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हिक्की पिक्की और महाराणा प्रताप के रिश्तों के अलावा उनके हालात पर भी शोध हो

हक्की-पिक्की जनजाति (Hikki Pikki tribe) के कुछ लोग पश्चिम सूडान की राजधानी शहर खार्तूम और  दारफुर क्षेत्र में घूम रहे थे. दुर्भाग्य से वहां शुरू हुए गृहयुद्ध में ये लोग फंस गए और उन्होंने भारत सरकार से गुहार लगाई कि उन्हें वहां से निकाला जाए. भारत सरकार ने उन्हें निकालने के लिए ऑपरेशन कावेरी शुरू किया था. इस जनजाति के लोग 2021 और 2022 के बीच खार्तूम और दारफुर पहुंचे थे.

सूडान में फंसने के बाद यह जनजाति काफी चर्चा में आ गई थी. यह जनजाति भारत के किस राज्य से है? उससे भी बड़ा सवाल कि आखिर इस जनजाति के लोग सूडान कैसे पहुंच गए थे? उस समय कई अख़बारों और वेबसाइट्स ने इस जनजाति के बारे में कुछ-कुछ जानकारी देने की कोशिश की थी. 

तब लोगों को पता चला कि यह जनजाति भारत के कर्नाटक राज्य की रहने वाली है. इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय जंगल से जड़ी बूटी जमा करना है. सूडान भी इस जनजाति के लोग ये जड़ी बूटी बेचने के लिए ही गए थे. 

कर्नाटक में हाल ही में संपन्न हुए विधान सभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हक्की-पिक्की आदिवासी समुदाय (Hakki-Pikki tribal community) के कुछ लोगों से मुलाकात भी की थी. इन लोगों के साथ बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था हिक्की पिक्की जनजाति के लोग दरअसल राजस्थान के रहने वाले हैं.

पीएम मोदी ने इस बात का जिक्र किया था कि कैसे इस आदिवासी समुदाय के पूर्वजों ने 16वीं शताब्दी के दौरान हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी. 

हाल ही में इंडियन एक्सप्रैस अख़बार में छपे एक लेख में प्रधानमंत्री मोदी के इस दावे की परख करने का प्रयास किया गया है. लेख कहता है कि अगर राजस्थान में महाराणा प्रताप एक ऐसे शासक थे जिन्हें भीलों और अन्य कबीलों से महत्वपूर्ण सहायता मिली थी.

हल्दीघाटी की लड़ाई (18 जून, 1576) में महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर की सेनाओं के बीच भीलों और आदिवासियों ने महाराणा की सेना में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था और इस लड़ाई में सबसे मजबूत ताकत थे.

आदिवासी, भील योद्धा और कई अन्य जनजातियाँ मुगलों के साथ बाद की झड़पों में महाराणा प्रताप के बहुत बड़े सहयोगी बने रहे. महाराणा प्रताप का नारा भी था- “भीली जायो, रानी जायो भाई-भाई (यानि भील माँ का बेटा और रानी का बेटा भाई-भाई हैं).”

हालांकि, इतिहासकारों की नजर में हक्की-पिक्की समुदाय की मेवाड़ से कर्नाटक तक की यात्रा के बीच का संबंध बहुत स्पष्ट नहीं है. शायद इसका एक कारण यह है कि हक्की-पिक्की शब्द कन्नड़ भाषा से आया है और यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि राजस्थान में रहने के दौरान इन लोगों को किस नाम से जाना जाता होगा.

लेकिन इस लेख में महाराणा प्रताप के काल के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे यह कहने की कोशिश है कि शायद प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं वह सही भी हो सकती है. शिकारियों की जनजातियों और भील कुलों का अध्ययन करने वाले विद्वानों का मानना है कि राजस्थान से वागड़ी जनजाति के लोग महाराष्ट्र और कर्नाटक चले गए थे.

हक्की का अर्थ है पक्षी और पिक्की का अर्थ है पकड़ने वाला. हक्की-पिक्की समुदाय में मेवाड़ा नामक एक समूह भी शामिल है, जिसका संबंध मेवाड़ से है. ये लोग भीली की वागड़ी बोली बोलते हैं, जो उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और चित्तौड़गढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा है. साथ ही ये लोग चामुंडा माता की पूजा करते हैं.

महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के आदिवासी इलाकों में चामुंडा माता के कई मंदिरों की स्थापना की थी. मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट, 1891 (पृ. 562-563) में वर्णित इन समुदायों के बारे में कुछ और संकेत हैं. यह कहानी काफी दिलचस्प है. लेखक कहते हैं कि इस तथ्य के तरफ अक्सर किसी का ध्यान नहीं जाता है. 

इस लेख में हल्दी घाटी और महाराणा प्रताप से जुड़े कुछ ऐसी घटनाओं या बातों को आधार बनाने की कोशिश की गई है जिन्हें इतिहासकार ठोस मानने से इंकार करते रहे हैं. 

मसलन वो कहते हैं कि हल्दीघाटी का युद्ध अनिर्णायक रहा. महाराणा प्रताप न तो अपराजित रहे और न तो वे अकबर की सेना पर कब्जा कर सके और न ही उन्होंने युद्ध के मैदान में अपना बलिदान दिया. महाराणा ने बड़ी चालाकी से अकबर की सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध जारी रखा.

1582 में अकबर ने आमेर के राजा भारमल के पुत्र राजा जगन्नाथ कछवा को जफर खान बदख्शी के साथ मेवाड़ भेजा. उन्होंने मांडलगढ़, मोही और मदारिया सहित विभिन्न क्षेत्रों में सैनिकों को तैनात किया. हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप एक जंगल से दूसरे जंगल भटक रहे थे तो अकबर की सेना उन्हें पकड़ने के लिए वहां इकट्ठा हो गई.

अकबर की सेना ने अपने भोजन के लिए फसलों और सब्जियों की खेती की और स्थानीय लोगों की मदद से पक्षियों जैसे तीतर, बटेर, खरगोश या अन्य जंगली जानवरों का शिकार किया ताकि वे अच्छा खा सकें.

हालांकि, महाराणा प्रताप ने हमलावरों का सामना करने के लिए पूरे क्षेत्र में एक संदेश फैलाया. जिसमें कहा गया था कि न तो अकबर की सेना से डरना है, न ही फसल बोने में मदद करनी है और न ही किसी तरह के जानवरों का शिकार करना है. महाराणा ने इन परिस्थितियों का बड़ी चतुराई और सावधानी से सामना किया.

ऐसे में मुगल सेना के किसी भी सैनिक को खाने के लिए एक निवाला भी नहीं मिला. इस रणनीति के तहत महाराणा ने फसलों और सब्जियों की खेती पर रोक लगा दी, मांस के लिए बकरियों और भेड़ों के शिकार पर रोक लगा दी. और आदेश दिया कि अगर कोई किसान मुगल सेना के दबाव के आगे झुक जाता है और ऐसा करता है तो उसके सिर काट दिए जाएं.

इस लेख के लेखक अंदाज़ा लगाते हैं कि शायद ऐसी परिस्थितियों में भील जनजाति के कुछ वर्ग खानाबदोश जीवन जीने को मजबूर थे. संभव है कि इसी दौरान वे शिकार की तलाश में कर्नाटक की ओर चले गए हों. ये लोग तीतर जैसे पक्षियों का शिकार करने में कुशल थे और उन्होंने कर्नाटक के क्षेत्रों में भी यही प्रथा जारी रखी, जहां स्थानीय लोग उन्हें हक्की-पिक्की कहने लगे.

2011 की जनगणना के अनुसार, बेंगलुरु में उनकी आबादी 11 हज़ार 892 थी. आज हक्की-पिक्की समुदाय के लोग कर्नाटक के हासन, बल्लारी, दावणगेरे, शिवमोग्गा, तुमकुरु, बेंगलुरु, मांड्या, चिक्काबल्लापुर और रामनगर जिलों में रहते हैं.

हिक्की-पिक्की कौन हैं और क्या वे सचमुच में किसी ज़माने में महाराणा प्रताप के सहयोगी रहे थे, इस बारे में इंडियन ऐक्सप्रेस में छपा लेख कोई ठोस प्रमाण पेश करने में असफल रहता है.

लेकिन लेख के अंत में यह सवाल जायज है कि जब इस जनजाति के लोग किसी दूसरे देश में फंस जाते हैं और ख़बरों में आ जाते हैं, तभी उनके बारे में बातें क्यों की जाएं? 

देश के आदिवासी समुदायों के बारे में मुख्यधारा कहे जाने वाले समुदायों में इतनी कम जानकारी क्यों होती है? 

ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट शोध करे

भारत में फिलहाल 705 आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूचि में रखा गया है. इनमें से 75 जनजातियों को विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति के तौर पर चिन्हित किया गया है.

इन जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक जीवन और उसमें बदलाव के अध्ययन बेहद ज़रूरी है. यह काम इन जनजातियों के बारे में सही सही तथ्यों को जुटाने के लिए बेहद ज़रूरी है.

इसके अलावा इन जनजातियों के सामने मौजूद ख़तरों से इन्हें बचाने के लिए भी इस तरह के शोध बेहद ज़रूरी होते हैं.

मसलन भारत में आज कई आदिवासी समुदाय हैं जिनकी जनसंख्या में ठहराव है या फिर उनकी जनसंख्या लगातार घट रही है.

इसके अलावा कई आदिवासी भाषाएं ख़त्म हो चुकी हैं और कई आदिवासी भाषाओं पर यह ख़तरा लगातार मंडरा रहा है.

इन समुदायों में आ रहे बदलाव का अधय्यन किया जाए तो यह भी पता चलता है कि इन आदिवासी समुदायों के विकास की योजनाएं किस हद तक अपने लक्ष्य को हासिल कर पा रही हैं.

इस उद्देश्य के लिए आदिवासी बहुल राज्यों में ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना की जाती है. इन इंस्टिट्यूट्स का काम जनजातियों की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक गतिविधियों के बारे में शोध करना है.

इसके अलावा अलग अलग जनजातियों की स्थितियों में कैसे बदलाव हो रहे हैं उनका पता लगाना भी होता है.

मसलन देश की कई जनजातियों के बारे में यह माना जाता है कि वे अब भारत के मुख्यधारा का हिस्सा बन चुकी हैं. अगर ऐसा है तो क्या उनकी भाषा अभी बची है या फिर अब वे मुख्यधारा की ही भाषा बोलते हैं.

मैं भी भारत की यात्राओं के दौरान हमने यह पाया है कि आदिवासी भारत के कई समुदाय हैं जिनमें बड़े बदलाव आ रहे हैं. ये बदलाव उनकी भाषा-बोली, धार्मिक -सामाजिक आस्थाओं, पहनावे और व्यवसाय सभी पहलुओं में देखे जा रहे हैं.

इन यात्राओं में हमने यह भी पाया है कि देश के कई जनजातीय समुदाय हैं के सामने तो खुद को ज़िंदा रखने का ही संकट पैदा हो गया है. क्योंकि उनके परंपरागत व्यवसाय के साधन अब लगभग ख़त्म हो गए हैं और वो नई दुनिया से तालमेल नहीं बैठा पाए हैं.

देश के कई राज्यों में ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट इस दिशा में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं. लेकिन ज़्यादातर राज्यों में ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं.

आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर देश अमृत महोत्सव मना रहा है. इस उत्सव में आदिवासियों की बात भी खूब हो रही है.

लेकिन जब इन दावों की पड़ताल होती है तो पाया जाता है कि आदिवासी समुदायों की महिमा मंडन की कोशिश की जा रही है. उन्हें राजा-महाराजाओं से जोड़ कर दिखाने की कोशिश की जा रही है.

जबकि उनके सवैंधानिक और कानूनी अधिकारों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हो रहा है.

लेकिन आदिवासी पहचान और अधिकार को महत्व देने के दावों और हकीकत के बीच गहरी खाई है.

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