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देर आये-दुरुस्त आए, कश्मीर में जनजातियों पर बदला बीजेपी का स्टैंड

सोमवार, 13 सितंबर को जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने अनुसूचित जनजातियों को लागू करने के एक समारोह के तहत गुज्जर-बकरवाल और गद्दी-सिप्पी अनुसूचित जनजाति के लोगों को व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों के प्रमाण पत्र सौंपे.  

इसके अलावा भी जम्मू कश्मीर में अचानक राज्य की जनजातियाँ सरकार की प्राथमिकता बनती नज़र आ रही हैं. मसलन राज्य में ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना से जुड़ी कोई ना कोई ख़बर लगातार आ रही है. 

पिछले हफ़्ते ही ख़बर आई थी कि राज्य की जनजातियों पर रिसर्च के लिए की फ़ेलोशिप दी जा रही हैं. बेशक जम्मू कश्मीर प्रशासन का जनजातियों के लिए ये अच्छी पहल है.

लेकिन एक सवाल लगातार मेरे ज़ेहन में कुलबुलाता रहा है. आख़िर एकदम जम्मू कश्मीर में जनजातियों से जुड़ी ख़बरें कैसे जगह बना रही हैं. वो भी नेशनल मीडिया में और हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के मीडिया में ये ख़बरें लगातार छप रही हैं.

मसलन ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की रूपरेखा बनाने के लिए जो कमेटी बनी, वो ताबड़तोड़ काम कर रही है. आमतौर पर सरकार की कमेटियाँ इतनी तेज़ी से काम नहीं करती हैं. 

इसका एक छोटा सा उदाहरण है और जम्मू कश्मीर की जनजातियों से जुड़ा हुआ ही है. 2017 की बात है जम्मू कश्मीर में आदिवासी मामलों का मंत्रालय गठित किया गया. उस समय जम्मू कश्मीर एक पूरा राज्य था और लद्दाख भी इस राज्य का ही हिस्सा था. 

उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों से मुलाक़ात की थी

इस मंत्रालय ने गुर्जर, बकरवाल और दूसरी जनजातियों के लिए कई प्रस्ताव तैयार किये. इन प्रस्तावों में वन अधिकार क़ानून (Forest Rights Act) को लागू करना भी शामिल था.

इन प्रस्तावों लागू नहीं किया जा सका. इसकी वजह थी कि सरकार में शामिल बीजेपी किसी भी सूरत में इन प्रस्तावों को लागू करने की सहमति देने को तैयार नहीं थी. 

उस समय महबूबा मुफ़्ती राज्य की मुख्यमंत्री थीं और बीजेपी के बड़े नेता निर्मल सिंह उप मुख्यमंत्री हुआ करते थे. सरकार ने इस मसले को सुलझाने के लिए एक कमेटी का गठन कर दिया.

इस कमेटी की अध्यक्षता सौंप दी गई उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह को. 

जम्मू कश्मीर के मसलों पर लगातार लिखने वाले उमर मक़बूल ने हाल ही में अपने एक लेख में याद दिलाया है कि इस कमेटी की कभी बैठक ही नहीं बुलाई गई.

इस सिलसिले में उन्हें आदिवासी मंत्रालय की तरफ़ से कई बार याद दिलाया गया कि वो कमेटी के चेयरमैन हैं. उन्हें बैठक कर इस मसले पर जल्दी से जल्दी रिपोर्ट देने चाहिए.

लेकिन उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह ने तय किया कि वो इस कमेटी की बैठक बिलकुल नहीं बुलाएँगे. 

बीजेपी ने राज्य में वन अधिकार क़ानून लागू ना होने देने के लिए उस समय कश्मीर के विशेष दर्जे का ही इस्तेमाल किया था. बीजेपी का कहना था कि अगर यह क़ानून राज्य में लागू होता है तो पर्यावरण को भारी नुक़सान हो सकता है. 

लेकिन अब बीजेपी और जम्मू कश्मीर प्रशासन शीर्ष स्तर पर यहाँ कि जनजातियों को उनके अधिकार दिलाने की क़समें खा रहा है. इसकी शुरुआत भी कर दी गई है और अच्छी शुरुआत की गई है.

फ़िलहाल बीजेपी कहती है कि वो हमेशा से जम्मू कश्मीर की जनजातियों के विकास और अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध थी.

पार्टी के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि उन्होंने 2015 से 2018 के बीच तैयार की गई आदिवासी नीति का विरोध क्यों किया था. क्योंकि उस समय तैयार की गई नीति का उद्देश्य उन्हीं समुदायों को सुरक्षित और सशक्त बनाना था। .

‘दी वायर’ के लिए लिखे गए अपने लेख में उमर मक़बूल याद दिलाते हैं कि जम्मू कश्मीर में जनजातियों के लिए विधानसभा में कोई आरक्षण लागू नहीं था. लेकिन अब परिसीमन (delimitation) के बाद राज्य की जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी. 

लेकिन वो एक तथ्य की तरफ़ इशारा भी करते हैं. बिना आरक्षण के पिछली विधानसभा में राज्य की जनजातियों के 87 में 13 विधायक थे. परिसीमन और आरक्षण के बाद यह संख्या 11 तय हो जाएगी. यानि पहले से दो सीट कम हो जाएँगी. 

जम्मू कश्मीर प्रशासन राज्य की जनजातियों के लिए जो भी कर रहा है, उसकी समीक्षा के साथ स्वागत किया ही जाना चाहिए. कहते हैं कि अंत भला सो भला…पर क्या करें जब आप दूसरों के इतिहास पर उँगली उठाते हैं तो आपका इतिहास आप पर भी हंस रहा होता है. 

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