28 जून 2022 को पर्यावरण और वन मंत्रालय ने वन (संरक्षण) नियम (Forest (Conservation) Rules, 2022) जारी किये थे. इन नियमों का मकसद जंगल की ज़मीन से जुड़ी ज़रूरी अनुमति की प्रक्रिया में तेज़ी लाना है.
देश भर में वन अधिकार के लिए काम करने वाले संगठनों और कार्यकर्ताओं ने कड़ा विरोध किया है. इसके अलावा कई राजनीतिक दलों ने भी इन नियमों के ख़िलाफ़ कुछ बयान दिये हैं.
लेकिन इस सिलसिले में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission For Scheduled Tribes)की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली थी. आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने पर्यावरण और वन मंत्रालय को एक पत्र लिख कर इन नियमों को घातक बताया है.
आयोग ने अपनी आशंका ज़ाहिर करते हुए कहा है कि इन नियमों के अनुसार स्टेज 1 या कई मामलों में स्टेज 2 की अनुमति के बाद आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों के अधिकारों की चिंता का प्रावधान है.
यानि इन नियमों के तहत ग्राम सभाओं की अनिवार्य अनुमति के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, एक सरकारी संस्थान है जो आदिवासी हितों के लिए काम करता है. हालाँकि ऐसा शायद ही कभी होता है कि आयोग सरकार के नीतिगत फ़ैसलों पर आपत्ति दर्ज कराए.
केंद्र की वर्तमान सरकार यानि नरेन्द्र मोदी की सरकार में तो सरकार के किसी भी फ़ैसले पर किसी संवैधानिक संस्था या वैसे पद पर बैठ किसी व्यक्ति से यह अपेक्षा बिलकुल भी नहीं की जाती है.
इस मसले पर आगे बात करने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि जंगल के संरक्षण से जुड़े क़ानून में ग्राम सभाओं की अनुमति को अनिवार्य बनाने वाले नियम कब और क्यों जोड़े गए थे.
1980 वन (संरक्षण) और ग्राम सभा के अधिकार
वन संरक्षण और आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन बताते हैं कि भारत में ऐतिहासिक तौर पर क़ानून जंगलों के दोहन और लोगों को विस्थापित करने में मदद करते रहे हैं. यह भी देखा गया है कि जंगल संरक्षण से जुड़े क़ानून केंद्र सरकार को सारे अधिकार देते रहे हैं.
वन संरक्षण और वन्य जीवों के लिए काम करने वाले संगठनों और लोगों के सालों के आंदोलन और अभियान के बाद साल 1980 में वन (संरक्षण) क़ानून लागू किया गया. इस क़ानून का मक़सद जंगल की ज़मीन को व्यवसायिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की निगरानी करना है.
इस क़ानून की अनुच्छेद 2 प्रावधान करता है कि कोई भी राज्य सरकार केंद्र की अनुमति के बिना जंगल की ज़मीन किसी और उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देगी.
वन संरक्षण और वन्य जीवों के लिए काम करने वाले संगठन और लोग इस क़ानून के बनने से काफ़ी खुश थे. लेकिन इस क़ानून में आदिवासियों और जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों के अधिकारों की चिंता शामिल नहीं थी.
एक लंबे इंतज़ार के बाद 2006 में वन अधिकार अधिनियम लागू किया गया जिसमें आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य समुदायों के अधिकारों को स्वीकार किया गया और एक ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया गया.
इस क़ानून में पहली बार यह माना गया कि जंगल के प्रबंधन में सबसे पहली और महत्वपूर्ण भूमिका वहाँ रहने वाले समुदायों की है. इस क़ानून के अनुच्छेद 5 (Section 5) में ग्राम सभा को जंगल में रहने वाले आदिवासियों और अन्य समुदायों के हितों की रक्षा का अधिकार दिया गया है.
मुक़दमे बढ़ जाएँगे
वन और पर्यावरण से जुड़ी अनुमति के लिए वन संरक्षण क़ानून 1980 और वन अधिकार क़ानून 2006 चरणबद्ध तरीक़े से प्रक्रिया तय करते हैं. यह देखा गया है कि जब भी इन क़ानूनों के प्रावधानों को नज़रअंदाज़ कर जंगल की ज़मीन को डायवर्ट करने की कोशिश हुई तो मामला कोर्ट में पहुँचा है.
इस मामले में 18 अप्रैल 2013 का सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मील का पत्थर माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने वेदांता कंपनी को नियमगिरी पहाड़ों में खनन के लिए दिए जाने का ओडिशा सरकार का फ़ैसला रद्द कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि राज्य सरकार को इस मामले में पहले ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होगी.
लेकिन वन (संरक्षण) नियम, 2022 यह कहते हैं कि जंगल की ज़मीन किसी व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए दिए जाने के लिए केंद्र सरकार की अनुमति के बाद राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करें कि आदिवासियों के अधिकारों का हनन ना हो. दरअसल ये नए नियम 2006 के क़ानून के उद्देश्य को पलट देते हैं. इस क़ानून के तहत फ़ैसले लेने की शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर ग्राम सभा को मज़बूत बनाया गया था.
लेकिन नए नियम ग्राम सभाओं की भूमिका को लगभग शून्य कर देते हैं. अगर ये नियम लागू होते हैं तो यह तय है कि देश के अलग अलग राज्यों में जंगलों की ज़मीन से जुड़े मुक़दमों की तादाद अदालतों में बढ़ जाएगी.
नये नियमों को बनाने के पीछे राष्ट्रहित को सर्वोपरि बताया जा रहा है. लेकिन इन नियमों से जो प्रावधान बनते हैं उससे साफ़ है कि जंगल की ज़मीन को व्यवसायिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल को आसान बनाने की कोशिश की जा रही है.
केंद्र सरकार इन नियमों के ज़रिये ग्राम सभाओं को दी गई शक्ति को समाप्त कर एक सिंगल विंडो सिस्टम बना रही है. यानि केंद्र सरकार सारी शक्तियों का अति केंद्रीयकरण करने के रास्ते पर है.
इसलिए इन नियमों के सार्वजनिक होने के बाद की चिंताओं को राजनीतिक कह कर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. ख़ासतौर से जब सरकार की एक महत्वपूर्ण संस्था अनुसूचित जनजाति आयोग इस मामले में सरकार को चेतावनी दे रहा है.