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भारत को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिलेगा, कौन बन सकता है ?

24 जुलाई को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. इसके साथ ही यह चर्चा शुरू हो गई है कि भारत के अगले राष्ट्रपति आदिवासी हो सकते हैं? इस तरह के क़यास लगाए जा रहे हैं. ये अनुमान पूरी तरह से आधारहीन हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है.

राजधानी दिल्ली में हाल के घटनाक्रम और पिछले कुछ महीनों में बीजेपी के कार्यक्रमों से इन क़यासों को बल मिलता है.

ख़बरों के अनुसार हाल ही में बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा के घर पर एक बैठक हुई. इस बैठक में राष्ट्रपति चुनाव के मसले पर चर्चा हुई थी. इस बैठक में शामिल लोगों के हवाले से बताया जा रहा है कि यहाँ पर पार्टी के बड़े आदिवासी नेताओं में से किसी एक को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनाए जाने पर भी चर्चा की गई.

बीजेपी की राजनीति को समझने वाले कई विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि इस बार भारत को अपना पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिल सकता है. दरअसल पिछले कुछ महीने में बीजेपी, केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों की गतिविधियों और कार्यक्रमों से यह साफ़ हो गया है कि फ़िलहाल बीजेपी आदिवासी आबादी को प्राथमिकता पर रख रही है.

गुजरात चुनाव बड़ा कारण

आदिवासियों को प्राथमिकता पर रखने की पहली वजह तो बिलकुल साफ़ है कि इस साल के अंत में या अगले साल जिन भी राज्य में विधान सभा के चुनाव हैं उनमें से ज़्यादातर में आदिवासी आबादी जीत और हार तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी. इन राज्यों में गुजरात भी शामिल है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की प्रतिष्ठा से जुड़ा चुनाव होगा.

गुजरात की ही बात करें तो बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दोनों के लिए ही बेहद महत्वपूर्ण है. इस राज्य को बीजेपी और हिंदूवादी संगठनों की प्रयोगशाला कहा जाता रहा है. प्रधानमंत्री मोदी भी 2014 में सत्ता में आए तो उनके गुजरात मॉडल की भूमिका उसमें सबसे अधिक थी. 

गुजरात में इसी साल चुनाव है और बीजेपी बेशक यहाँ मज़बूत स्थिति में नज़र आती है. लेकिन 1998 से सत्ता में बनी रही बीजेपी को अहसास है कि मज़बूत संगठन और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि के बावजूद 2017 के चुनाव में एक बार मामला डावाँडोल हो गया था. हालाँकि पार्टी आख़िर में जीत गई लेकिन उसे 2012 की तुलना में 12 सीटें कम मिली. 

बीजेपी अपने 150 के लक्ष्य के आस-पास भी नहीं पहुँच पाई थी. बल्कि उसे सिर्फ़ 99 सीटें ही मिल पाई थीं. 

आदिवासी गुजरात में महत्वपूर्ण क्यों हैं

शनिवार को गुजरात के मुख्यमंत्री ने पार-तापी नदी जोड़ परियोजना को ख़ारिज कर दिया. इस योजना को रद्द करने की घोषणा मुख्यमंत्री को मजबूरी में करनी पड़ी है. क्योंकि आदिवासी इलाक़ों में इस परियोजना का ज़बरदस्त विरोध हुआ था. इस परियोजना के ख़िलाफ़ लाखों आदिवासी सड़कों पर उतर आए थे. 

एक बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को अपने ही गृह राज्य में ख़ारिज करने की अनुमति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने क्यों दी होगी? क्योंकि वो जानते हैं कि गुजरात में आदिवासी समर्थन के बिना बीजेपी की नैया पार लगना मुश्किल होगी.

लोकसभा में राज्यवार आरक्षित सीटें

गुजरात विधानसभा में कुल 182 सीटें हैं. इनमें से 27 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. आदिवासी आबादी कई ऐसी सीटों पर भी प्रभाव डालती है जो आरक्षित नहीं हैं. 2017 के चुनाव में बीजेपी को गुजरात के आदिवासी इलाक़ों में निराश होना पड़ा था.

बीजेपी 27 में से सिर्फ़ 9 सीटें ही जीत पाई थी. यानि पार्टी का प्रदर्शन आदिवासी इलाक़ों में लगातार गिर रहा था. 2007 में बीजेपी को इन इलाक़ों में 13 सीट और 2012 में 11 सीटें मिली थीं. गुजरात में बीजेपी 1998 से लगातार सत्ता में है.

ज़ाहिर है लंबे समय तक जब कोई पार्टी सत्ता में होती है तो कई बार लोगों में बदलाव की बेचैनी आ जाती है. सरकार के ख़िलाफ़ कई मसले भी खड़े हो जाते हैं. इसलिए बीजेपी के लिए आदिवासी इलाक़ों में अपने गिरते प्रदर्शन को रोकना बेहद ज़रूरी होगा.

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी महत्वपूर्ण है आदिवासी वोट

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अगले साल चुनाव है. छत्तीसगढ़ में 2018 के चुनाव में बीजेपी दोनों ही राज्यों में हार का सामना करना पड़ा था. मध्य प्रदेश में जोड़-तोड़ से पार्टी सत्ता में सत्ता में लौट आई. लेकिन पार्टी को अगर अगले साल के चुनाव में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में वापसी करनी है तो उसे आदिवासी मतदाता का समर्थन चाहिए. 

इस नज़रिए से बीजेपी ने मध्य प्रदेश में ख़ासतौर से आदिवासियों के लिए कई घोषणाएँ की हैं. इसके अलावा मध्यप्रदेश सरकार ने आदिवासी आबादी से जुड़े की बड़े बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया है. इन कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह शामिल हुए हैं. 

लोकसभा चुनाव के नज़रिये से भी संदेश हो सकता है

2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने सत्ता में शानदार वापसी की है. लेकिन 2024 के चुनाव तक उनकी सरकार के 10 साल पूरे हो चुके होंगे. इसके अलावा फ़िलहाल जो विश्व परिदृश्य है और जिस तरह की आर्थिक हालात बने हुए हैं, महंगाई और बेरोज़गारी बड़े मुद्दे बन सकते हैं. 

राज्यों की विधानसभाओं में आरक्षित सीटों की संख्या

इसलिए 2024 के चुनाव में बीजेपी के लिए चुनौती बड़ी हो सकती है. इस लिहाज़ से भी बीजेपी आदिवासी मतदाताओं को राष्ट्रपति चुनाव के माध्यम से लुभाने की कोशिश कर सकती है. लोकसभा में 47 सीटें आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित हैं. 

देश का पहला आदिवासी राष्ट्रपति कौन हो सकता है

बीजेपी में कई ऐसे चेहरे हैं जो इस पद के दावेदार बताए जा रहे हैं. उनमें से सबसे पहला नाम तो आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा का ही लिया जा रहा है. उनके अलावा ओडिशा के बड़े आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जुएल उराँव का नाम भी बताया जा रहा है. इन दोनों नेताओं के अलावा द्रोपदी मुर्मु भी इस पद की उम्मीदवार हो सकती हैं.

राष्ट्रपति चुनाव में आमतौर पर प्रतीकात्मक लेकिन महत्वपूर्ण

भारत की शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति सरकार के मुखिया हैं. लेकिन यह पद प्रतीकात्मक ज़्यादा है. उसी तरह से राष्ट्रपति पद के चुनाव पर उम्मीदवार देते हुए भी राजनीतिक दल भी प्रतीकात्मक रूख ही रखते हैं. मसलन अलग अलग समय पर देश के अलग अलग समुदायों के लोगों को इस पद का उम्मीदवार अलग अलग लक्ष्य से बनाया जाता रहा है. 

मसलन दलित, अल्पसंख्यक या फिर महिला उम्मीदवार दे कर अक्सर राजनीतिक दल यह संदेश देने की कोशिश करते रहे हैं कि वो उस वर्ग विशेष की चिंता करते हैं. राजनीतिक दलों की मंशा बेशक अपने राजनीतिक हितों से भी संचालित होती है. 

लेकिन देश के वंचित तबकों में आत्मविश्वास जगाने में या फिर राष्ट्रीय एकता में छोटा ही सही इस तरह के कदम योगदान ज़रूर करते हैं. अभी तक किसी राजनीतिक दल ने एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है.

अगर बीजेपी ऐसा करती है तो निश्चित ही वह यह दावा करेगी कि मोदी सरकार आउट ऑफ़ बॉक्स सोचती है और कुछ अलग करने का माद्दा रखती है. जिस ग़लत ठहराना विपक्ष के लिए आसान नहीं होगा.

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