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आदिवासी जड़ी-बूटियों को मिलेगा सांइटिफिक सर्टिफिकेट!

मध्यप्रदेश के घने जंगलों में पीढ़ियों से चलती आ रही आदिवासी चिकित्सा पद्धति को अब वैज्ञानिक पहचान मिलने लगी है.

एक नई पहल में आदिवासी जड़ी-बूटियों और इलाज़ के पारंपरिक तरीकों को शोध और परीक्षण के जरिए आधुनिक चिकित्सा से जोड़ा जा रहा है.

जिन जड़ी-बूटियों और घरेलू नुस्खों को कभी देसी इलाज मानकर नजरअंदाज किया जाता था, अब वही आधुनिक विज्ञान की जांच में असरदार साबित हो रहे हैं.

यह काम राज्य की दो बड़ी संस्थाएं कर रही हैं.

इस पहल की शुरुआत होलकर साइंस कॉलेज और श्री अरबिंदो इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस ने मिलकर की है.  

इस परियोजना का नेतृत्व डॉ. विनोद भंडारी और प्रो. संजय व्यास कर रहे हैं.

20 जिलों और 6 समुदायों को शामिल किया गया

इस अध्ययन का दायरा काफी बड़ा है. प्रदेश के 20 आदिवासी बहुल जिलों को इसमें शामिल किया गया है.

इस परियोजना के केंद्र में छह समुदाय हैं. भील, बैगा, गोंड, सहारिया, बरेला और कोरकू आदिवासी इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनेंगे.

ये आदिवासी वर्षों से पेड़ों की छाल, पत्तियों और जड़ों से इलाज करते आए हैं. अब वैज्ञानिक टीम इन पर रिसर्च कर रही है.

सीएसआर फंडिंग से हो रहा पूरा प्रोजेक्ट

इस काम के लिए ज़रूरी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) के तहत मिला है.

रिसर्च कर रही टीम गांवों तक पहुंची और क्षेत्र के पारंपरिक वैद्यों से मुलाकात की.

कुछ वैद्य जैसे बारुआ और पटेल ने बताया कि उन्हें ये ज्ञान अपने पूर्वजों से मिला था. लेकिन अब वे पहली बार अपने नुस्खें लिखवा रहे हैं.

अब तक जो ज्ञान केवल मौखिक था, वह अब दस्तावेजों में दर्ज किया जा रहा है.

शोधकर्ताओं ने कई गंभीर और पुरानी बीमारियों को ध्यान में रखकर इस पहल की शुरुआत की है.

इनमें मधुमेह, हृदय रोग, किडनी खराबी, चिंता, त्वचा रोग और कैंसर जैसे गंभीर रोगों की चिकित्सा से संबंधित इलाज पर शोध किया जाएगा.

टीम ने देखा कि इन बीमारियों के लिए ग्रामीण लोग जिन पौधों का उपयोग करते हैं, वे कितने असरदार हैं. अब इनकी जांच लैब में की जा रही है. इसके साथ ही क्लिनिकल ट्रायल की प्रक्रिया भी शुरु की जा रही है.

वन विभाग और समुदायों का सहयोग

पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉ. पीसी दुबे ने टीम को समुदायों से जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है. उनकी मदद से शोधकर्ताओं को अंदरूनी गांवों में प्रवेश और आदिवासियों का भरोसा प्राप्त हुआ.

डॉ. विनोद भंडारी कहते हैं कि यह सिर्फ एक रिसर्च नहीं बल्कि एक मेडिकल क्रांति है.

उन्होंने बताया कि आधुनिक एलोपैथी को आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी, योग, ध्यान और यहाँ तक कि ओम चिकित्सा के साथ मिलाकर एक एकीकृत चिकित्सा मॉडल तैयार किया जा रहा है.

उनका कहना है कि इस मॉडल से मरीजों को संपूर्ण और सस्ती चिकित्सा मिलेगी.

लाभ आदिवासियों को मिलेगा

होम्योपैथी काउंसिल ने प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने में सहयोग देने का वादा किया है. आयुष मंत्रालय के तहत दवाओं का पंजीकरण कराया जाएगा.

प्रोजेक्ट को मंज़ूरी भी मिल चुकी है.

इस परियोजना का एक नैतिक और आर्थिक पहलू भी है. एक पेटेंट मॉडल बनाया जाएगा जो यह सुनिश्चित करेगा कि आयुष मंत्रालय के तहत उपचार पंजीकृत होने के बाद आदिवासी समुदायों के साथ लाभ साझा किया जाए. यानी अगर कोई नुस्खा दवा के रूप में पंजीकृत होता है तो उसका मुनाफा केवल कंपनियों को नहीं मिलेगा.

पेटेंट मॉडल के तहत मुनाफे में आदिवासी समुदायों को बराबर की हिस्सेदारी दी जाएगी.

अरबिंदो अस्पताल में 12 से 75 साल की उम्र के 200 से ज़्यादा मरीजों पर क्लिनिकल ट्रायल किया गया.

एक खास लकड़ी का अर्क, जिसे रातभर पानी में भिगोया जाता है. उसे पीने से शुगर लेवल में गिरावट देखी गई.

इंसुलिन की मात्रा भी घट गई और कोई साइड इफेक्ट नहीं मिला. यह अर्क अग्न्याशय की कोशिकाओं (Pancreatic Functions) को सक्रिय करता है.

प्रोफेसर व्यास कहते हैं, “हम न केवल इलाज खोज रहे हैं, हम भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं.”

इस पहल से न केवल पारंपरिक ज्ञान को सम्मान मिल रहा है बल्कि देश को एक नया, सस्ता और समावेशी स्वास्थ्य मॉडल भी मिल रहा है.

(Image is for representation purpose only)

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