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‘तिलाबोनी पहाड़’ हमारी धार्मिक आस्था और जीविका दोनों का केंद्र है – आदिवासी

“ यह पहाड़ हमारे लिए एक पवित्र स्थान है जहां हमारे देवता निवास करते हैं. इस पहाड़ को हम अपने मरांग बुरू यानि सर्वोच्च देवता का थान मानते हैं. हम इस पहाड़ को पूजते हैं. अब अचानक ये लोग इस पहाड़ को तबाह करने के लिए आ गए हैं. “ बिश्वनाथ महतो कहते हैं.

महतो आगे बताते हैं, “जब मार्च के महीने में वो मशीनों और के साथ आए तो हमने उन्हें रोक दिया. हम सभी ग्रामीण पहाड़ी के चारों तरफ़ जमा हुए और हमने विरोध दर्ज कराया था.”

बिश्वनाथ महतो तिलाबोनी पहाड़ बचाओ समिति के सचिव हैं. तिलाबोनी पश्चिम बंगाल के पुरूलिया ज़िले के हुड़ा ब्लॉक का एक ख़ूबसूरत पहाड़ है. आमतौर पर यह पहाड़ इस इलाक़े में एक आकर्षक पर्यटक स्थल भी माना जाता है. 

यहाँ पर पर्वतारोहण कैंप भी लगाए जाते हैं. इस इलाक़े में यह पहाड़ कई तरह की गतिविधियों का केन्द्र रहता है.

लेकिन पर्यटन और पर्वतारोहण से बढ़ कर इस पहाड़ की भूमिका आदिवासियों की धार्मिक आस्था और जीविका के लिए अहम है. लेकिन अब यहाँ पर पश्चिम बंगाल सरकार ग्रेनाइट माइनिंग करवाना चाहती है.

तिलाबोनी पहाड़ आदिवासी जीविका और पर्यावरण दोनों ही नज़र से अहम है

सरकार के इस फ़ैसले से आदिवासी और पर्यावरण की चिंता करने वाले दोनों ही परेशान हैं. इस पहाड़ में खनन का विरोध करने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता तपन मिश्रा कहते हैं, “यहाँ पर खनन का फ़ैसला पर्यावरण के लिए भारी तबाही साबित होगा. पुरुलिया ज़िला में वैसे ही मौसम की मार पड़ती है. यहाँ पर तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है. क्योंकि यहाँ पर ब्रिटिश ज़माने से ही वनों की कटाई होती रही है.”

वो आगे कहते हैं, “ तिलोबनी पहाड़ इस इलाक़े का जल स्त्रोत भी है. बारिश के समय में जब पानी पहाड़ से बहता है तो इस इलाक़े के खेतों को पानी मिलता है. इस पहाड़ के झोरा से ही द्वारकेश्वर की एक साहयक नदी भी निकलती है.”

तपन मिश्रा कहते हैं कि पुरुलिया का यही इलाक़ा है जहां पर भूजल का स्तर ठीक है. इसका कारण यह पहाड़ ही है. इसी वजह से गाँव के लोग इसी पहाड़ पर खेती के लिए निर्भर हैं.

MBB से बातचीत में उन्होंने कहा कि यह पहाड़ आदिवासियों के लिए जीविका का बड़ा साधन है. क्योंकि उनके खेतों को पानी देने के अलावा यहाँ के जंगल से कई तरह की औषधि, पत्ते और फल वो जमा करते हैं.

अगर यह पहाड़ बर्बाद होता है तो यहाँ के पर्यावरण में एक असंतुलन पैदा हो जाएगा. इसके साथ ही कम से कम 3 हज़ार परिवारों की ज़िंदगी भी प्रभावित होगी. ये लोग इस पहाड़ के आस-पास के 4 गाँवों में रहते हैं. 

इन गाँवों के नाम तिलाबोनी, पोलाशीबना, लेदाबना और माधवपुर हैं. यहाँ के गाँवों में ज़्यादातर संताल आदिवासी रहते हैं.

यहाँ के आदिवासी इस परियोजना का डट कर विरोध कर रहे हैं. इस सिलसिले में MBB ने बिश्वनाथ महतो से पूछा कि अगर सरकार आदिवासियों को अच्छा मुआवज़ा दे तो क्या वो विरोध बंद करेंगे.

इसके जवाब में वो कहते हैं, “हम इस मामले में बिलकुल स्पष्ट हैं, किसी भी क़ीमत पर हम यहाँ पर खनन नहीं होने देंगे. सरकार हमें पैसे या रोज़गार का लालच दे रही है, लेकिन हम इस लालच में नहीं फँसेंगे.”

यह पहाड़ संताल आदिवासियों के सर्वोच्च देवता का थान है

MBB से बात करते हुए उन्होंने कहा कि सरकार को यह समझना होगा कि यह हमारे लिए सिर्फ़ जीविका का केन्द्र नहीं है बल्कि हमारी धार्मिक आस्था का केंद्र भी तो है.

क्या हम अपने देवता के थान को नष्ट होने देंगे. उन्होंने कहा कि जब कंपनी के लोग पहले निशानदेही के लिए आए थे तो उस समय हम कुछ समझ नहीं पाए. लेकिन मार्च महीने में तो वो बड़ी बड़ी मशीन ले कर पहुँच गए थे.

जो लोग आए थे वो टोड़ी मिनरल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के लोग थे. 

पर्यावरण के लिए काम कर रहे तपन कुमार मिश्रा कहते हैं, “ अगर यहाँ पर ग्रेनाइट की माइनिंग होगी तो पूरे वातावरण पर असर होगा. यहाँ पर प्रदूषण बढे़गा क्योंकि काफ़ी धूल हवा में फैलेगी. इससे गाँव के लोगों के स्वास्थ्य पर ख़राब असर होगा.”

इस परियोजना के विरोध में एक और संगठन ने सरकार से इस रद्द करने की माँग की है. नदी बचाओ-जीवन बचाओ आंदोलन के नेता तापस दास ने इस सिलसिले में मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है.

MBB से बात करते हुए उनका कहना था, “हमने यहाँ पर ग्रेनाइट की माइनिंग की ख़बर पहली बार साल 2019 में सुनी थी. हालाँकि उस समय इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई थी. क्योंकि सरकार इस मुद्दे पर चुप्पी साधे थी.”

वो आगे कहते हैं, “लेकिन जैसे ही लॉकडाउन ख़त्म हुआ, यहाँ पर कंपनी के लोग निशान लगाने पहुँच गए. उस समय गाँव के लोग कुछ समझ नहीं पाए. हमारे पत्र का मुख्यमंत्री की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया है.”

आदिवासी तिलाबोनी परियोजना का विरोध करते हुए

वो बताते हैं कि जब सरकार से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला तो उन्होंने इस सिलसिले में आरटीआई का सहारा लिया. RTI के जवाब में सरकार ने पहली बार यह बात मानी की यहाँ पर ग्रेनाइट की माइनिंग का ठेका टोड़ी मिनरल प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी को दिया भी जा चुका है. 

आमतौर पर इस तरह की परियोजना के लिए पर्यावरण विभाग से अनुमति की ज़रूरत होती है. लेकिन सरकार इस मामले में सरकार पैंतरेबाज़ी कर रही है. क्योंकि पर्यावरण क्लीयरेंस की ज़रूरत तभी पड़ती जब परियोजना कम से कम 100 एकड़ में हो. 

इसलिए अब सरकार एक नहीं बल्कि अलग अलग परियोजनाओं के नाम पर ज़मीन दे रही है. यह एक षड्यंत्र है.

इस परियोजना का विरोध कर रहे संगठन चाहते है कि सरकार इस परियोजना को पूरी तरह से रद्द कर दे. हालाँकि इस इलाक़े में सरकार चाहे तो पर्यटन को बढ़ावा दे सकती है.

इससे पर्यावरण और आदिवासी दोनों को ही फ़ायदा होगा. यहाँ पर पर्वतारोहण का संस्थान भी तो खोला जा सकता है.

यहाँ के आदिवासी और संगठन कहते हैं कि यह बड़े ही अफ़सोस की बात है कि जो ममता बनर्जी विस्थापन और ज़मीन अधिग्रहण के नाम पर सत्ता में आईं थीं, वो आज आदिवासियों को उजाड़ना चाहती हैं. 

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