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वारली समुदाय की लोक कला को बचाने की जद्दोजहद की कहानी

वारली पेंटिंग एक आदिवासी कला है जो उनकी धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक मान्यताओं से जुड़ी है. वारली आदिवासी समुदाय के विवाह में आज भी चौक यानि परंपरागत तरीक़े से दीवार पर देवी देवताओं की पेंटिंग बनाई जाती है.

ये बात अलग है कि अब इस काम के लिए कलाकार बुलाए जाते हैं. पहले यह काम घर की औरतें ही कर लेती थीं. समय के साथ इस कला को पहचान मिली और दुनिया भर में वारली पेंटिंग का नाम हो गया. अब यह पेंटिंग सिर्फ़ महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र या फिर वारली आदिवासियों की पहचान नहीं है. बल्कि अब भारत के सभी आदिवासी समुदायों की पहचान से वारली पेंटिंग जुड़ चुकी है.

आज वारली पेंटिंग लोकप्रिय हो रही है और कैनवास से लेकर साड़ियों तक पर यह पेंटिंग की जा रही है. लेकिन कैनवास और आधुनिक साड़ियों, टी शर्ट या फिर दूसरे कपड़ों पर की जाने वाली पेंटिंग और शादी ब्याह में दीवारों पर होने वाली पेंटिंग में कई बारीक फ़र्क़ होते हैं.

आमतौर पर साड़ी या कैनवास पर जो पेंटिंग होती है और शादी ब्याह में बनाए जाने वाले चौक देखने में एक जैसे ही होते हैं. क्योंकि पैटर्न में कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता है. लेकिन शादी में बनाए जानी वाली पेंटिंग को कभी भी कपड़ों या कैनवास पर नहीं बनाया जाता है.

क्योंकि शादी में जो पेंटिंग दीवार पर बनती है वो इन आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी हैं. जबकि कैनवास और साड़ियों या दूसरे कपड़ों पर जो पेंटिंग बनाई जाती हैं वो उनकी आम ज़िंदगी और परिवेश को दिखाती है. 

महाराष्ट्र के पालघर ज़िले के कई आदिवासी गाँवों में हमें जाने का मौक़ा मिला. यहाँ के आदिवासी परिवारों से मुलाक़ात के दौरान हमने उनकी धार्मिक सामाजिक मान्यताओं को समझने का प्रयास किया.

इस सिलसिले में हमें यह लगा कि यहाँ के वारली आदिवासी समाज में कई बदलाव आ रहे हैं. मसलन अब वारली पेंटिंग करने वाले या फिर तारपा बजाने वाले लोग कम हो रहे हैं. लेकिन साथ ही हमने यह महसूस किया कि इन दोनों ही कलाओं पर यह समुदाय काफ़ी गर्व करता है.

वारली पेंटिंग और तारपा दोनों को ही बचाने की कोशिश भी की जा रही है. आप इस ग्राउंड रिपोर्ट में देख सकते हैं कि कैसे वारली आदिवासी लोक कलाओं को बचाने की कोशिश हो रही है.

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