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आदिवासी को इंसाफ़ नहीं मिलता श्रीमान, मिलती है तो सिर्फ़ सज़ा

पिछले तीन वर्षों यानि 2018-19, 2019-20, 2020-21 के दौरान आदिवासी लोगों के उत्पीड़न के 4834 मामले अनुसूचित जनजाति आयोग के पास पहुँचे हैं.

इन मामलों में से 944 मामले निपट चुके हैं. यानि इन मामलों में फ़रियाद करने वाले की शिकायत का निपटारा कम से कम कर दिया गया. लेकिन 3890 मामलों में अभी तक कोई फ़ैसला नहीं आया है. 

इन आँकड़ों के सामान्य से विश्लेषण से पता चलता है कि अनुसूचित जनजाति आयोग अपने पास आए कुल मामलों का एक चौथाई का भी समाधान नहीं कर पाता है.

इस आयोग में भारत की अदालतों जैसा ही हाल है. यहाँ फ़रियादी को तारीख़ पर तारीख़ मिलती रहती है. 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने जो ताज़ा आँकड़े उपलब्ध करवाए हैं ज़रा उन पर भी नज़र डाल लेते हैं. देश भर में साल 2017 में आदिवासियों पर उत्पीड़न के कुल 7125 मामले दर्ज हुए थे.

इनमें से 5818 मामलों में चार्जशीट दायर की गई. अब ज़रा ध्यान से अगले आँकड़े को पढ़िएगा, जिन लोगों को सज़ा हुई उनकी संख्या 744 थी. 

2018 के आँकड़े देखिए तो भला तस्वीर कैसी नज़र आती है. इस साल जनजातीय उत्पीड़न के कुल 6528 मामले दर्ज हुए. इन मामलों में से 5619 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई थी.

आदिवासियों पर ज़ुल्म करने के आरोप जिन लोगों पर लगे उनमें से 503 लोगों को सज़ा हो गई.

मामूली मामलों में आदिवासी बरसों तक जेल में सड़ते हैं

2019 आँकड़े अभी तक के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा दिए गए ताज़ा आँकड़े हैं. इस साल में आदिवासियों के उत्पीड़न के कुल 8257 मामले दर्ज हुए जिनमें से 6502 मामलों में चार्जशीट दाखिल हुई. लेकिन  सिर्फ़ 742 लोगों को सज़ा मिली. 

ये आँकड़े सरकार की तरफ़ से संसद में पेश किए गए हैं. इस बाबत सरकार से एक सांसद ने सवाल पूछा था, उसी सिलसिले में ये आँकड़े सामने आये हैं.

चलिए आगे बढ़ने से पहले इन आँकड़ों को जोड़ कर देखते हैं कि मामला कहां बैठता है. इन आँकड़ों का जोड़ बताता है कि देश भर में आदिवासियों पर अत्याचार के कुल 21910 मामले रिपोर्ट हुए. इन कुल मामलों में से 17939 मामलों में चार्जशीट भी दाखिल हो गई. 

लेकिन मात्र 1989 लोगों को ही सज़ा हुई है. यानि आदिवासी उत्पीड़न के अपराधों में शामिल होने के आरोप में जिन लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हुआ, उनमें से 10 प्रतिशत लोगों को भी सज़ा नहीं हुई है. 

यह सवाल लोकसभा में 9 अगस्त 2021 को पूछा गया था. सवाल करने वाले सांसदों का नाम था विनोद कुमार सोनकर और राजवीर सिंह उर्फ़ राजू भैय्या. 

इस सवाल के जवाब में सरकार ने बताया है कि देश में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार रोकने के लिए 1989 का अधिनियम मौजूद है.

सरकार यह भी कहती है कि इस क़ानून को 2015 में और मज़बूती दी गई थी. इस संशोधित अधिनियम में अनुसूचित जाति या जनजाति के ख़िलाफ़ अपराध के मामलों को निपटाने के लिए विशेष इंतज़ाम करने का प्रावधान है. 

इन प्रावधानों में ही एक प्रावधान फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का भी है. इस प्रावधान की मंशा दी की इस तरह के मामलों में चार्जशीट दायर होने के दो महीने के भीतर मामला निपट जाए. लेकिन जो आँकड़े हैं वह तो कुछ और ही कहानी कर रहे हैं. 

इस पूरे मामले में केंद्र सरकार की तरफ़ से एक लंबा जवाब संसद के पटल पर रखा गया है. इस सवाल के जवाब में जो मूल और असली बातें हैं, उन्हें ढूँढने में काफ़ी मशक़्क़त का काम है.

अंत में केंद्र सरकार ख़ुद ही ख़ुद को बरी कर लेती है. केन्द्र सरकार ने संविधान की सातवीं अनुसूचि के हवाले से संसद को बताया है कि पुलिस और क़ानून व्यवस्था राज्यों का विषय है. 

वैसे कभी फ़ुरसत हो तो पढ़िएगा कि भारत की जेलों में बंद लोगों में आदिवासी कितने हैं. बिना मुक़दमों के फ़ैसलों के ही कैसे वो सालों तक जेल में सड़ते रहते हैं.

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