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आदिवासी अस्मिता के साथ अधिकारों की रखवाली भी ज़रूरी है

आज विश्व आदिवासी दिवस (International Day of the World’s Indigenous Peoples) को देश के कई आदिवासी बहुल राज्यों में ज़ोर-शोर से मनाया गया है. ख़ासतौर से गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में विश्व आदिवासी दिवस मनाने के मामले में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भी दिखाई दी. 

इस राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को समझना मुश्किल नहीं है. क्योंकि इन तीनों ही राज्यों में चुनावों की तैयारी चल रही है. गुजरात के विधान सभा चुनाव में तो कुछ ही महीने बाक़ी हैं. एक ऐसी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जिसके केन्द्र में आदिवासी हैं, एक बड़ा संदेश है. 

इस मुक़ाबले से यह समझ आता है कि आदिवासी मतदाता को अब इन राज्यों में सत्ता के खेल को बिगाड़ने या बनाने की ताक़त रखने वाले समूह के तौर पर देखा जा रहा है. आदिवासी समुदायों में जितनी राजनीतिक चेतना और संगठन बढ़ता जाएगा, एक समूह के तौर पर वह राजनीतिक दलों से उतना ही मोल-भाव ज़्यादा कर पाएगा. 

मोल-भाव शब्द सुनने में बेशक बुरा लगता है लेकिन लोकतंत्र में जो समूह दबाव बनाने में कामयाब रहता है उसके हित में सरकारें ज़्यादा फ़ैसले करती है. ये समूह पूँजीपतियों, मज़दूरों, ग़रीबों या फिर जातियों किसी के भी हो सकते हैं. 

आदिवासी समुदाय को अब देश की राजनीति में गंभीरता से लिया जाने लगा है. इसका एक और बड़ा उदाहरण राष्ट्रपति पद पर द्रोपदी मूर्मु के चुनाव में देखा जा सकता है. यह बात सही है कि यह कदम प्रतीकात्मक ज़्यादा है, लेकिन लोकतंत्र में प्रतीकात्मक कदम के भी अपने मायने और प्रभाव होते हैं. 

आदिवासी समुदाय भी अपनी पहचान और अधिकारों को लेकर सजग हो रहा है. मसलन झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम के कई आदिवासी समुदाय अपनी अलग धार्मिक पहचान माँग रहा है. झारखंड और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने तो सरना धर्म कोड के पक्ष में प्रस्ताव पास कर केंद्र को भेज भी दिए हैं. 

इसके साथ ही अगली जनगणना में आदिवासी अपनी पहचान दर्ज किए जाने की माँग कर रहे हैं. साल 1951 के बाद से जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग से कॉलम नहीं रखा जाता है. 

आदिवासी अस्मिता के साथ अधिकार ज़रूरी हैं

भारत में 705 आदिवासी समुदायों को जनजाति के तौर पर पहचाना गया है. इन समुदायों में से 75 समुदाय ऐसे हैं जिन्हें विशेष रूप से पिछड़ा माना गया है. इन जनजातियों को पहले आदिम जनजाति कहा जाता था आजकल सरकार इन्हें पीवीटीजी के नाम से जाना जाता है. 

भारत के अलग अलग राज्यों में बसे आदिवासी समुदायों की संस्कृति, भाषा और परंपराएँ विविधता से भरी हैं. उसी तरह से उनकी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं में भी विविधता देखी जाती है. आर्थिक नज़रिए से भी अलग अलग आदिवासी समुदायों की स्थिति भिन्न मिलती है. 

भारत में कई आदिवासी समुदायों की भाषा मिट जाने के ख़तरे में हैं. कई आदिवासी समुदाय तो ऐसे हैं जो ख़ुद ही लुप्त होने के ख़तरे में जी रहे हैं. जब हम ऐसे समुदायों का ज़िक्र करते हैं तो अक्सर अंडमान के जारवा, ओंग, ग्रेट अंडमानी या फिर सेंटिनिली आदिवसी समुदायों का ख़्याल आता है. 

लेकिन इन आदिम जनजातियों के अलावा भी कई ऐसे समुदाय हैं जिनकी आबादी में नकारात्मक वृद्धि दर नोट की जा रही है. इस लिहाज़ से देखा जाए तो भारत के आदिवासी समुदायों की अपनी अपनी ख़ासियत हैं और अपनी अपनी चुनौतियाँ हैं.

आदिवासी पहचान यानि भाषा, वेशभूषा, परंपरा, संस्कृति और धार्मिक सामाजिक व्यवस्था को बचाना बेहद ज़रूरी है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एंथ्रोपोलोजिस्ट ऑस्टिन जस्टिन ने मुझे एक बार बताया था,” क्योंकि किसी भी समुदाय में जब तक अपनी परंपरा, संस्कृति और समाज को लेकर उत्साह नहीं होता है, वैसे समुदाय को बचाना बेहद मुश्किल होता है.”

लेकिन आदिवासी अस्मिता की बहस के बीच आदिवासियों के अधिकारों की रखवाली भी करनी होगी.

संवैधानिक और क़ानूनी अधिकारों की रक्षा ज़रूरी 

भारत के संविधान की अनुसूची 5 में आदिवासी इलाक़ों के बारे में विशेष प्रावधान किए गए हैं. ये प्रावधान आदिवासी पहचान और उसके संसाधनों पर अधिकार की रक्षा के लिए बेहद ज़रूरी है. 

भारत के संविधान में यह प्रावधान भी किया गया है कि जिन राज्यों में अनुसूची 5 के क्षेत्र हैं वहाँ के राज्यपाल हर साल राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट भेजेंगे. इस रिपोर्ट में गवर्नर को बताना है उस राज्य में आदिवासियों के कल्याण और विकास के लिए कितना काम हुआ है. 

लेकिन अफ़सोस कि शायद ही किसी राज्य में इस प्रावधान का पालन हो रहा है. अगर कुछ राज्यों के राज्यपाल इस प्रावधान का पालन करते भी हैं तो वह औपचारिकता मात्र होती है. 

आदिवासियों से जुड़े संवैधानिक प्रावधान और क़ानूनी अधिकारों के लागू किये जाने की निगरानी नहीं होती है. इसलिए इन क़ानूनों का उल्लंघन किया जाता है. भारत के तीन क़ानून – पेसा 1996, वन अधिकार क़ानून 2006 और भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 – ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने वाला क़ानून माना जाता है. 

ये ऐसे क़ानून हैं जो जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासी के हक़ को स्वीकार करते हैं. इन क़ानूनों ने आदिवासी को कम के कम अपने हक़ लिए लड़ने का एक क़ानून आधार तो दिया है. 

इन क़ानूनों में से वन अधिकार क़ानून और पेसा दोनों ही ख़ासतौर से आदिवासियों के लिए हैं. यह भी सच है कि इन दोनों ही क़ानूनों को लागू करने में राज्य सरकारों ने सबसे ज़्यादा कोताही बरती है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पेसा क़ानून को लागू करने में सरकार को 25 साल लग गए हैं. अभी भी इस क़ानून से जुड़े नियमों पर बहस ही चल रही है. केन्द्र सरकार या फिर राज्य सरकार दोनों पर ही ज़्यादा से ज़्यादा रेवेन्यू कमाने का दबाव रहता है.

आमतौर पर देखा गया है कि सरकारें रेवेन्यू बढ़ाने के वैकल्पिक तरीक़े अपनाने की बजाए प्राकृतिक संसाधनों को पूँजीपतियों को सौंपने का रास्ता अपनाती हैं. सरकार के इस कदम का शिकार बनता है आदिवासी जिसकी ज़मीन छीन ली जाती है. 

मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ या फिर ओडिशा शायद ही कोई राज्य है जहां आदिवासी विस्थापन के डर में नहीं जी रहा है.

इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि जब विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासी अपनी सामाजिक और धार्मिक पहचान पर गर्व करे, अपने हक़ों की रक्षा के प्रति भी सचेत बने. 

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