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कर्नाटक के आदिवासियों की मांग: एफ़आरए के तहत दावों को जल्द मिले मान्यता

कर्नाटक के हुनसुर के आदिवासियों ने अधिकारियों से वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके दावों को मान्यता देने की मांग की है, ताकि वे अपनी पारंपरिक प्रथाओं का पालन कर सकें.

नेरलकुप्पे और कदेमानुगनाहल्ली ग्राम पंचायत सीमा के तहत आने वाले गांवों के इन आदिवासियों ने इसी हफ़्ते की शुरुआत में एक बैठक बुलाई थी और अधिकारियों के सामने अपनी मांग रखी.

हादी अरण्य हक्कू समितिगला ओक्कुटा के संयोजक रामू के मुताबिक़ आदिवासियों ने अधिनियम के तहत अपने दावों और अधिकारों के लिए 13 साल पहले 2009 में एफआरए के तहत अपने आवेदन जमा किए थे. तत्कालीन राजस्व अधिकारी ने सिफारिश भी की थी कि हुनसुर तालुक में आने वाले 30 गांवों के आवेदकों के अधिकारों को एफआरए के प्रावधानों के अनुसार मान्यता दी जानी चाहिए. लेकिन सिर्फ़ 3 आदिवासी बस्तियों के आवेदकों को ही अधिकार दिए गए. बाकी 27 बस्तियों के आवेदन अभी तक लंबित हैं और अलग-अलग वजहों से इन अधिकारों के मिलने में देरी हो रही है.

नतीजा यह हुआ कि 27 गांवों के आदिवासियों को अपनी पारंपरिक जीवनशैली अपनाने में मुश्किल हो रही हैं, और यह संविधान में दिए गए उनके अधिकारों का उल्लंघन है.

इलाक़े के आदिवासी अपनी आजीविका के लिए शहद, जड़ें और कंद जैसे लघु वनोपज इकट्ठा करने के लिए जंगल नहीं जा पा रहे हैं. इसके अलावा उनके पूजा स्थलों पर जाने के लिए नैैश्नल पार्क में उनके प्रवेश पर भी प्रतिबंध है. 

आदिवासी मानते हैं कि उनके अधिकारों को पहचानने में देरी उनकी सांस्कृतिक प्रथाओं और अधिकारों पर हमला है. उन्हें जंगल के अंदर जलाशयों में मछली पकड़ने से भी रोका जा रहा है. 

इन आदिवासियों का आरोप है कि वन अधिकारी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का हवाला देते हुए उन्हें एफआरए के तहत दिए गए उनके अधिकारों से वंचित कर रहे हैं.

27 बस्तियों के आदिवासियों ने एफआरए के तहत दायर किए गए 1,122 आवेदनों को सामूहिक रूप से खारिज किए जाने पर आपत्ति जताई है, और मांग की है कि अधिकारी अपने फैसले पर पुनर्विचार करें.

एफआरए के तहत व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों पर पुनर्विचार करने के लिए सरकार को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद आदिवासियों द्वारा एक संशोधित आवेदन भी दायर किया गया था. 

आदिवासियों ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत जंगलों से बेदखल किए गए 3,400 से ज़्यादा परिवारों के पुनर्वास में तेजी लाने और उन्हें अपनी पारंपरिक जीवन शैली को आगे बढ़ाने में सक्षम बनाने के लिए सब्सिडी के अलावा भूमि आवंटित करने की भी मांग की है.

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