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इरूला आदिवासियों की खूबसूरत दुनिया, साँप पकड़ने तक सीमित नहीं है

तमिलनाडु और केरल के इरूला या इरूड़ा आदिवासियों का गीत-संगीत बेहद ख़ास है. इनके वाद्य यंत्रों की बात करें तो मुख्य तौर पर ये आदिवासी चार तरह के वाद्य यंत्र इस्तेमाल करते हैं. इसमें एक ढोलक जैसे दिखने वाला वाद्य यंत्र तविल या फिर दविल कहा जाता है, उसी तरह से एक और वाद्य यंत्र है जो देखने में तो नगाड़े जैसा ही होता है लेकिन इसे हाथों से बजाया जाता है.

इससे जो स्वर या आवाज़ निकलती है वो नगाड़े की तरह कड़क या करारी नहीं होती बल्कि थोड़ी भारी और नरम होती है. इसे ये आदिवासी पोरा या पोरई कहते हैं. इसके अलावा झालर बजाई जाती है जो देश के कई और हिस्से में भी इस्तेमाल होती है.

इन वाद्यों यंत्रों में सबसे अहम माना जाता है एक शहनाईनुमा वाद्य यंत्र जिसे स्थानीय भाषा में कोगल कहा जाता है. कोगल के बिना इरूला आदिवासियों का कोई भी कार्य संपन्न नहीं होता है, जन्म से मृत्यु तक.

इरूला आदिवासियों के गीतों से इस समुदाय में आए सामाजिक आर्थिक बदलावों को समझा जा सकता है. जैसे आप देखेंगे कि इनके गीत खेती किसानी से जुड़े होते हैं. इससे यह पता चलता है कि यह समुदाय अब स्थाई खेती में है और पूरी तरह से बस चुका है.

हमने जब इनके वाद्ययंत्रों के बारे में जानकारी हासिल करने कि कोशिश की तो पता चला कि जिन वाद्ययंत्रों में जानवरों की खाल का इस्तेमाल होता है, वे वाद्ययंत्र दलित समुदाय के लोग बनाते हैं. यानि यह आदिवासी समुदाय लंबे समय से अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरे समुदायों के संपर्क में है. अब यह समुदाय आईसोलेशन में नहीं है. 

इरूला या दूसरे आदिवासी समुदाय के गीत संगीत को अगर ध्यान से समझने की कोशिश करेंगे तो इन समुदायों के समाज में आए बदलाव या ठहराव दोनों को ही समझा जा सकता है.

इरूला आदिवासी समुदाय में सिर्फ़ जन्म, विवाह या फिर खेती और प्रकृति से जुड़े गीत नहीं हैं, बल्कि ये आदिवासी मृत्यु पर भी गीत गाते हैं. आपको सुन कर अजीब लग सकता है लेकिन यह भी सच है कि मृत्यु पर यहाँ सिर्फ़ गीत नहीं गया जाता है बल्कि लोग नाचते भी हैं.

इस समुदाय के लोगों का यह एक प्रयास होता है परिवार को मृत्यु के दुख से बाहर लाने का, और साथ साथ यह संदेश देने का कि मृत्यु से ज़्यादा ज़िंदगी को सेलिब्रेट करना ज़रूरी है. 

आदिवासी गीत संगीत में संपन्नता और विविधता दोनों ही मिलती है. लेकिन अभी भी आदिवासी जीवन के कई पहलुओं को और उसकी विविधता को वह अटेंशन नहीं मिल रहा है जो शायद मिलना चाहिए. जब आप उनके बीच जाते हैं और समय बिताते हैं तो आइडिया होता है कि आदिवासी गीत संगीत में कितनी विविधता है.

इसके साथ ही यह भी अहसास होता है कि अगर इन कलाकारों को सही मंच दिया जाए तो दो काम हो सकते हैं, पहला इन आदिवासियों को सम्मान और कुछ पैसा मिल सकता है और दूसरा आदिवासी जीवन की विविधता को ग़ैर आदिवासी समझ सकते हैं. 

दुनिया भर में लोग इरूला जनजाति के लोगों को साँप का ज़हर जमा करने वाले आदिवासियों के तौर पर जानती है, लेकिन क्या उनके बारे में सच इतना ही है, शायद नहीं सच तो बेहद खूबसूरत है, बशर्ते उसे कोई दिखाये या देखे.

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