहते हैं लेकिन वे अब कोलिहारी नहीं बोलते. वे बघेली बोलते हैं.

पहले सहरिया जनजाति के लोग सहरानी बोली बोलते थे लेकिन सहरिया ने अब बुंदेलखंडी बोली को अपना लिया है.

वहीं भारिया समुदाय के लोग हिंदी शब्दों के मिश्रण से गोंडी बोलते हैं. हालांकि, बैगा जनजाति की बैगानी बोली अपने असली रूप में बची हुई है.

आदिवासी एवं लोक संस्कृति के विद्वान एवं लोक कला अकादमी के पूर्व सर्वेक्षण अधिकारी वसंत निरगुणे ने कहा कि आदिवासी संस्कृति विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है. उन्होंने कहा, “क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव के कारण आदिवासी बोलियां विलुप्त होती जा रही हैं.”

जनजातीय अनुसंधान संस्थान के एक अधिकारी ने भी स्वीकार किया कि जनजातीय बोलियां विलुप्त होने का सामना कर रही हैं. बोलियों के शब्दकोष तैयार करने में कुछ काम किया गया है.

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