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गोलबंदी की राजनीति, पहचान पर (अ)नैतिक दबाव, दो आदिवासी हत्या से निकलता संदेश

मध्य प्रदेश में गोंड आदिवासी समुदाय के दो आदिवासियों की पीट पीट कर हत्या कर दी गई. जिन्होंने हत्या की है उन्हें हिंदूवादी संगठन से जुड़ा बताया जा रहा है. जिन दो लोगों की हत्या हुई है उनमें से एक की उम्र 50 और दूसरे की उम्र 60 बताई जा रही है. 

इस मामले में पुलिस की तरफ़ से आए बयान को थोड़ा सा ध्यान से देखने की ज़रूरत है. पुलिस ने कहा है कि जिन दो लोगों की हत्या हुई है उनके घर से 12 किलोग्राम मांस मिला है. इस मांस को जाँच के लिए भेज दिया गया है.

इसके अलावा यह भी कहा गया है कि सोमवार की रात को कुछ लोगों ने पुलिस को सूचना दी थी कि दो लोग गौमांस की तस्करी कर रहे थे. लेकिन जब तक पुलिस घटना स्थल पर पहुँचती इन दो लोगों को पीट पीट कर मार डाला गया. इसके अलावा इन दो लोगों को बचाने की कोशिश करने वाले आदमी को भी बुरी तरह से पीटा गया.

यह आदमी फ़िलहाल गंभीर हालत में अस्पताल में दाखिल है. पुलिस ने बयान में बताया है कि इस पूरे मामले में 6 लोगों को नामज़द किया गया है. इसके अलावा कुछ और लोगों के ख़िलाफ़ भी रिपोर्ट लिखी गई है. मुझे पुलिस के इस बयान में एक चालाकी नज़र आती है.

दरअसल पुलिस का यह बयान गोंड आदिवासियों की जघन्य हत्या से पैदा हुए सवाल को उलझा देने की कोशिश कर रहा है. इसके साथ ही इस बयान के सहारे पुलिस अपनी जवाबदेही से भी बचना चाहती है. पुलिस इस बयान के ज़रिए बहस को जघन्य हत्या से मांस की तरफ़ मोड़ने की कोशिश कर रही है. 

मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले में भील आदिवासी हल बैल से खेत जोतते हुए

इस बयान ने काफ़ी हद तक अपना असर दिखाना भी शुरू कर दिया है. लोगों ने इस पर चर्चा शुरू कर दी है कि इन आदिवासियों के घर में 12 किलो मांस कहां से आया. क्या मांस गाय का ही था? जैसे ही बहस इस तरफ़ मुड़ती है पीड़ित भी अपराधी की श्रेणी में आ जाता है. 

इस बहस के असर को टेस्ट करने के लिए इस जघन्य हत्या से जुड़ी ख़बरों पर आई प्रतिक्रियाओं को हम आधार मान सकते हैं. इन कॉमेंट्स में लोगों ने लिखा है कि लोगों को इन आदिवासियों की हत्या नहीं करनी चाहिए थी, बल्कि पुलिस के हवाले करना चाहिए था.

इन प्रतिक्रियाओं में लोग लिखते हैं कि इन आदिवासियों को क़ानून के हाथों सज़ा मिलनी चाहिए थी. 

किसी भी अपराध के सिलसिले में पुलिस आमतौर पर सबसे पहले पता लगाने की कोशिश करती है कि अपराध के पीछे की मंशा क्या है? उसके बाद अपराधियों की पहचान और अपराध में इस्तेमाल की गई वस्तुओं या हथियार बरामद करती है. 

लेकिन दो आदिवासियों की हत्या के बाद पुलिस सबसे पहले उनके पास से मिले 12 किलोग्राम मांस की ख़बर देती है. दरअसल मांस और कितना मांस मिला उसकी मात्रा बता कर पुलिस अपराधियों को कुछ रास्ते भी उपलब्ध करा रही है.

मसलन इस बयान के बाद समाज के एक बड़े हिस्से में अपराधियों के प्रति यह राय बना सकती है कि वो धर्म की रक्षा के लिए हत्या को मजबूर हुए थे. अगर लोगों को लगता है कि आदिवासियों के पास गाय का ही मांस था तो जो हत्यारे हैं, वो समाज के हीरो बन जाएँगे. 

गोलबंदी की राजनीति और आदिवासी

2019 में गाय के नाम हिंसा और नफ़रत के अपराधों को रोकने की मंशा से मध्य प्रदेश विधान सभा ने एक क़ानून पास किया था. इस क़ानून के अनुसार गाय के नाम पर हिंसा करने वालों को 6 महीने से 3 साल तक की सज़ा का प्रावधान किया गया था. उस समय बीजेपी विपक्ष में थी और उसने इस क़ानून की आलोचना की थी. 

गाय के नाम पर हत्या करने वालों के मन में ऐसे किसी क़ानून का डर क्यों नहीं है? इस पर अब कुछ भी कहना बेमानी है. फिर भी एक वाक्य में कहा जाए तो मामला बिलकुल साफ़ है कि इस तरह के अपराधों को सत्ता का संरक्षण है. इसके अलावा अपराधियों को समाज में हीरो का दर्जा मिल जाता है. इसके अलावा जो लोग राजनीति में जाने की महत्वाकांक्षा रखते हैं उनका रास्ता आसान हो जाता है. 

अभी तक यह माना जाता था कि गाय के नाम पर हिंसा सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ है. लेकिन मध्य प्रदेश में हमने यह महसूस किया कि आदिवासियों के ख़िलाफ़ भी समाज में एक दुराग्रह तैयार हो चुका है.

इसका पहला अहसास मुझे कुछ महीने पहले हुआ था. जब हम खरगोन से झाबुआ के रास्ते में थे. हम हाइवे पर थे और कुछ भील आदिवासी बैल लेकर सड़क के किनारे चल रहे थे. यह बुवाई का सीज़न था. ज़ाहिर है कि ये आदिवासी अपने खेत में जुताई करके घर लौट रहे थे.

लेकिन इन्हें देखते ही हमारा ड्राइवर बोला, “ सर ये मामा लोग (भील आदिवासी) मुसलमानों के लिए गायों की तस्करी करते हैं.” वो आगे कहता है, “ये लोग पैदल पैदल गाय और बैलों को मुंबई पहुँचाते हैं, आदिवासी हैं तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं है.”

मैंने उससे सवाल किया कि यह बुवाई का सीज़न है और ये आदिवासी खेत से लौट रहे हैं, इसमें तुम गौ तस्करी क्यों तलाश रहे हो. तुम्हें कैसे पता कि आदिवासी गौ तस्करी में शामिल हैं. उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया था, “ सर हम घूमते हैं, हमें पता है.” 

वो आगे कहता है, “मामा लोगों को तो दारू और मुर्ग़ा के लिए पैसा चाहिए, उनसे जो मर्ज़ी करवा लो.” 

मुख्य धारा कहे जाने वाले समाज में  यह आम धारणा है कि आदिवासी समुदाय अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का समूह है. उनके ख़िलाफ़ और भी कई तरह के पूर्वाग्रह पाए जाते हैं. लेकिन एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत में कुल आबादी का लगभग 8-9 प्रतिशत आदिवासी है. 

कई राज्यों में आदिवासी समुदाय चुनावी दृष्टि से बहुत मायने रखता है. मध्य प्रदेश उन्हीं राज्यों में से एक है. यहाँ  विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए कुल 47 सीटें आरक्षित हैं.

मध्य प्रदेश में सत्ताधारी बीजेपी को 2003, 2008  और 2013 चुनावों में आदिवासी इलाक़ों में ज़बरदस्त कामयाबी मिली थी. लेकिन 2018 में आदिवासियों ने बीजेपी को झटका दिया. इस चुनाव में बीजेपी को आदिवासी इलाक़ों में सिर्फ़ 16 सीट ही मिल पाई थीं.

अब राज्य में चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है और बीजेपी ने आदिवासियों को साधने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया है. इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के बड़े बड़े कार्यक्रम कराए गए हैं.

लेकिन बीजेपी को शायद लग रहा है कि इतने से बात नहीं बनेगी. इसलिए आदिवासी पहचान के सवाल को उछाला जा रहा है. हाल ही में बीजेपी के सांसद गुमानसिंह डामोर ने एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया और उसमें माँग रखी कि जो आदिवासी ईसाई धर्म को स्वीकार कर चुके हैं उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए.

ऐसा लगता है कि राज्य में सरकार चला रही बीजेपी आदिवासी इलाक़ों में सरकारी उपलब्धियों और घोषणाओं के भरोसे ही नहीं रहना चाहती है. बीजेपी आदिवासी आबादी में भी धर्मांतरण जैसे मसलों को उठा कर गोलबंदी का प्रयास करेगी.

2003 में बीजेपी अगर मध्य प्रदेश से दिग्विजय सिंह की सरकार को उखाड़ फेंकने में कामयाब हुई थी तो उसका एक बड़ा कारण उसे आदिवासी इलाक़ों में मिली सफलता भी थी. इस सफलता की पृष्ठभूमि 2002 के हिंदू संगम संगम ने रखी थी. इस हिंदू संगम में क़रीब दो लाख आदिवासी शामिल हुए थे.

अभी यह कहना मुश्किल है कि दो आदिवासियों की गाय के नाम पर हत्या क्या कम से कम कुछ इलाक़ों में आदिवासियों को बीजेपी के ख़िलाफ़ गोलबंद होने का कारण बन सकता है. या फिर इस घटना को भी सत्ताधारी दल बीजेपी अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है.

आदिवासी जीवनशैली पर (अ)नैतिक दबाव

बदलाव एक ऐसा नियम माना जाता है जो स्थिर है. यानि बदलाव अवश्यंभावी है, उसे रोका नहीं जा सकता है. दुनिया भर के समाज बदले हैं और बदलते रहेंगे. आदिवासी समुदाय भी बदलाव से ना तो अछूते हैं और ना ही रह सकते हैं.

लेकिन आदिवासी समुदायों पर बदलाव थोपा भी गया है. देश के मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज और थोड़ा और बारीकी से कहें तो संगठित धर्मों ने आदिवासियों पर बदलाव थोपा है. इसमें आदिवासियों पर अपने जीवन मूल्य के साथ साथ खान-पान की आदतें शामिल हैं.

आदिवासी भारत में घूमते हुए अपने अनुभव के आधार पर मैं यह बात कह सकता हूँ. आदिवासियों पर थोपे गए इस बदलाव ने इस समाज में दरार भी पैदा की है. मसलन देश के कई राज्य हैं जहां पर हिंदू धर्म के लोग गाय का मांस खाते हैं. 

उसी तरह से कई आदिवासी समुदाय हैं जहां गाय मांस के लिए ही पाली जाती है. लेकिन हमने यह पाया है कि जो आदिवासी संगठित धर्मों या समाजों के संपर्क में आ गए हैं, उनके खान-पान में बदलाव आया है. आज ये आदिवासी अपने ही समुदायों के लोगों को उसी आधार पर तौलते हैं, जिस आधार पर उन्हें मुख्य धारा का समाज तौलता रहा है. 

आदिवासी पहचान पर दबाव चौतरफ़ा है. एक तरफ़ जंगल और जंगली जानवरों को बचाने के लिए बनाए गए क़ानून हैं, तो दूसरी तरफ़ पर्यावरण और जीव जंतुओं की चिंता में बने ग़ैर सरकारी संगठन हैं. उसके अलावा संगठित धर्म और सामाजिक सुधार संगठन हैं.

इनमें से कुछ हैं जो आदिवासियों को शिकार से रोकने के लिए जागरूक करते हैं तो कुछ हैं संगठन हैं जो उनके नए जीवन मूल्य देने में जुटे हैं. जो आदिवासी इस दबाव में आ जाते हैं और इन थोपे हुए बदलाव को स्वीकार कर लेते हैं, उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वो बाक़ी आदिवासियों पर भी इस बदलाव को स्वीकार करने का दबाव बनाएँ.

जो स्वीकार नहीं करते हैं उन्हें तिरस्कार झेलना पड़ता है और वो और अलग-थलग पड़ते जाते हैं. दो आदिवासियों की हत्या यह बताती है कि आदिवासी अगर मुख्यधारा में शामिल होना चाहता है तो उसके पास अपनी जीवन शैली, वेशभूषा, भाषा और खान-पान यानि अपनी पहचान को बनाए रखने का विकल्प नहीं है. 

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