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अंडमान से झारखंड तक, पीवीटीजी को बचाने के उपाय असफल क्यों हैं

साल 2016 से लेकर अभी तक यानि अप्रैल 2023 के बीच मुझे देश के आदिवासी समुदायों में से अधिकांश से मिलने का मौका मिला है. इनमें वे आदिवासी समुदाय भी शामिल हैं जिन्हें विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति (PVTG) कहा जाता है. पहले इन आदिवासी समुदायों को आदिम जनजाति (primitive tribes) कहा जाता था. देश भर में ऐसे 75 समुदायों को विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों के तौर पर पहचाना गया है. 

इन जनजातियों के लोगों से मिलने के सिलसिले में हाल में सवर (Savar) समुदाय के लोगों से मुलाकात हुई. यह मुलाकात झारखंड के पूर्वी सिंहभूम के डुमरिया ब्लॉक के एक गांव आस्ता कोवाली में हुई. इस बस्ती में मौजूद 20-25 लोगों में कुपोषित बच्चे, नशे में डूबे औरतें और पुरुष और खाट पर पड़े एक-दो बुजुर्ग मिले.

इस बस्ती में मौजूद हालात मैं देश के अलग अलग राज्यों में विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों के कई समूहों में पहले भी देख चुका हूं. मसलन झारखंड में ही हज़ारीबाग जिले के बिरहोर आदिवासियों के यही हाल नज़र आए थे. ओडिशा के हिल खड़िया, मांकडिया या लोधा के हालात भी कमोबेश ऐसे ही थे.

छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के पहाड़ी कोरवा आदिवासियों की स्थिति भी यही थी. 

दक्षिण में कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल की सीमा पर नीलगिरी की पहाड़ियों में बसे बेट्टा कुरूंबा आदिवासियों की हालत पर मैने एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार करते हुए हालात यही पाए थे. इन आदिवासी बस्तियों के हालत यानि वहां मुझे जो नज़र आया था.

इन सभी बस्तियों में रहने वालों और यहां नज़र आने वाले हालात में जो कई बातें समान नजर आती हैं उन्हें क्रमवार रखूं तो कुछ इस तरह से इन बातों को रखा जा सकता है – 

-ये सभी आदिवासी जंगल में भोजन या शिकार की तलाश में घूमने वाले समुदाय रहे हैं

-इन सभी समुदायों को जंगल से निकाल कर स्थाई बस्तियों में बसा दिया गया है

-इन सभी बस्तियों में इंदिरा आवास या वैसी ही किसी योजना के तहत पक्के मकान दिए गए हैं

-इन मकानों में आदिवासी रहते नहीं हैं

-इन आदिवासियों के पास जीविका का कोई स्थाई साधन नहीं है

-ये आदिवासी अभी भी खेती-किसानी में माहिर नहीं हैं

-इनके परंपरागत काम की अब कोई पूछ नहीं है

पिछले सात साल में देश के अलग अलग राज्यों में बसाए गए पीवीटीजी सूचि के आदिवासियों की बस्तियों में बिताए कई-कई दिन के बावजूद मुझे यह साफ़ दिखाई दे रहा था कि अंडमान के ग्रेट अंडमानी या फिर ओंग, दक्षिण भारत के बेट्टा कुरूंबा या फिर अन्य पीवीटीजी समुदाय हों या फिर ओडिशा, महाराष्ट्र, झारखंड, मध्य प्रदेश या फिर छत्तीसगढ़ इन सब के हालात लगभग एक जैसे हैं. 

मसलन इन आदिवासियों की बस्तियों में बनाए गए घरों में अगर झांक कर देखा जाए, तो इनकी कुल जमा संपत्ति घर में बंधी रस्सी पर लटकते कुछ मैले-कुचले कपड़े या फिर लकड़ियां हैं. आदमी और औरत दोनों ही इन बस्तियों में नशे के आदि मिलते हैं. 

इन आदिवासी समुदायों में से ज़्यादातर में परिवार टूट रहे हैं. इन टूटते परिवारों की वजह से बच्चे लगातार ख़तरे में रहते हैं. कुपोषण और बीमारियों के बारे में तो बात करने का मतलब ही कुछ नहीं है. इन आदिवासी समुदायों में पता नहीं अध्य्यन या सरकार के आंकड़े क्या कहते हैं, लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि अगर यहां आदमी 50 साल भी जी लेता है तो बहुत है. 

पिछले सात साल से इन आदिवासियों से मुलाकात के दौरान उनको करीब से समझने की काफी कोशिश की है. इस दौरान कई रिपोर्ट अलग अलग समुदायों पर लिखी भी हैं. इन रिपोर्ट्स के ज़रिये यह रिकॉर्ड करने की कोशिश थी कि इन समुदायों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं. 

उनकी संस्कृति, भाषा बोली..रहन-सहन और खान-पान में किस तरह का बदलाव आया है. लेकिन ऐसा क्या है कि देश भर में पीवीटीजी समुदाय धीमी मौत मर रहे हैं, और उन्हें बचाने की सभी कोशिशें नाकाफी साबित हो रही हैं? मुझे यह पता था या पता है कि इसका कोई एक कारण तो नहीं है. 

मसलन कुपोषण, बीमारियां, जीविका के सीमित साधन, कम साक्षरता दर आदि की ऐसे कारण हैं जो इन समुदायों में नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर्ज होने के कारण हैं. लेकिन ये समस्याएं तो मुख्यधारा के करीब आ चुके कई आदिवासी समुदायों में दिखाई देते हैं. 

फिर पीवीटीजी समुदायों में ऐसा क्या हो रहा है जो इनको मिटा रहा है? सवर जनजाति से मुलाकात के बाद इस सवाल पर मैने बार-बार सोचा और पलट कर लगभग पिछली सारी रिपोर्टों को पढ़ा और सुना. मैने पाया कि इन रिपोर्ट्स में भी जो दो बातें बार-बार आई हैं. 

इनमें पहली बात इन समुदायों के लिए जीविका के स्थाई साधन ना होना है. दूसरी और सबसे अहम बात है कि इन आदिवासी समुदायों में जीने की मजबूत इच्छा नज़र नहीं आती है. ये आदिवासी जंगल के स्वछंद माहौल में रहने के आदी थे. जब इन्हें एक जगह पर बसा दिया गया और जंगल में इनके आने जाने पर पाबंदियां लग गईं तो इनका जीवन पूरी तरह से बदल गया.

अगर आपको कभी इन आदिवासी बस्तियों में कभी जाने का मौका मिलेगा तो आप पाएंगे कि एक अवसाद (डिप्रेशन) चारों तरफ पसरा हुआ है. यह डिप्रेशन इनके बस्तियों में बसा दिये जाने से सीधा सीधा जुड़ा है. 

क्या मैं यह इस बात की वकालत कर रहा हूं कि इन आदिवासियों को जंगल में ही घूमने दिया जाता. तो मैं कहूंगा कि नहीं, यह मेरी राय नहीं है. लेकिन मैने यह महसूस किया है कि यह काम बहुत मेकनिकल तरीके से किया गया है. इस काम में कोई सवेंदनशीलता नहीं बरती गई है.

इन आदिवासियों को बचाने के लिए सरकार ने 15000 कोरड़ रूपये के बजट की घोषणा की है. बेशक यह कदम स्वागत योग्य है. इस पैसे की और उन सभी योजनाओं की ज़रूरत इन आदिवासी समुदायों को है जो उनके लिए चलाई जा रही हैं. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा ज़रूरत है मोटिवेशन की..जीने के लिए किसी प्रेरणा की. 

वह मोटिवेशन उन्हें अलग-अलग तरह की गतिविधियों में शामिल करने से ही मिल सकता है. ये गतिविधियां उनके सांस्कृतिक परिवेश से मेल भी खाती हों यह ज़रूरी है. 

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