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हाथी की सवारी लेकिन पानी को तरसता कर्नाटक का कुरूंबा आदिवासी

जल जीवन मिशन और स्वच्छ भारत जैसी सरकारी योजनाओं को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन यह बात भी सच है कि समाज के निचले तबकों तक इन योजनाओं की पहुंच पर बड़ा सवाल है.

इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए बस देश के अलग-अलग हिस्सों की कुछ आदिवासी और दलित बस्तियों पर एक नज़र डालने भर की ज़रूरत है. मसलन कर्नाटक के कोडागु जिले में एक आदिवासी समुदाय की एक बड़ी आबादी तक बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंची हैं. कुशालनगर तालुक में दुबारे के पास की एक आदिवासी बस्ती में इस अभाव का प्रमाण स्पष्ट है.

दुबारे के पास बसे आदिवासी दिहाड़ी मजदूर हैं, और इन परिवारों के अधिकांश पुरुष दुबारे हाथी शिविर में पालतू हाथियों की देखभाल करने का काम करते हैं. थोड़ी बहुत कमाई करने के बाद भी इन लोगों का जीवन काफ़ी दयनीय है.

वैसे तो यह आदिवासी बस्ती कावेरी नदी के किनारे बसी है, लेकिन इनके कच्चे घरों में पानी की आपूर्ति नहीं है. सौ से ज़्यादा परिवार पीढ़ियों से इस बस्ती में रह रहे हैं, लेकिन बिजली, पानी और शौचालय की सुविधा के बिना मानो बीते युग में फंसे हुए हैं.

कई निवासियों ने नदी के किनारे ज़मीन में कुएं खोदे हैं, और उन्हीं का इस्तेमाल करते हैं. कुछ लोग पानी लाने के लिए अपनी बस्ती के बगल में स्थित जंगल लॉज रिसॉर्ट में जाते हैं. यह आदिवासी नदी से पानी नहीं ले पाते क्योंकि नदी पर्यटकों की बढ़ती गतिविधियों की वजह से काफ़ी प्रदूषण है.

एक घर में करीब तीन परिवार रहते हैं. पंचायत और आईटीडीपी विभाग के अधिकारियों से कई बार शिकायत के बावजूद, सरकारी योजनाओं के तहत मकान इनके लिए नहीं बनाए गए हैं.

इसके अलावा यह लोग बताते हैं कि कुछ साल पहले बस्ती में सोलर लाइटें लगाई गई थीं, लेकिन अब वो सब खस्ताहाल हैं. स्वच्छ बारत अभियान के तहत सरकार का दावा है कि देश के कोने-कोने में शौटालय बनाए जा चुके हैं, लेकिन इन आदिवासियों के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है. वो शौच करने के लिए जंगल जाते हैं, जो उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है.

शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधाएं तो ऐसा लगता है इन आदिवासियों के आसपास से भी नहीं गुज़री हैं.

कोडागु ज़िले के इस इलाक़े में जेनु कुरुबा आदिवासियों की तादाद ज़्यादा है. इस बस्ती में पांच से 11 साल की उम्र के कई बच्चे हैं, जिन्होंने कभी स्कूल देखा तक नहीं है. यह बच्चे अपना ज़्यादातर समय अपने माता पिता के साथ जंगल जाते हैं, वनोपज और लकड़ी इकट्ठा करने.

इन बस्ती में ज़्यादातर लोगों के पास आधार कार्ड और वोटर आई कार्ड तो है, लेकिन राशन कार्ड नहीं. साफ़ है, राजनेताओं को इनकी ज़रूरत चुनाव के समय होती है, औऱ फिर वो इन्हें भूल जाते हैं.

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