Mainbhibharat

लोकतंत्र का बजता है तुर्रा, गोंड समुदाय का ‘गोटुल’ आज भी मौजूद है

छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े की पखांजुर तहसील का यह एक छोटा सा गाँव आमाटोला है. यहाँ के गोटुल में गाँव के कुछ ज़रूरी मसलों पर चर्चा हो रही है. इस चर्चा में गाँव की मर्द, औरतें और नौजवान सभी शामिल हैं. 

गोटुल के बारे में गोंड आदिवासियों की धारणा है कि इसकी स्थापना लिंगोदेव यानि उनके सर्वोच्च आराध्य देव ने की थी. गोंड समुदाय के लिए गोटुल सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक संस्था रही है. गोटुल के बारे में काफ़ी लिखा और बोला गया है. 

लेकिन इन बातों में से किसी भी बात के बारे में यह कहना मुश्किल है कि कौन सी बात सच है या सच के क़रीब है. फ़िलहाल आम धारणा यही है कि यह संस्था अब लगभग समाप्त हो चुकी है. 

इस आम धारणा के बारे में लक्ष्मण मंडावी कहते हैं, “ हमारे समुदायों के जो गाँव शहरों के नज़दीक आ गए हैं, वहाँ गोटुल थोड़ा कम हुए हैं. लेकिन पहाड़ी और जंगल क्षेत्रों में बसे आदिवासी गाँवों में अभी भी गोटुल चलता है.”

वो आगे कहते हैं कि, “गोटुल में समाजवाद, अर्थव्यवस्था और हमारी परंपरा नई पीढ़ी को सिखाई जाती है. कुछ किताबों में गोटुल के बारे में जो लिखा गया है वो ग़लत है. इसका कारण है कि गोटुल पर शोध करने वाले कभी उन गाँवों तक पहुँचे ही नहीं जहां यह संस्था आज भी काम कर रही है.”

वो कहते हैं, “दरअसल भाषा एक बड़ी अड़चन रही है, जब बाहर से आए लोग गोटुल के बारे में ग्रामीण लोगों से बात करते हैं तो गाँव के लोग उनकी बात को समझ नहीं पाते हैं. शोधकर्ताओं को भी स्थानीय भाषा का ज्ञान नहीं होता. इससे सही बात पता नहीं चल पाती है.”

लक्ष्मण गोटुल को सिर्फ़ सेक्स से जोड़ने की कोशिशों को अफ़सोसनाक मानते हैं. 

गोंड समुदाय की इस संस्था के बारे लिखते हुए सबसे ज़्यादा ज़ोर युवक युवतियों की सेक्स शिक्षा पर दिया गया है. कुछ लोगों ने इसे एक खुले और प्रगतिशील समाज के प्रमाण के तौर पर पेश किया है तो ज़्यादातर ने इसे एक सनसनीख़ेज़ रिवाज के तौर पर दिखाया है. 

कई बड़े एंथ्रोपोलोजिस्ट ने भी गोटुल के बारे में लिखा है कि इस संस्था के बारे में गोंड आदिवासी खुल कर बात नहीं करते हैं. वो दावा करते हैं कि गोंड आदिवासियों से इस संस्था के बारे में कुछ भी पता लगाना लगभग असंभव है. 

यह बताया जाता रहा है कि इस संस्था के बारे में गोंड आदिवासी रहस्य बना कर रखते हैं. हालाँकि गोंड आदिवासियों से मिल कर हमारी जो समझ बनी है उससे लगता है कि यह मामला भाषा और भरोसे दोनों का है. 

आदिवासी समुदायों से बात करने के लिए सबसे पहली शर्त है उनका भरोसा जीतना और दूसरी ज़रूरत होती है कि आप उनकी भाषा को समझते हों. गोटुल के बारे में लगता है कि भरोसे और भाषा दोनों ही अड़चनें रहीं है जिसकी वजह से इस संस्था से जुड़े बहुत विश्वसनीय अध्ययन नहीं मिलते हैं. 

गोटुल की गतिविधियों के बारे में जो तथ्य और जानकारी मिलती है उसके हिसाब से यह समुदाय की अहम संस्था है. यह संस्था गोंड संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने का स्थान रहा है. 

मसलन गोटुल में गोंड समुदाय के नाच और गीत मौसम और पर्व के हिसाब से अलग अलग होते हैं. समुदाय के ये नाच और गीत गाँव के बच्चे अपने सियान लोगों से सीखते हैं. इसके अलावा गोटुल गोंड समुदाय के युवक युवतियों में लीडरशीप और अनुशासन के बीज डालने वाली संस्था भी रही है. 

 गोटुल में सामाजिक -सांस्कृतिक चर्चा के अलावा समुदाय और गाँव से जुड़े आर्थिक फ़ैसले भी लिए जाने की परंपरा रही है. मसलन बस्ती के जंगल का इस्तेमाल किस हद तक किया जाएगा, यह भी तय होता है. 

इसके अलावा अगर किसी परिवार की स्थिति कमज़ोर है तो उसकी मदद कैसे की जाए यह भी गोटुल में चर्चा के बाद तय किया जाता है. कई बार दूसरे समुदाय या बाहर से आए लोगों को बसाने का सवाल भी गोटुल में आता है. 

गोटुल गोंड समुदाय से जुड़ी संस्था है लेकिन अगर गोंड बहुल क्षेत्र में दूसरे आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं तो वो भी गोटुल में शामिल होते हैं. इन आदिवासी अपने पर्व त्यौहार अपने हिसाब से मनाते हैं लेकिन जो सामुदायिक फ़ैसले होते हैं उसकी चर्चा में उन्हें शामिल ज़रूर किया जाता है. 

गोटुल में परंपरा रही है कि दिन भर खेत और जंगल में काम करने के बाद शाम को खाना खाने के बाद गाँव के लोग जमा हो जाते हैं. यहाँ अक्सर ही युवक युवती मिल कर नाचते गाते हैं. पर्व त्योहारों पर यह नाच गान रात रात भी भी चलता है. गोटुल के गीतों में आदिवासियों की ज़िंदगी, परिवेश और उनके देवी देवताओं का ज़िक्र मिलता है. 

Exit mobile version