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केरल: पंचायतों में आदिवासियों की आवाज़ क्यों दब जाती है

स्थानीय निकायों में जनजातियों यानि आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. इसका एक मकसद तो है कि आदिवासी समुदाय को भी मुख्यधारा से जोड़ा जाए, इसके अलावा आदिवासी लोग भी स्थानीय प्रशासनिक फ़ैसलों में हिस्सेदार हों. लेकिन अनुभव यह है कि स्थानीय निकायों में चुने गए आदिवासी प्रतिनिधियों की कम ही सुनी जाती है. आमतौर पर मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज के प्रतिनिधि अपने फ़ैसले और समझ आदिवासी प्रतिनिधियों पर थोपते हैं.

केरल में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए काम करने वाली संस्था केरला इंस्टिट्यूट फ़ॉर रिसर्च ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ ऑफ़ शेड्यूल कास्ट्स एंड शेड्यूल ट्राइब्स (Kerala Institute for Research Training and Development studies of Scheduled Castes and Scheduled Tribes) का कहना है कि स्थानीय निकायों में आदिवासी प्रतिनिधियों की बात को गंभीरता से नहीं सुना जाता है. इस संस्थान की उपनिदेशक मिनी पी.वी. के अनुसार ये बात उन्हें आदिवासी प्रतिनिधियों से पता चली हैं. उनका संस्थान आदिवासी प्रतिनिधियों के लिए ट्रेनिंग कार्यक्रम चलाता है.



केरला इंस्टिट्यूट फ़ॉर रिसर्च ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ ऑफ़ शेड्यूल कास्ट्स एंड शेड्यूल ट्राइब्स

आदिवासियों के बीच काम करने वाले एस रामनुण्णी का कहना है कि आदिवासियों के प्रतिनिधियों को जिस तरह का सहयोग और समर्थन ग़ैर आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों से मिलना चाहिए, वो नहीं मिलता है. वो कहते हैं कि आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधियों, ख़ासतौर पर आदिम जनजाति से आने वाले आदिवासियों के लिए शिक्षा और सोशल वर्क में अनुभव की कमी मुश्किलें पैदा करती है.

मुख्यधारा से अलग रहने की वजह से आदिवासी नेताओं को अपनी राय को ठोस तरीक़े से पेश करने में भी दिक़्क़त आती है, और इस कारण उन्हें अक्सर पंचायत सचिव या दूसरे अधिकारियों द्वारा लिए गए निर्णयों का समर्थन करना पड़ता है. कभी-कभार तो पंचायत अध्यक्ष होने के बावजूद, यह नेता अपने समुदाय के लिए ख़ास परियोजनाओं को प्राथमिकता देने से झिझकते हैं.

मानन्तवाडी नगरपालिका के अध्यक्ष वी आर प्रवीज कहते हैं कि उन्हें शुरुआत में अपनी राय दूसरों के सामने रखने में मुश्किल होती थी. लेकिन अब वो कोशिश करते हैं कि किसी भी मुद्दे पर अपने विचार रखने से पहले वो उसका अध्ययन करें, ताकि अगर उनकी राय सही है, तो वो झिझकें नहीं. मानन्तवाडी ब्लॉक पंचायत अध्यक्ष गीता बाबू के अनुसार भेदभाव या सहयोग की कमी नहीं, बल्कि सरकारी दिशा-निर्देशों की जटिलताएं उनके प्रयासों में बाधा डालती हैं.

गीता बाबू कहती हैं कि योजना निधि का उपयोग करने के लिए कई सरकारी दिशानिर्देशों का पालन करना होता है, लेकिन जनजातीय क्षेत्रों में इन परियोजनाओं को लागू करते समय यह मुश्किल है. मसलन अगर किसी आदिवासी बस्ती में सांस्कृतिक केंद्र का निर्माण होना है, तो भूमि का पंजीकरण पंचायत सचिव के नाम पर किया जाना चाहिए, लेकिन आदिवासी ज़मीन का हस्तांतरण नहीं किया जा सकता.

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