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10 साल बाद बंधुआ मज़दूरी से छूटा आदिवासी परिवार

ओडिशा के जाजपुर ज़िले में करीब 10 साल से बंधुआ मज़दूरी कर रहे एक आदिवासी दंपति और उनके बच्चों को प्रशासन और समाजसेवकों की एक टीम ने रिहा कराया है.

यह परिवार करीब एक दशक से यहां एक ईंट-भट्ठे में काम करने को मजबूर था.

वहां से छूटने के बाद उन्हें शिकायत दर्ज न करवाने और अपना मूंह बंद रखने के लिए घूस देने की कोशिश भी की गई.

क्या है पूरा मामला?

ओड़िशा के जाजपुर ज़िले के मधुपुर इलाके से 26 अगस्त को प्रशासन और समाजसेवियों की टीम ने 47 वर्षीय नवीन मुंडा,उनकी 34 वर्षीय पत्नी बलमाऔर तीन बच्चों को छुड़ाया.

परिवार ने बताया कि उन्हें लंबे समय से भट्ठे पर बंधक बनाकर रखा गया था.

परिवार का आरोप है कि जब भी किसी सदस्य को घर जाने की अनुमति मिलती थी, तो मालिक शर्त रखता था कि परिवार का कोई और सदस्य वहीं बंधक के तौर पर रुकेगा.

बचाव दल ने क्या कहा

रेस्क्यू टीम के प्रभारी तहसीलदार अजय पांडा ने बताया कि परिवार जिस जगह रह रहा था, वह बहुत ही जर्जर और खतरनाक थी.

उन्होंने कहा, “वहां की छत कभी भी गिर सकती थी. यह इंसानों के रहने लायक जगह नहीं थी.”

ज़िला बाल संरक्षण अधिकारी निरंजन कर ने बताया कि बच्चों को कभी स्कूल नहीं भेजा गया. उन्हें भी मज़दूरी और घरेलू काम करने के लिए मजबूर किया जाता था.

दंपत्ति पुलिस पर नहीं कर सके भरोसा

बंधुआ मज़दूरी से आज़ाद होने के बाद नवीन मुंडा ने मालिक के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की.

उनका कहना है कि शिकायत न करने के लिए उन्हें 5000 रुपये की पेशकश की गई.

नवीन को डर था कि पुलिस मालिक के दबाव में काम कर रही है और उसे न्याय मिलने की उम्मीद नहीं थी इसलिए उन्होंने अपना मन बदल लिया और शिकायत नहीं की.

पैदल सफ़र की मजबूरी

घर लौटने के लिए उनके पास बस या ट्रेन का किराया भी नहीं था.

ऐसे में दंपति ने बच्चों को शेल्टर होम में छोड़कर खुद पैदल ही 30 किलोमीटर का सफ़र तय किया.

बीच में उन्हें किसी ट्रक से थोड़ी दूरी तक लिफ्ट मिली लेकिन ज़्यादातर रास्ता पैदल ही तय करना पड़ा.

26 अगस्त को छूटने के बाद 27 और 28 अगस्त की रात पैदल चलने के बाद वे भद्रक जिले के बांदीपुर गांव पहुंचे.

नहीं मिला मुआवज़ा

सरकार की योजना के तहत, बंधुआ मज़दूरी से छुड़ाए गए हर बालिग को ₹1 लाख और महिलाओं व बच्चों को ₹2 लाख तक की आर्थिक सहायता दी जाती है.

लेकिन इस परिवार को फिलहाल ₹30,000 की तात्कालिक मदद भी नहीं मिल पाई है.

आर्थिक सहायता न मिलने के कारण ही इस आदिवासी दंपत्ति को अपने बच्चों को शेल्टर होम में छोड़कर पैदल घर जाने को मजबूर होना पड़ा.

सामाजिक संगठनों की प्रतिक्रिया

मुक्त मजदूरों के संगठन ‘श्रववाहिनी’ की कार्यकर्ता रंजिता ने कहा, “हम ज़िला प्रशासन की कार्रवाई के लिए उनके बहुत आभारी हैं. उनके बिना, यह परिवार शायद कई और सालों तक फंसा रहता. लेकिन आज़ादी का मतलब सिर्फ़ रिहाई से ज़्यादा होना चाहिए. इसका मतलब सुरक्षा और सम्मान भी होना चाहिए. पुलिस स्टेशन में जो हुआ वह अस्वीकार्य है. बचाए जाने के बाद बचे लोगों को परेशान नहीं किया जाना चाहिए. हमें ऐसी पुलिस चाहिए जो पीड़ितों के साथ खड़ी हो, मालिकों के साथ नहीं. ”

आज भी देश के कई हिस्सों में गरीब और आदिवासी परिवार बंधुआ मज़दूरी की जकड़ में हैं.

आज़ादी मिलने के बाद भी जब उन्हें न्याय, सुरक्षा और आर्थिक सहारा न मिले, तो उनकी मुश्किलें खत्म नहीं होतीं.

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