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सामाजिक बहिष्कार से जूझ रहे कोरगा आदिवासी कौन हैं?

कोरगा जनजाति (Korga Tribes) को सरकार द्वारा विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति यानि पीवीटीजी (PVTGs) में रखा गया है.

ये मुख्य रूप से कर्नाटक (Tribes of Karnataka) के दक्षिण कन्नड़, उडुपी जिले और केरल (Tribes of Kerala) के कासरगोड जिले में रहते हैं.

इन्हें पीवीटीजी में रखने का एक कारण ये भी है की इनकी आबादी में पिछले कुछ दशकों से चिंताजनक गिरावट देखी गई है.

यह आदिवासी मुख्य रूप से केरल के कासरगोड ज़िले में रहते है. जो केरल के सबसे उत्तरी भाग पर स्थित है.

केरल के उत्तरी भाग की सीमा से कर्नाटक राज्य जुड़ा हुआ है. इसलिए इन आदिवासियों का कुछ समूह कर्नाटक राज्य में जाकर बस गया है.

2011 की जनगणना के अनुसार कर्नाटक में 14,794 और केरल में 1582 कोरगा आदिवासी रहते हैं.

कोरगा आदिवासियों की अपनी भाषा हुआ करती थी. लेकिन समय के साथ वह अपनी भाषा भूल गए हैं. अब वह शिक्षा और बोली में कन्नड़ भाषा का मुख्य रूप से उपयोग करते हैं.

यह आदिवासी टोकरी बनाने का काम करते हैं. इन आदिवासियों को पहले दास माना जाता था और इनके मालिक इन्हें जमीन के साथ बेच दिया करते थे. जो साफ तौर मानव तस्करी थी.

खान-पान
कोरगा आदिवासी मांसाहारी रहे हैं. ऐसा कहा जाता है कि जब किसी उच्च जाति के घर में कोई गाय या बैल मर जाती है. तब कोरगा आदिवासियों को बुलाया जाता था.

कोरगा आदिवासी इस मास को आपपास में बांट कर खा लेते थे. बाकि का बचा हुआ मास वे धूप में सुखाकर रसोई में स्थित चूल्हे के ऊपर सिली में रखते. चूल्हें से होने वाले धुएं के कारण बचा हुआ मास संपर्क में आता और इसे वे खराब भी नहीं होता था.

अब यह आदिवासी अन्य आदिवासी समुदाय की तरह चावल, सब्जी और बजार में मिलने वाली मांस-मछली पर निर्भर है.
कोरगा आदिवासियों में संयुक्त और एकल परिवार, दोनों तरह के परिवार देखे जा सकते हैं. लेकिन अब एकल परिवार का वर्चस्व अधिक हो गया है.

घर बनाने की तकनीक
कोरगा आदिवासी जंगलों में असानी से मिलने वाले उपज से अपने घर का निमार्ण करते हैं. वह घर बनाने के लिए बांस, नारियल के पत्ते, सुपारी के पत्ते, लकड़ी से घर के खंभे इत्यादि बनाते हैं. इसके अलावा घरों की छत नारियल के पत्तों से बनी होती है.

समाजिक समस्या

कन्नड़ समाज के लोग अजालु प्रथा के तहत कोरगा आदिवासियों को बाल, नाखून या किसी अन्य अखाद्य पदार्थ के साथ बचा हुआ भोजन खाने के लिए उन्हें मजबूर करते हैं.

यह बहुत अचरज की बात है कि 21वीं सदी में भी ऐसी कोई प्रथा अपनाई जा रही है.

अजालू प्रथा निषेध अधिनियम, 2000 लागू होने के बाद भी कोरगा आदिवासियों को इस प्रथा का आज भी सामना करना पड़ता है.

इसके अलावा कंबाला (दलदल भूमि में भैंसो की दौड़) की शुरूआत से पहले, कोरगा आदिवासियों को भैंसो की तरह दौड़ाया जाता था.

इन अमानवीय प्रथाओं के अलावा कुपोषण, उच्च मृत्यु दर, निरक्षरता और अन्य समस्याओं के खिलाफ कोरगा आदिवासी आज भी संघंर्ष कर रहे हैं.

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