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झारखंड के बिरहोर: भुखमरी और आबादी में गिरावट की पड़ताल

बिरहोर आदिवासियों से मिलने हम सुबह 6 बजे के क़रीब हज़ारीबाग से ढेंगुरा गांव की तरफ निकले. शहर से 20-25 किलोमीटर चलकर ढेंगुरा गांव पार करने के बाद हम बिरहोर टांडा पहुंच गए.

बिरहोर टांडा में हमारी मुलाक़ात लछमन बिरहोर से हुई. अब सुबह के क़रीब सात बज चुके थे. लछमन बिरहोर जंगल निकलने की तैयारी कर रहे थे. मैंने उनसे कुछ देर बात की तो उन्होंने हमारी बातचीत मे ज़्यादा रुचि नहीं दिखाई.

उन्होंने कहा कि उन्हें काम पर जाना है. मैंने पूछा तो बताया कि वो शिकार की तलाश में जंगल निकलने की तैयारी कर रहे हैं.

मैंने लछमन बिरहोर से पूछा कि क्या हम भी उनके साथ जंगल चल सकते हैं. पहले तो उन्होंने थोड़ी देर मेरी तरफ़ देखा, और फिर बेरुखी से कहा ‘चलो’. जाल, कुदाल और कुल्हाड़ी लेकर लछमन बिरहोर का पूरा परिवार जंगल की तरफ़ निकल पड़ा.

लछमन बिरोहर का परिवार

तीन-चार किलोमीटर पैदल चलने के बाद ही जंगल शुरू हो जाता है. जंगल में झाड़ों के बीच लछमन बिरहोर और उनके परिवार के लोग पहले जाल लगाते हैं, और फिर खरगोश, सुअर या किसी और जानवर को घेर कर जाल की तरफ़ लाने के लिये आस-पास फैल जाते हैं.  

लछमन बिरहोर के परिवार के लोग पेड़ों की टहनी तोड़ लेते हैं और अलग-अलग दिशाओं से उन टहनियों को झाड़ियों में मारते हुए शोर मचाने लगते हैं. शोर मचाते हुए वो जाल की तरफ़ बढ़ते हैं. एक जगह बात नहीं बनती है तो वो दूसरी जगह जाल लगाते हैं. लेकिन क़रीब 2-3 घंटे की मशक्कत के बाद भी कोई जानवर उनके हाथ नहीं लगतातो ये लोग कोशिश छोड़ देते हैं.

इस बीच लछमन बिरहोर की पत्नी और मां कुछ पेड़ों से पत्ते तोड़ने लगती हैं. इनसे बातचीत होती है तो वो बताती हैं कि इन पत्तों का साग बनता है. जब कोई शिकार हाथ नहीं लगा, तो इन पत्तों के साग का ही सहारा इस परिवार को है.

लछमन बिरहोर का पूरा परिवार कुछ दूर जाकर फिर जाल लगाता है, लेकिन फिर नाकाम होता है. कड़ी धूप में क़रीब आधा दिन बिताकर लछमन बिरहोर का परिवार आस छोड़ देता है और घर की तरफ़ लौट पड़ता है.

लछमन से बातचीत में पता चलता है कि जंगलों की कटाई ने उनकी ज़िंदगी बेहद मुश्किल बना दी है. उसपर जंगल काट जिन्होंने खेत बना लिए हैं, वो सूखे पत्तों में आग लगा देते हैं, जिससे जंगल के छोटे-मोटे जानवर भाग जाते हैं या मर जाते हैं.

शिकार की उम्मीद में भटकती बिरहोर महिला

बिरहोर एक आदिम जनजाति है. झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीशा और पश्चिम बंगाल में इनकी कुछ-कुछ आबादी है. लेकिन बिरहोर आदिवासियों की आबादी का बड़ा हिस्सा झारखंड के रांची, हज़ारीबाग़ और सिंहभूमि ज़िलों में है.

1991 में इनकी आबादी क़रीब आठ हज़ार बताई गई. फ़िलहाल ये आबादी दस हज़ार के आसपास है.बिरहोर घुमक्कड़ आदिवासी थे, यानि वो एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने ठिकाने बनाते रहते. ये आदिवासी लकड़ियों और पत्तों से अपने घर बनाते.

लेकिन सरकार ने इन्हें एक जगह बसाने का फैसला किया. इनके लिये कई योजनाएं तैयार की गईं. बिरहोर आदिवासियों को पक्के मकान बना कर दिये गये. इसके साथ ही राशन, शिक्षा और स्वास्थ के इंतज़ाम भी किये गए.

ढेंगुरा टांडा के इन बिरहोर आदिवासियों को भी इसी योजना के तहत बसा दिया गया है. लेकिन जब इन मकानों में झांकेगे तो पायेंगे कि ये घर बिलकुल खाली पड़े हैं. ज़्यादा से ज़्यादा आप इन घरों में एक रस्सी बंधी पाएंगे जिस पर कुछ कपड़े टंगे हैं.

किसी भी घर में एक चारपाई तो छोड़िए एक चटाई या दरी जैसी चीज़ भी आपको नज़र नहीं आएगी.बिरहोर आदिवासियों में साक्षरता दर 15 प्रतिशत के आसपास बताई जाती है. लेकिन जो हालात हमें नज़र आ रहे थे, ये आंकड़ा भी शायद ही सही हो.

लछमन बिरहोर के साथ जंगल में

लछमन बिरहोर के घर के पास वाले मकान में एक महिला सीमेंट के खाली प्लास्टिक बैग उधेड़ रही थी. पूछने पर उसने बताया कि वो ये सीमेंट के खाली बोरे ख़रीद कर लाते हैं, और एक खाली बैग की कीमत 5 रूपए होती है. इन्हें उधेड़ कर वो प्लास्टिक की रस्सी बनाती हैं, और फिर बाज़ार में बेचती हैं.

मैंने लछमन से पूछा कि आप रस्सी नहीं बनाते हैं. इस पर उन्होंने कहा कि उनकी पत्नी रस्सी बनाती है. लेकिन उनकी पत्नी और यह पड़ोसन रस्सी बनाकर बाज़ार में बेचती हैं, और फिर वहीं से शराब खरीद कर पी लेती हैं. घर के लिए पैसा नहीं आता.

वो कहते हैं कि जो बहुनिया की बेल होती है जिनकी छाल से वो रस्सी बनाते हैं अब वो बेल जंगल से नहीं मिलती. इसके अलावा उन रस्सियों की अब बाज़ार में मांग भी नहीं है. अब सब नायलॉन की रस्सी ख़रीदते हैं. पूरा दिन लगे रहने पर सीमेंट के बैग उधेड़कर बनाई रस्सी मुश्किल से 10-20 रूपए की बिकती है.

हमारी बातचीत के बीच ही बस्ती में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आ जाती है. वो लछमन बिरहोर से शिकायत करती है कि उसने बच्चों को दवा पिलाने के लिए क्यों नहीं भेजा.

इस पर लछमन बिरहोर उससे झगड़ पड़ता है. वो उसे कहता है कि हमें बच्चों को दवा नहीं पिलानी है. उस वक़्त वो खैनी रगड़ रहा था, और झगड़ते हुए कुछ ख़ैनी वो अपने मुंह में डालता है, और बची हुई थोड़ी सी ख़ैनी अपने 5-6 साल के बच्चे के मुंह में डाल देता है.

फिर कहता है कि यही हमारे बच्चे की दवा है. वो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को वहां से चले जाने के लिए कहता है और काफ़ी आक्रामक होने लगता है. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बड़बड़ाते हुए चली जाती है.  

दरअसल,रोज़ी रोज़गार की बात करें तो बिरहोर रस्सी बनाते हैं.बहुनिया नाम की बेल या एक पेड़ की छाल जिसे चॉप कहा जाता है, उससे रस्सी बनाते हैं.

जंगल कटने से बिरहोर आदिवासियों को रस्सी बनाने के लिये जंगल से कच्चा माल जुटाना मुश्किल होता चला गया. साथ ही नायलॉन की रस्सी के ज़माने में चॉप और बहुनिया से बनी रस्सी की मांग भी कम होती चली गई.

खुद को ज़िंदा रखने की लड़ाई में बिरहोर भी पलास्टिक की रस्सी बनाने लगे. कच्चे माल का रास्ता भी ढूंढ लिया, जो सस्ता हो यानि सीमेंट के खाली प्लास्टिक बैग. लेकिन मशीन से बनी नायलॉन रस्सी के सामने हाथ से बनी रस्सियों की मांग बाज़ार में ना के बराबर है.

जंगल के बीच अमनबुरू के बिरहोर

हज़ारीबाग़ से निकलकर हम एक और बिरहोर बस्ती की तलाश में निकले. हमारा अगला पड़ाव था अमनबुरू, घने जंगल के बीच एक और बिरहोर टांडा. यंहा पर हालात ढेंगुरा से थोड़े बेहतर नज़र आ रहे थे.

शायद इसकी वजह इनकी बस्ती का घने जंगलों में होना है. यंहा पर कुछ बिरहोर खेती भी करते हैं. लेकिन रस्सी बनाना ही यहां भी इन आदिवासियों की रोज़ी रोटी है.

घने जंगलों में रह रहे बिरहोर थोड़ी बेहतर हालत में हैं.

यहां एक बुज़ुर्ग जो रस्सी बट रहे थे वो रस्सी प्लास्टिक की नहीं बल्कि पटसन की है. मैंने उनसे पूछा की आप यह कच्चा माल यानि पटसन कहां से लाते हैं. उन्होंने बताया कि आस-पास के गांवों में उन्हें महीने में 500-600 रूपए मिल जाते हैं.

वो कहते हैं कि जंगल से उन्हें कई तरह के फल मिल जाते हैं. मसलन आंवला, शिकाकाई, जामुन और इमली जैसी चीज़ें वो जमा कर लेते हैं. इसके अलावा उनके जंगल में महुआ भी ख़ूब है. सो इन सब चीज़ों को अलग-अलग मौसम के हिसाब से वो जमा कर लेते हैं, और साप्ताहिक हाट में बेचकर ज़रूरत की कुछ चीज़ें ख़रीद लाते हैं.

आज भी बिरहोर आदिवासियों की आर्थिक गतिविधियां बेहद सीमित हैं. इनकी कुल आबादी का 70 प्रतिशत से ज़्यादा रस्सी बनाने का ही काम करता है. उस पर आदिवासियों की बनाई रस्सी का बाज़ार गांव देहात है.शहरों में उनकी हाथ से बनाई रस्सी की कोई मांग नहीं है.

सरकार की कोई ऐसी योजना नहीं है, या कम से कम हमें नज़र नहीं आई, जो उनके परंपरागत रोज़गार को बढ़ावा दे सके. खेती करने का कौशल बिरहोर जनजाति में नहीं है, ऊपर से जो खेती करते भी हैं वो बारिश के भरोसे.

अमनबुरू में आदिम जनजाति के बच्चों को पढ़ाने के लिये एक residential स्कूल बनाया गया है. कायदे से आदिम जनजातियों के 88 बच्चे इस स्कूल के हॉस्टल में भर्ती हो सकते हैं. लेकिन ये कोटा शायद ही कभी पूरा होता है.

ड्रॉपआउट रेट यानि स्कूल छोड़ने की दर बहुत अधिक है. इस स्कूल में शायद ही कुछ ऐसा है जो बच्चों को यहां से भागने से रोके. सिर्फ़ छात्र ही नहीं, बल्कि यहां के अध्यापक भी यहां नहीं रहना चाहते.

बिरहोर आदिवासियों ने रस्सी की घटती मांग और जंगलों में घटते कच्चे माल से उपजे संकट से निपटने की कोशिश की है. उन्होंने खुद को ज़िंदा रखने के लिये खेतों में मज़दूरी शुरु की. इसके अलावा जिस भी क्षेत्र में काम मिला उन्होंने वो काम करने की कोशिश की.

लेकिन जंगलों में रहने वाले, और जंगलों में जीने वाले इन आदिवासियों के पास आधुनिक समाज में काम आने वाला कोई विशेष हुनर नहीं है, सिवाय उनके श्रम के. और उस श्रम का ना तो उन्हें उचित दाम मिलता है, और ना ही साल के ज़्यादातर समय काम. शायद यही वजह है कि बिरहोर एकमात्र ऐसे आदिवासी हैं जो बड़ी तादाद में अपने परंपरागत पेशे यानि रस्सी बनाने की तरफ़ लौटे हैं.

निष्कर्ष

2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में बिरहोर आदिवासियों की कुल आबादी क़रीब 17241 है. जनगणना के अनुसार बिरहोर की कुल आबादी के क़रीब 62 प्रतिशत लोग झारखंड में रहते हैं. लेकिन कई अध्ययन ये दावा करते हैं कि झारखंड में बिरहोर आदिवासियों की आबादी केवल 7514 है.

इससे पहले भी बिरहोर आदिवासियों के बारे में यह आशंका जताई जाती रही है कि या तो उनकी जनसंख्या लगातार घट रही है या फिर उसमें एक ठहराव है. अगर पिछले कुछ दशकों में बिरहोर आदिवासियों के जनगणना के आधिकारिक आंकड़ों की तुलना की जाए तो 1961 में झारखंड में इस आदिवासी समूह की कुल आबादी 2488 दर्ज की गई.

उसके बाद हुई 1971 की जनगणना में उनकी आबादी 3262 रही. 1981 में उनकी कुल आबादी 4339 बताई गई. जबकि 1991 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी क़रीब 8038 दर्ज की गई थी. इसका मतलब तो ये हुआ कि 1991 से 2011 के बीच के 20 साल में बिरहोर आदिवासियों की आबादी दोगुना से भी ज़्यादा हो गई.

1991 के आंकड़ों को अगर देखें तो 1981 की तुलना में झारखंड के दो ज़िलों – हज़ारीबाग़ और सिंहभूम – में बिरहोर आदिवासी आबादी में अच्छी वृध्दि दर्ज की गई. रांची और धनबाद में उनकी आबादी में गिरावट दर्ज की गई. लेकिन मज़े की बात ये है कि 1991 की जनगणना में झारखंड के पलामू ज़िले में बिरहोर आदिवासी गिनती में ही नहीं आए.

यानि उनकी जनसंख्या वहां पर शून्य दर्ज की गई. जबकि जनगणना में यह दर्ज किया गया है कि धनबाद के बिरहोर अब रस्सी बनाने की बजाए खेती करते हैं, और ज़्यादातर लोग जंगलों से मिलने वाले उत्पादों पर निर्भर करते हैं. यानि कुछ बिरहोर आदिवासी खेती की तरफ मुड़े लेकिन ज़्यादातर बिरहोर आदिवासियों ने फिर हंटर गैदरर वाली जीवनशैली की तरफ़ रुख़ किया.

बिरहोर आदिवासियों की कई बस्तियों में घूमने, उनसे मिलने और उनके साथ समय बिताने के बाद हमें भी यह अहसास हुआ कि जो बिरहोर सरकारी योजनाओं के लालच में किसी एक जगह बसने की बजाए अपने परंपरागत जीवन में बने रहे, उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर नज़र आ रही थी.

यानि जो बिरहोर जंगल पर निर्भर थे उनका जीवन थोड़ा बेहतर था. जिन बिरहोर आदिवासियों ने खेत मज़दूरी या भवन निर्माण में काम शुरू किया, उनकी हालत बदतर हो गई. उनमें से ज़्यादातर लोग जंगलों में लौट गए हैं. यानि बिरहोर आदिवासियों में एक तरह से रिवर्स माइग्रेशन हुआ है. शायद यही रिवर्स माइग्रेशन उनकी आबादी के आंकड़ों में सुधार दिखाता है.

बिरहोर आदिवासियों की जनसंख्य़ा पर एक व्यापक अध्ययन की ज़रूरत है. उसके बिना बिरहोर आदिवासियों के अलग-अलग समूहों की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों और गतिविधियों के बारे में कोई समझ बनाना मुश्किल है.

भूख से मौतों के मामले में कई बार बिरहोर आदिवासियों का ज़िक्र मीडिया में आता है. कई बार भूख से बिरहोर आदिवासियों की मौत का मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा है.

ज़मीन पर बिरहोर आदिवासियों के अलग-अलग समूहों के साथ समय बिताने के बाद हम यह कह सकते हैं कि बिरहोर आदिवासियों की भूख से मौत की ख़बरों में लेशमात्र भी झूठ नहीं हो सकता.

जिन बिरहोर आदिवासियों को सरकार ने बसाया है उनमें से कुछ समूह भुखमरी के कगार पर हैं. जहां तक कुपोषण का सवाल है तो शायद ही कोई बिरहोर आदिवासी समूह इस दायरे से बाहर है.

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