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वन संरक्षण नियम 2022: आदिवासियों के अधिकारों में कटौती?

केंद्र सरकार ने जंगलों को काटने के संबंध में नए नियम अधिसूचित किए हैं. ये नए नियम निजी डेवलपर्स को बिना आदिवासियों या जंगल में रहने वाले समुदायों की सहमति लिए जंगल काटने की अनुमति देते हैं. 

28 जून को केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वन संरक्षण नियम 2022 नोटिफाई कर दिए हैं. नए नियमों के तहत जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार से राज्य सरकार को दे दी गई है. 

यह एक ऐसा बदलाव है, जो आदिवासियों को संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए अधिकार, पेसा और वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. ज़मीन अधिग्रहण के लिए सबसे ज़रूरी शर्त है कि ग्राम सभा की मंज़ूरी ली जाए. लेकिन इन बदलावों के बाद ग्राम सभा की मंज़ूरी की दरकार ख़त्म कर दी गई है.” पूर्व राज्य सभा सांसद और सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात ने MBB को बताया है. 

पूर्व राज्य सभा सांसद और सीपीएम नेता बृंदा करात

बृंदा करात उन विपक्षी नेताओं में से हैं जो इस मसले पर शुरुआत से ही बोलती रही हैं. उन्होंने पिछले साल अक्टूबर महीने में ही पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को एक पत्र लिखा था. उस पत्र में बृंदा करात ने लिखा था कि वन संरक्षण के प्रस्तावित नए नियम वन संरक्षण के लिए कम और कॉरपोरेट के लिए सस्ती ज़मीन फटाफट उपलब्ध कराने के लिए ज़्यादा नज़र आते हैं. 

उन्होंने उस समय भी आशंका जताई थी कि वन संरक्षण के नए नियम आदिवासी अधिकारों पर बड़ा हमला होंगे. उनके अनुसार नए नियम जंगल, आरक्षित जंगल और डीम्ड जंगल की परिभाषा को कमज़ोर करते हैं. 

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने बीते 28 जून को 2003 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम की जगह वन संरक्षण अधिनियम 2022 को अधिसूचित किया है.

इस सिलसिले में छपी रिपोर्ट बताती हैं कि एक बड़ा और महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ है कि अब जंगल काटने के लिए आदिवासी समुदायों या फिर जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों से सहमति हासिल करना केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं होगी. 

नए नियमों के तहत अब यह काम राज्य सरकार का होगा. पहले नियमों के अनुसार यह एक अनिवार्य काम था जो केंद्र सरकार को करना पड़ता था. इस नियम के तहत केंद्र सरकार को वन भूमि की निजी परियोजनाओं के लिए सौंपे जाने की मंज़ूरी देने से पहले केंद्र सरका को आदिवासी समुदायों से मिली सहमती को सत्यापित करना होता था.

इस मसले पर पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सवाल उठाए हैं. उन्होंने इस सिलसिले में लिखा है,” आदिवासी इलाक़ों में रहने वाले समुदायों की रोज़ी रोटी और जीविका की क़ीमत पर राज्य सरकारों पर जंगल की ज़मीन को डायवर्ट करने का केंद्र सरकार का दबाव अधिक होगा.”

उन्होंने कहा है कि नए नियमों को लागू करने से पहले व्यापक विमर्श नहीं किया गया है. जयराम रमेश के अनुसार नए नियम करोड़ों आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों के हक़ों पर हमला है. इन नियमों के बाद उनके अधिकारों में भारी कटौती हो गई है. 

जय राम रमेश ने इस सिलसिले में एक पेज के नोट में लिखा है कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अनुरूप लागू करना सुनिश्चित करने का दायित्व संसद ने सरकार को सौंपा था. लेकिन सरकार ने उस दायित्व को तिलांजलि दे दी है. 

इन नए नियमों के को विज्ञान और प्रद्योगिकी मंत्रालय यथा पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय संबंधी संस की स्थायी समितियों में विचार विमर्श के लिए नहीं भेजा गया था.  

कांग्रेस के नेता और लोकसभा सांसद राहुल गांधी ने भी इस मसले में अपनी राय रखी है. उन्होंने लिखा है, “मोदी-मित्र सरकार मिलीभगत के चरम पर है! जंगल की ज़मीन को लूटने के लिए बीजेपी सरकार वन संरक्षण 2022 के नए नियम ले कर आई है. “

विपक्ष के सवालों और आरोपों का जवाब देते हुए सरकार की तरफ़ से कहा गया है कि नए नियम सुधार की दृष्टि से बनाए गए हैं. पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने जयराम रमेश के आरोप का जवाब देते हुए लिखा है, “आप ज़बरदस्ती एक समस्या खड़ी खरने की कोशिश कर रहे हैं जबकि समस्या कोई है ही नहीं. वन अधिकार क़ानून को कमज़ोर नहीं किया गया है. यह स्पष्ट उल्लेखित है कि राज्य सरकार जंगल की ज़मीन को परियोजना के लिए देने से पहले वन अधिकार क़ानून 2006 के सभी प्रावधानों का पालन सुनिश्चित करेगी.”

सरकार की तरफ़ से बताया गया है कि वन अधिकार अधिनियम 2006 एक स्वतंत्र प्रक्रिया है. राज्य सरकारें इसका पालन किसी भी स्टेज पर कर सकती हैं. लेकिन राज्य सरकारों को जंगल की ज़मीन को किसी परियोजना के लिए देने से पहले यह प्रक्रिया पूरी करनी ही होगी. 

जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने नए नियमों का बचाव किया है.

पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने कहा है कि अगर कोई राजनीतिक दल इस बात को नहीं समझ रहा है या फिर नहीं समझना चाहता है तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता है. 

आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने भी इस मामले में नए नियमों का बचाव किया है. उन्होंने इस पूरे मामले को अलग ही मोड़ दे दिया है. वो कहते हैं कि विपक्ष के इन आरोपों में कोई दम नहीं है. उनके अनुसार विपक्ष दरअसल इस बात से परेशान है कि एनडीए की तरफ़ से एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया गया है. 

वैसे यह तर्क थोड़ा रोचक ज़रूर है क्योंकि विपक्ष के कई नेताओं ने यह कहा था कि द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति बनाने और आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करना दो अलग अलग बातें हैं. वैसे अगर जयराम रमेश के ट्वीट को देखेंगे तो उन्होंने द्रोपदी मूर्मु को उम्मीदवार बनाने पर कुछ नहीं कहा है लेकिन उनके ट्वीट की टोन कुछ कुछ वैसी ही है.

उन्होंने अपने ट्वीट में कहा है कि यह निर्णय यानि की वन संरक्षण क़ानून के नए नियम आदिवासियों के प्रति मोदी सरकार की सच्ची नीयत को दर्शाते हैं. फ़िलहाल देश में जो राजनीतिक माहौल है उसमें आदिवासियों की चर्चा होती रहेगी.

यह चर्चा सिर्फ़ द्रोपदी मूर्मु या फिर राष्ट्रपति चुनाव तक सीमित नहीं होगी. बल्कि यह चुनाव तो उस भूमिका का हिस्सा है जिससे यह चर्चा शुरू होती है. यह चर्चा कई राज्यों के विधान सभा चुनाव से जुड़ॉी हुई है.

इन राज्यों में गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ से ले कर त्रिपुरा तक शामिल हैं. त्रिपुरा को छोड़ दें तो बाक़ी सभी राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस पार्टी दोनों का सीधा मुक़ाबला है.

वन संरक्षण नियम 2022 से जुड़ी आशंकाएँ 

वन संरक्षण नियम 2022 के नए नियमों में सबसे पहली और बड़ी आशंका संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए आदिवासी अधिकारों में कटौती की जताई गई है. इसके साथ ही पेसा और वन अधिकार क़ानून 2006 में किए गए प्रावधानों का उल्लंघन की आशंका भी ज़ाहिर की गई है.

वन संरक्षण क़ानून के नए नियमों के अनुसार कई तरह की परियोजनाओं के लिए जंगल काटने की अनुमति और ज़मीन का हस्तांतरण (Diversion of  Land) के लिए निजी कंपनियों को केन्द्र सरकार की अनुमति की ज़रूरत नहीं होगी. 

वन संरक्षण के नए नियमों में किसी तरह की लापरवाही के लिए कई तरह की सज़ा यहाँ तक की जेल की सज़ा का प्रावधान भी रखा गया है. लेकिन मोटे तौर पर ये नए नियम पहले के नियमों को ढीला करने की मंशा से ही लाए गए लगते हैं.

नए नियमों के तहत ग़ैर वानिकी उद्देश्यों के लिए जंगल की ज़मीन हस्तांतरित करना आसान होगा. इन नियमों का बेशक जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार पर असर पड़ेगा. 

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