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आदिवासी छात्रों को क्यों नहीं मिल रही राष्ट्रीय प्रवासी स्कॉलरशिप?

पिछले कुछ महीनों में आपने सोशल मीडिया पर कई ऐसे पोस्ट देखे होंगे, जिनमें पिछड़े और आदिवासी समुदायों के कई छात्रों ने प्रतिष्ठित विदेशी यूनिवर्सिटीज़ के ऑफ़र लेटर दिखाकर अपनी शिक्षा के लिए क्राउडफंडिंग करने की कोशिश की है.

कुछ छात्रों को जल्द ही सफ़लता मिली, तो कुछ हफ्तों से कोशिश कर रहे हैं. इन प्रयासों ने वंचित और साधन संपन्न वर्गों के बीच के फ़ासले को सबके सामने रख दिया है.

पिछड़े वर्ग के लिए स्कॉलरशिप

भारत सरकार ने ऐसे छात्रों को विदेश में पढ़ाई करने में मदद करने के लिए दो योजनाएं स्थापित की हैं – सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (MSJE) द्वारा अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रीय प्रवासी छात्रवृत्ति (National Overseas Scholarship for Scheduled Castes NOS-SC), और अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रीय प्रवासी छात्रवृत्ति (National Overseas Scholarship for Scheduled Tribes (NOS-ST) जो जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MOTA) द्वारा दी जाती है.

स्कॉलरशिप देने के MOTA के रिकॉर्ड की जांच करने पर कई विसंगतियां सामने आती हैं. MSJE जहां कुल 100 स्कॉलरशिप देता है- (90 अनुसूचित जाति, छह डीनोटिफ़ाइड, घुमंतू जनजाति, चार भूमिहीन खेतिहर मज़दूर और पारंपरिक कारीगर), MOTA हर साल सिर्फ़ 20 स्कॉलरशिप देता है – 17 अनुसूचित जनजाति और तीन विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (पीवीटीजी) के छात्रों को.

अनुसूचित जातियां भारत की कुल जनसंख्या का 16.2% हिस्सा हैं, जबकि अनुसूचित जनजातियां 8.2% हिस्सा हैं, यानि लगभग आधे. इन आंकड़ों के लिहाज़ से स्कॉलरशिप दिए जाने में जो बड़ी विसंगति है, वो एक नीतिगत दोष लगता है.

जनसंख्या के हिसाब से MOTA को अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए कम से कम 45 स्कॉलरशिप देनी चाहिएं.

अपने सालाना बजट से MOTA विदेशी स्कॉलरशिप के लिए सिर्फ़ 2 करोड़ की राशि आवंटित करता है. जबकि विदेश में पढ़ाई करने की लागत सालाना लगभग कम से कम 20 लाख तक हो सकती है, तो इतना कम आवंटन 20 छात्रों के ट्यूशन फ़ीस और दूसरे खर्चों के लिए नाकाफ़ी है.

वंचित और साधन संपन्न वर्गों के बीच के फ़ासले अब सबके सामने हैं

MOTA के आंकड़े

एक आरटीआई में सामने आया है कि 2012-2013 से 2018-19 तक औसतन सिर्फ़ आठ छात्र विदेशी यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने गए हैं. इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि आदिवासी छात्र स्कॉलरशिप मिलने के बावजूद इसका फ़ायदा नहीं उठा पाते हैं.

RTI से यह भी पता चला है कि 2012-2013, 2013-2014, 2015-2016 और 2016-2017 में, MOTA को स्कॉलरशिप देने के लिए 20 योग्य आदिवासी छात्र भी नहीं मिले. स्कॉलरशिप के लिए आवेदन चुने गए छात्रों की संख्या से कहीं ज़्यादा है.

इसका मतलब स्कॉलरशिप देने के लिए MOTA के चयन मानदंड में कुछ खोट है. ऐसे कई आदिवासी छात्र हैं जिन्हें विदेश की टॉप यूनिवर्सिटीज़ से ऑफ़र लेटर मिला, लेकिन MOTA से स्कॉलरशिप नहीं मिली. और कुछ छात्र ऐसे भी हैं, जिन्हें MOTA ने स्कॉलरशिप के लिए चुना लेकिन उन्हें किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में एडमिशन नहीं मिला.

वेबसाइट पर सिर्फ़ यही लिखा है कि चयन “एक चयन समिति द्वारा तैयार इंटरव्यू-आधारित मेरिट सूची” द्वारा किया जाता है.

MOTA की इंटरव्यू प्रक्रिया काफ़ी कठिन है. पुराने आवेदक कहते हैं कि स्क्रीनिंग कमेटी मुख्य रूप से उच्च जाति के लोगों से बनी है. ऐसे में भेदभाव आम बात है. कई आदिवासी छात्र इंटरव्यू पैनल द्वारा अपमानित होने की बात कहते हैं.

क्या है समाधान?

विदेशी यूनिवर्सिटीज़ में आवेदन देने वाले आदिवासी छात्रों की बढ़ती संख्या के साथ, MOTA को अपने स्कॉलरशिप बजट को भी बढ़ाना होगा. इसके अलावा स्कॉलरशिप दी जाने वाली महिला छात्रों की संख्या को बढ़ाने की भी ज़रूरत है.

इसके अलावा MOTA को अपीन स्कॉलरशिप प्रक्रिया में तेज़ी लानी होगी, ताकि छात्र अपने ज़रूरी शैक्षणिक साल बर्बाद न करें.

(यह आर्टिकल अंग्रेज़ी में द वायर में छपा था, और अशोक दनावत और ज्योति बनिया द्वारा लिखा गया है.)

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