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आदिवासी बाढ़ और भूस्खलन झेलने को तैयार, पुनर्वास को क्यों नहीं हैं

केरल में आजकल भारी बारिश हो रही है, जिसके चलते राज्यभर से भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ की ख़बरें लगातार आ रही हैं. जहां राज्य के शहरी इलाक़ों में ही बाढ़ के प्रकोप से लोगों को बचाने में मुश्किल हो रही है, लेकिन दूरदराज़ के आदिवासी इलाक़ों में दिक्कत और भी ज़्यादा है.

भूस्खलन और बाढ़ के खतरे के मद्देनजर राज्य के कोझीकोड (Kozhikode) ज़िले के अंदरूनी इलाकों से कुछ आदिवासी परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने की कोशिश हुई. लेकिन इन पारिवारों ने अपने घर और अपने परिवेश से दूर जाने का विरोध किया. आदिवासी परिवारों के इस फ़ैसले ने स्थानीय प्रशासन और बचाव कार्य में लगे स्वयंसेवकों को मुश्किल में डाल दिया है.

बार-बार चेतावनी देने के बाद भी, अधिकांश आदिवासी इन राहत प्रस्तावों को स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक हैं.

बचाव कार्य में लगे एक स्थानीय स्वयंसेवक, टी रफ़ीक ने कहा, “नादपुरम, कोडुवल्ली और तिरुवंबाडी में कई बस्तियाँ हैं जहाँ आदिवासी अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. जब अधिकारी संकट को कम करने के लिए सभी संभव उपाय अपना रहे हैं, तो आदिवासी उन कदमों को चुनौती देते हैं, जिससे तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है.”

रफ़ीक का कहना है कि आदिवासियों को मौजूदा स्थिति और खतरों के बारे में समझाने के लिए बेहतर पहल की ज़रूरत है.

इलाक़े में काम कर रहे बचाव स्वयंसेवकों का कहना है कि अकेले मुतप्पनपुझा में लगभग 40 आदिवासी परिवार हैं, जहां बाढ़ (Flash floods) का ख़तरा गंभीर है. वो कहते हैं कि तीन साल पहले आई बाढ़ और भूस्खलन में कई परिवार अपनी जान बचाने के लिए अचालक भागने को मजबूर हो गए थे. इस साल भी मरिप्पुझा नदी का जलस्तर जोखिम भरे स्तर तक पहुंच गया है.

ज़िले की कोडेनचेरी पंचायत के तहत वेंडेक्कमपोयिल की एक कॉलोनी में, लगभग 28 आदिवासी परिवार ऐसे हैं जो स्थानीय प्रशासन द्वारा प्रस्तावित पुनर्वास योजना में सहयोग नहीं कर रहे हैं. हालांकि उन्हें पुनर्वास के लिए कई विकल्प दिए गए हैं, लेकिन परिवारों ने अभी तक इस पर विचार नहीं किया है.

कोडेंचेरी पंचायत के अध्यक्ष एलेक्स थॉमस ने कहा, “हम 2018 में बारिश से संबंधित आपदाओं के दौरान उनके संघर्ष को देखते हुए इस परियोजना को लाए थे. हालांकि उन्हें कई विकल्प दिए गए थे, लेकिन उन्होंने इनमें से किसी में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई.”

केरल के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के अधिकारियों ने कहा कि जबरन पुनर्वास योजना उन आदिवासियों के लिए व्यावहारिक समाधान नहीं है, जो अपनी जमीन से जुड़े हुए हैं.

उन्होंने कहा, “हम प्राकृतिक जोखिमों के बारे में जागरूकता पैदा करने के अलावा सभी संभावित विकल्पों के साथ मौजूदा स्थानों पर उनकी सुरक्षा और सुविधाओं में सुधार करने का प्रयास कर रहे हैं.”

ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के अनुकूल योजनाएं बनाने के प्रयास नहीं किए गए हैं. अधिकारियों ने आदिवासी कॉलोनियों में लोगों द्वारा सामना किए जा रहे मुद्दों के बारे में कई बार अध्ययन किया है, लेकिन इससे कोई उचित पुनर्वास योजना नहीं बन पाई है.

कोझीकोड में और काट्टुनायकन समुदायों की आबादी ज़्यादा है, और इनमें से कई पुनर्वास के पक्ष में भी हैं. लेकिन जैसा की एक पूर्व जनजातीय विस्तार अधिकारी का कहना है कि प्राकृतिक आपदाओं में आदिवासी हताहतों की कम संख्या एक बड़ी वजह है जो अधिकारियों को जबरन पुनर्वास के प्रयास करने से रोकता है.

यह भी पाया गया है कि आदिवासी कई मौक़ों पर प्रतिकूल परिस्थितियों का सफलता से सामना करते हैं, जबकि यह मेनस्ट्रीम कहे जाने वाले कई लोगों के लिए भी मुश्किल होता है.

आदिवासी क्यों झिझकते हैं?

अपना घर औऱ अपना परिवेश छोड़ने में आदिवासियों के बीच इतनी झिझक आखिर क्यों है? केरल और दूसरे राज्यों में रहने वाले ज़्यादातर आदिवासी अपने जीवन और अपनी आजीविका के लिए प्रमुख तौर पर जंगल पर ही निर्भर हैं.

उन्हें उनके जाने-पहचाने परिवेश, उनके जंगलों से निकालने के पीछे मंशा चाहे जो भी हो, लेकिन यह बात सच है कि आदिवासियों को सिर्फ़ जंगल से बाहर बसा देने भर से बात नहीं बनेगी. उन्हें मेनस्ट्रीम आबादी के आसपास बसाने के बाद प्रशासन को लगातार उनकी मदद करनी होगी.

दरअसल, आदिवासियों का बाकी आबादी के साथ तालमेल बिठाना और उन्हें खेती जैसे व्यवसाय में ट्रेन करना बेहद ज़रूरी है. वो इसलिए कि अगर आजीविका के तौर पर जंगल उनसे छूट जाएगा, और वो खेती नहीं जानते हैं, तो उनका पुनर्वास लगभग मौत के फ़रमान जैसा है.

इसके अलावा मुख्यधारा के समाज को भी आदिवासियों के बारे में शिक्षित करना होगा. आदिवासियों को ज़मीन का मूलनिवासी कम और निचली जाति ज़्यादा माना जाता है. ऐसे में उनके लिए मेनस्ट्रीम सोसायटी में घुलना बेहद मुश्किल है.

क़रीब दो साल पहले केरल में ही वायनाड और अट्टपाड़ी के आदिवासियों के बीच आत्महत्या की दर में हो रही वृद्धि पर एक स्टडी हुई थी. इस स्टडी में पाया गया था कि अपने परिवेश से दूर शहरों के पास लाकर बसा दिए गए आदिवासियों के बीच डिप्रेशन की दर बढ़ी है. इसके अलावा उनमें शराब और नशे की लत लगने के मामले भी बढ़े हैं.

आधिकारियों को इन सभी हालातों को ध्यान में रखकर ही आदिवासियों के पुनर्वास योजनाएं बनानी होंगी.

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