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कागज़ पर ज़मीन का मालिक आदिवासी, असलियत में ग़ैर आदिवासी कब्जा

तेलंगाना में आदिवासियों की ज़मीन पर ग़ैर आदिवासियों के कब्जों के मामलों में आदिवासी के हक़ में बेशक फैसला आ जाए, वो लागू नहीं होता है. मुलुगु जिले के गोविंदरावपेट मंडल के रंगपुरम गांव के एक आदिवासी जे शिवा गणेश की ज़मीन, दावे और फ़ैसले का हाल कुछ ऐसा ही है. शिवा अपने दादा की 10.5 एकड़ जमीन के कानूनी उत्तराधिकारी हैं. इसमें से पांच एकड़ पट्टा भूमि है जिसके लिए उन्हें रायतु बंधु योजना के तहत सहायता मिल रही है. बाकी पुश्तैनी जमीन है जिसके लिए उसके पास पहनियां (Pahanis) थीं.

लेकिन शिवा की पूरी संपत्ति पर गैर-आदिवासियों का कब्जा रहा है. जूलॉजी में स्नातकोत्तर, शिवा ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर दावा करने के लिए सभी सबूतों को अधिकारियों के सामने पेश कर दिया. अधिकारियों ने पंचनामा होने के बाद उनके पक्ष में आदेश जारी किए गए. लेकिन अफ़सोस की उनके हक़ में फैसला आने के बाद भी अभी तक शिवा को उनके पुरखों की ज़मीन नहीं मिली है. अपने पक्ष में फैसला आने के बाद शिवा ज़मीन का कब्जा लेने जब वहां पहुंचे तो गैर-आदिवासी अवैध कब्जाधारियों ने उन्हें धमकी दी. इन लोगों ने शिवा को मामला और आगे बढ़ाने के खिलाफ चेतावनी भी दी. 

तेलंगाना राज्य अनुसूचित क्षेत्र भूमि हस्तांतरण अधिनियम मौजूद है. इस अधिनियम को समय-समय पर 1978 तक संशोधित किया गया था. जिसकी मूल भावना यह थी कि आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों से गैर-आदिवासियों को भूमि का हस्तांतरण अनुसूचित क्षेत्रों में नहीं किया जा सकता है. फिर भी शिवा के मामले की तरह कई उदाहरण हैं.

आदिम जाति कल्याण विभाग के आंकड़ों के मुताबिक अब तक 2 लाख 8 हज़ार 512 एकड़ जमीन के लिए कुल 53 हज़ार 22 मामले दर्ज किए गए हैं. जिनमें से 2 लाख 5 हज़ार 431 एकड़ के 52 हज़ार 75 मामलों का निपटारा किया जा चुका है. अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में निर्णय किए गए मामलों की संख्या 31 हज़ार 279 थी, जिनमें से 22 हज़ार 707 मामलों में भूमि आदिवासियों को भौतिक रूप से बहाल कर दी गई थी.

इसका मतलब है कि आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक राज्य भर में सिर्फ 24 हज़ार 64 एकड़ आदिवासियों को जमीन बहाल किया जाना बाकी है. लेकिन कार्यकर्ताओं का दावा है कि जमीनी स्तर पर स्थिति इसके विपरीत है.

आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता और उस्मानिया विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सीएच किशोर कुमार ने दावा किया  है, “आदेश जारी करने और पंचनामा आयोजित करने के बाद भूमि को आईटीडीए द्वारा जमीन पर आदिवासियों का कब्जा दिखाया जा रहा है. लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है.”

उन्होंने कहा, “इसलिए जब तक आदिवासियों को किसी प्रकार की सुरक्षा नहीं दी जाती है और समय-समय पर यह जांचने के लिए निगरानी नहीं की जाती है कि भूमि किसके कब्जे में है तब तक भूमि हस्तांतरण विनियमन (LTR) मामलों को हल नहीं किया जा सकता है.”

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