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संविधान और आरक्षण की रक्षा दलितों से ज़्यादा आदिवासी के लिए मायने रखता है

लोक सभा चुनाव 2024 के चुनाव परिणामों के विश्लेषण में इस बात पर लगभग एकमत नज़र आ रहा है कि इंडिया गठबंधन की तरफ से दिए गए संविधान और आरक्षण की रक्षा के नारे ने काम किया है.

ख़ासतौर से उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के संदर्भ में यह कहा जा रहा है कि बीजेपी के 400 पार के नारे ने यह आशंका पैदा की थी कि बीजेपी आरक्षण से छेड़छाड़ कर सकती है.

इस आशंका के बाद दलित जातियां इंडिया गठबंधन की तरफ झुक गईं. बीजेपी को 2024 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कुल 131 सीटों में से 55 सीटें मिली हैं. जबकि साल 2019 के आम चुनाव में उसे 77 आरक्षित सीटें हासिल हुई थीं. 

लोक सभा चुनाव 2024 में बीजेपी को अनुसूचित जाति (SC) की वो 19 सीटें हार गई जो उसने 2019 के चुनाव में जीती थीं. ये 19 सीटें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, बिहार, पंजाब और पश्चिम बंगाल की हैं. 

वहीं अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित सीटों में से ऐसी 10 सीटें लोक सभा चुनाव 2024 में बीजेपी हार गई जो 2019 में उसने जीती थीं. ये सीटें महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में फैली हैं.  

लोक सभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में से 12 एससी रिजर्व और 7 एसीटी रिजर्व सीटों पर कांग्रेस पार्टी ने बीजेपी को हराया है. जबकि यूपी में 5 एससी रिजर्व सीटों पर बीजेपी ने समाजवादी पार्टी  को हराया है. 

यह भी माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में रिजर्व सीटों के अलावा अन्य सीटों पर भी दलित वोटर ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन को वोट दिया है.

इसलिए उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन को उम्मीद से अधिक और बीजेपी को उम्मीद से बहुत कम सीटें हासिल हुई हैं. यहां पर एनडीए को कुल 36 सीटें हासिल हुई हैं जबकि इंडिया गठंबधन को 43 सीटें मिली हैं.

भारत के चुनाव परिणामों का विश्लेषण बेहद मुश्किल काम है. लेकिन राजनीतिक टिप्पणीकार (Political commentator), समाजशास्त्री( Sociologist)  और पत्रकार (Journalist) सभी सीमाओं के बावजूद चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते ही हैं. इस सिलसिले में हाल ही में टाइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) अख़बार में जाने-माने समाजशास्त्री (Sociologist) दीपाकंर गुप्ता ने एक लेख लिखा है.

 इस लेख (They are scheduled, not same) में दीपाकंर गुप्ता यह मानते हैं कि इस लोकसभा चुनाव में आरक्षण पर ख़तरा मतदाताओं के लिए एक बड़ा मुद्दा था. लेकिन आदिवासी मतदाताओं के लिए आरक्षण का मुद्दा उतना बड़ा नहीं था जितना दलित मतदाताओं के लिए था.

इंडिया गठबंधन ने लोक सभा चुनाव 2024 चुनाव में यह मुद्दा बनाया था कि बीजेपी 400 से ज़्यादा सीटें इसलिए मांग रही हैं क्योंकि उसका मकसद संविधान को बदल कर आरक्षण समाप्त करना है. 

दीपाकंर गुप्ता कहते हैं कि यह समझना थोड़ा सा मुश्किल है कि आरक्षण ख़त्म होने के ख़तरे के मुद्दे पर आदिवासियों ने वैसे प्रतिक्रिया नहीं दी जैसी दलितों की थी. जबकि आरक्षण ख़त्म होने की सूरत में आदिवासियों को भी बराबर ही नुकसान होता. 

उनका कहना है कि एनडीए ने उन इलाकों में बहतरीन प्रदर्शन किया है जहां पर आदिवासी जनसंख्या राष्ट्रीय औसत से अच्छा है. देश के 6 राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, ओडिशा, झारखंड और त्रिपुरा में बीजेपी में ज़बरदस्त जीत दर्ज की है. उनका कहना है कि झारखंड में भी बीजेपी का क्लीन स्वीप होता अगर हेमंत सोरेन के जेल जाने से इंडिया गठबंधन के लिए आदिवासी इलाकों में साहनभूति पैदा नहीं हुई होती.

उनकी नज़र में जो चुनाव परिणाम सामने है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आदिवासियों के बीच आरक्षण का मुद्दा वैसा नहीं था जैसा दलितों के लिए था. लेकिन आदिवासियों के बीच आरक्षण का मुद्दा आख़िर उतना प्रभावी क्यों नहीं रहा? इसका जवाब देते हुए दीपाकंर गुप्ता कहते हैं कि आदिवासियों और दलितों का सामाजिक इतिहास अलग अलग है. इसलिए उनके लिए आरक्षण का मतलब भी अलग अलग है.

इस बारे में वे तर्क देते हुए वे आगे कहते हैं आदिवासियों के काम (occupations) के साथ वैसी धारणाएं नहीं जुड़ी हैं जैसी दलितों के काम के साथ हैं.

कुल मिलाकर वे कहते हैं कि आदिवासियों को दलितों के तरह कभी अछूत नहीं माना गया है. उनके अनुसार दलित को हिंदू समाज में शिक्षा और नौकरियों में तरक्की के ज़रिए ही सम्मान मिला है. जबकि आदिवासियों के साथ ऐसा नहीं है. बेशक आदिवासी ग़रीब हैं लेकिन उनका जातीय उत्पीड़न नहीं हुआ है. 

दीपाकंर गुप्ता ने दलितों और आदिवासियों के सामाजिक इतिहास के बारे में जो तथ्य पेश किये हैं उन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है. लेकिन लोक सभा चुनाव 2024 में आरक्षण के सवाल पर आदिवासी और दलित मतदाताओं की प्रतिक्रिया (response) में फ़र्क पर उनका जो निष्कर्ष है उस पर चर्चा की ज़रूरत है.

ऐसा लगता है कि लोकसभा 2024 में आदिवासी मतदाता और आरक्षण की रक्षा के सवाल का दीपाकंर गुप्ता ने ज़रूरत से ज़्यादा सरीलकरण कर दिया है. दलितों और आदिवासियों के बीच सामाजिक इतिहास के आधार पर यह कहना कि संविधान और आरक्षण का सवाल आदिवासी मतदाता कम महत्व रखता है शायद सही नहीं है.

आदिवासी के लिए संविधान की रक्षा का सवाल सिर्फ आरक्षण से जुड़ा नहीं है. बल्कि उसके लिए संविधान की रक्षा आरक्षण के अलावा उसकी ज़मीन और पहचान के अधिकार की सुरक्षा से भी जुड़ा है.

इसलिए संविधान और आरक्षण के आस-पास जो विमर्श (narrative) विपक्ष ने तैयार किया उसके असर और अलग अलग राज्यों में सामाजिक समूहों में उसके प्रभाव पर और बारीक विश्लेषण की ज़रूत है.

मसलन झारखंड में हेमंत सोरेन की ग़िरफ़्तारी से आदिवासियों में उनके प्रति एक सहानभूति थी यह बात सही है. लेकिन सिर्फ इस सहानभूति के सहारे ही इंडिया गठबंधन को झारखंड में अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीटों पर कामयाबी मिली है यह निष्कर्ष शायद ठीक नहीं होगा.

झारखंड में सरना धर्म, भूमि क़ानूनों से छेड़छाड़ (CNT-SPT Acts), 1932 खातियानी (Domicile Policy) जैसे मुद्दे लगातार चर्चा में रहे हैं. इन सभी मुद्दों पर झारखंड में सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन आदिवासियों के पाले में खड़े हैं जबकि बीजेपी को शक की निगाह से देखा गया है. 

इसी तरह से उन 6 राज्यों की बात जाए जहां आदिवासी जनसंख्या राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है तो वहां पर आरक्षण या संविधान की रक्षा के मुद्दे का काम ना करने के भी कुछ ठोस कारण हैं. मसलन छत्तीसगढ़ की अगर बात करें तो वहां के आदिवासी इलाकों में आरएसएस के संगठन जनजाति सुरक्षा मंच ने पहले से ही आरक्षण की रक्षा को एक बड़ा मुद्दा बनाने में कामयाबी हासिल की है.

लेकिन आरक्षण की रक्षा की उसकी यह बहस आदिवासियों को बांटने के लिए तैयार की गई थी. यहां पर जनजाति सुरक्षा मंच ने आदिवासियों को यह समझाया है कि धर्मांतरित आदिवासियों ने उनके आरक्षण पर कब्ज़ा कर लिया है. दिसबंर 2022 में बस्तर के नारायणपुर में ईसाई आदिवासी गांवों पर आदिवासियों ने हमला कर दिया.

इसके बाद से अभी तक वहां पर स्थिति सामान्य नहीं हो पाई है. इसका सीधा सीधा फ़ायदा बीजेपी को विधान सभा चुनाव और लोकसभा चुनाव 2024 में हुआ है.

इसके अलावा छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य को अदानी के हवाले करने का मुद्दा भी सरगुजा इलाके में आदिवासियों को कांग्रेस पार्टी के खिलाफ़ करने में कामयाब रहा है.

इसी तरह से अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो इस राज्य में साल 2018 में आदिवासियों ने बीजेपी को ज़बरदस्त झटका दिया था. इस चुनाव में पार्टी अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 सीटों में से सिर्फ़ 15 सीटें ही जीत पाई थी.

इसके बाद जब 2020 में बीजेपी ने राज्य में कांग्रेस की सरकार गिरा कर सरकार बनाई तो उसके बाद पार्टी ने लगातार आदिवासी जनसंख्या तक पहुंचने की कोशिश की थी.

इस कोशिश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह फ्रंट पर रहे थे. इसके अलावा छत्तीसगढ़ के बाद मध्य प्रदेश, असम और ओडिशा वे राज्य भी थे जहां पर जनजाति सुरक्षा मंच ने लगातार डीलिस्टिंग सभाएं की थीं. जिनमें धर्मांतिरत आदिवासियों का आरक्षण ख़त्म करने की मांग उठाई गई.

यहां यह भी नोट करना ज़रूरी है कि झारखंड में भी डीलिस्टिंग रैलियां ज़रूर हुई थीं. लेकिन यहां पर इस मुद्दे को पैर जमाने का मौका नहीं मिला क्योंकि राज्य में पहले से ही आदिवासियों के भूमि अधिकार और सरना धर्म जैसे ठोस मुद्दों पर बहस चल रही थी. 

इसके अलावा लोक सभा चुनाव के दौरान संविधान और आरक्षण की रक्षा से जुड़ा जो मुद्दा विपक्ष ने तैयार किया उसका अलग अलग राज्य में अलग अलग असर हुआ है. इस मुद्दे का असर इस बात पर भी निर्भर था कि किस राज्य में कितने प्रभावी गठबंधन तैयार हुए. मसलन यह सवाल भी विश्लेषको को परेशान कर रहा है कि जब संविधान और आरक्षण के मुद्दे ने विपक्ष के लिए यूपी में ज़बरदस्त काम किया तो बिहार में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

बिहार में संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी को नुकसान नहीं होने की एक बड़ी वजह शायद उसका नीतिश कुमार, जीतनराम मांझी और चिराग पासवान के साथ गठबंधन था. 

इसलिए लोक सभा चुनाव 2024 के चुनाव परिणामों के विश्लेषण में इस नतीजे पर पहुंचना कि संविधान और आरक्षण की रक्षा का मुद्दा सिर्फ़ दलितों के लिए ज़रूरी था शायद सही नहीं है.

इस चुनाव में बेशक संविधान की रक्षा और आरक्षण दोनों ही बड़े मुद्दे थे. इन दोनों ही मुद्दे आदिवासियों के लिए शायद दलित समुदायों से भी ज़्यादा मायने रखते थे. लेकिन इस मुद्दे पर अगर कई राज्यों में आदिवासी एकजुट नहीं हो पाए तो उसके कई तात्कालिक कारण थे.

झारखंड ही नहीं महाराष्ट्र, राजस्थान या फिर कर्नाटक जैसे राज्य जहां विपक्ष संगठित था वहां आदिवासियों ने भी इस मुद्दे पर वोट किया है.

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