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हाटी समुदाय: हिमाचल प्रदेश के गिरिपार में मिथक और धारणाएं

हिमाचल प्रदेश के गिरीपार के इलाक़े में यह हमारा पाँचवा दिन था. यहाँ के हाटी समुदाय की जनजाति के दर्जे पर दावेदारी को समझने के लिए हम सिरमौर ज़िले के गाँवों में घूम रहे थे. इसी सिलसिले में हम शिलाई तहसील के एक बेहद खूबसूरत गाँव ‘कुसाणु’ पहुँचे थे.

हम जब गाँव पहुँचे तो वहाँ का माहौल एक उत्सव में बदल गया. गाँव के सभी लोग हम से मिलने पहुँच गए. यहाँ पर हमें उनकी पारिवारिक व्यवस्था को समझना था. यहाँ की परंपरा में एक लड़की चाहे तो दो-तीन या उससे भी ज़्यादा पति रख सकती है. 

इस मसले पर यहाँ के लोगों से बातचीत करने के लिए मेरी साथी चित्रिता सान्याल कुछ औरतों को साथ ले कर गाँव में निकल गई थीं. मैं एक सीढ़ी पर बैठ गया था. इस गाँव में एक-दो घरों को छोड़कर सभी घर परंपरागत तरीक़े से लकड़ी के बने थे. 

कुसाणु गांव की हाटी महिलाएं

जिस सीढ़ी पर मैं बैठा था वो गाँव में नीचे बने घरों की तरफ़ उतरती थी. इस सीढ़ी के साथ साथ बने घरों में जो सबसे उपर का घर था मैं बिलकुल उसके साथ बैठा था. शाम ढलने लगी थी और घर में बल्ब जला दिया गया था. बल्ब की पीली रोशनी में घर का जो कुछ हिस्सा नज़र आ रहा था वह मन को अजीब सी शांति दे रहा था. 

घर से सामने के हिस्से में रस्सी के छींके में पतीली टंगी थी जिसमें दही ज़माने ने लिए दूध रखा था. इस घर को देखते हुए मेरी नजर घर के दरवाज़े पर बंधी एक लकड़ी पर ठहर गई. इस लकड़ी के उपरे के हिस्से में तीन सिरे दिखाई दे रहे थे. 

घर के बाहर बंधी इस लकड़ीको चेवड़ा कहा जाता है

आदिवासी भारत में मैने इस तरह की लकड़ी स्टैंड के लिए इस्तेमाल होती देखीं थीं. लेकिन ये लकड़ी बड़ी होती हैं जिसे ज़मीन में गाड़ दिया जाता है और उस पर पीने के पानी का बर्तन रखा जाता है. 

लेकिन दरवाजे पर लगी यह लकड़ी इतनी बड़ी नहीं थी कि इस पर कुछ रखा जा सकता है. क्या इस्तेमाल होता होगा इस लकड़ी का ? यह लकड़ी किस मकसद से यहां बांधी गई है? ये सवाल मुझे बैचेन करने लगे.

तब मैने देखा कि उस घर में लटकी पतली को उतारने घर के भीतर के हिस्से से एक औरत बाहर की तरफ आई. मेरी उनसे नज़र टकराई तो मैने उन्हें रुकने के लिए कहा. वो रुक गईं बल्कि दो-तीन सीढ़ी चढ़ कर मेरे पास ही आ गई थीं.

वो थोड़ी सी हैरान भी थीं की मैं उनसे क्या बात करना चाहता हूं. मैने दरवाजे पर बंधी लकड़ी तरफ इशारा किया और पूछा यह क्या है?

वो मुस्कराते हुए बोलीं, “यह चेवड़ा है, डाकन को घर में नहीं आने देता है. संकरात को हम इसे घर के दरवाजे पर बांध देते हैं.” उन्होने अपना नाम शीला चौहान बताया था. 

शीला से बात करते हुए मुझे गांव के कुछ पुरूषों ने मुझे देख लिया था. जैसा होता है वे यह मान कर कि शीला मुझे अच्छे से नहीं समझा पाएगी, मेरे पास आ गए और पूछा की मैं क्या जानना चाहता हूं. 

हाटी समुदाय की अपनी सांस्कृतिक पहचान है

जब ये लोग आए तो शीला ने कहा कि ये लोग आपको समझा देंगे, वैसे भी मुझे काम करना है. उनकी बात तो सही है हम से मिलने आई गांव की सभी औरते घर जा चुकी थीं. शायद इसलिए कि उन्हें घर के काम करने थे. लेकिन गांव के पुरूष चटाई बिछा कर बैठ गए थे.

ख़ैर जब ये लोग मेरे पास आ कर बैठ ही गए थे तो बातचीत मे बुराई तो कुछ थी नहीं. मैने दरवाजे पर बंधी इस लकड़ी के बारे में कुछ सवाल इन लोगों से पूछ लिए. मसलन मैने उनसे पूछा कि क्या यह लकड़ी किसी ख़ास पेड़ की है. 

इस सवाल का जवाब कल्याण सिंह ने दिया, “यह थर्ड क्लास पेड़ की लकड़ी है जिसे हम लोग छीणण कहते हैं. यह पेड़ किसी काम का नहीं होता है. यहां तक कि इसकी लकड़ी को हम जलाते तक नहीं है.”

वो बताते हैं, “ जब सावन का महीना खत्म हो रहा होता है और भादो की शुरूआत होती है तो यह लकड़ी घर के दरवाज़े पर बांधी दी जाती है. इस लकड़ी को एक महीने के लिए दरवाजे पर बांधा जाता है. रोज़ शाम को इस लकड़ी को धूप दी जाती है. एक महीने के बाद इसको विदा किया जाता है.”

हाटी समुदाय के इस गांव के अब कई लोग मेरे पास मौजूद थे. उनमें से एक जोगीराम कहते हैं, “ हमारे पुरखों के समय से ही हम यह लकड़ी सावन की संकरात को घर के दरवाजे पर बांधते हैं. इस लकड़ी के बांधने से घर डाकन और बुरी नज़र से बचा रहता है.”

मैने उनसे पूछा कि क्या वो सचमुच यह मानते हैं कि इस लकड़ी के घर के दरवाजे पर बांधने से घर किसी भी विपदा से बचा रहेगा, या फिर इसे पुरखों की परंपरा मान कर निभा रहे हैं.

इसका जवाब कल्याण सिंह देते हैं,”हमारे समुदाय और इलाके में हर घर के दरवाजे पर आपको यह लकड़ी बंधी हुई मिलेगी. एक महीने बाद हम इसको भोग चढ़ाते हैं और फिर विदा कर देते हैं. हमारा पूरा विश्वास है कि इस लकड़ी के बांधने से हमारे घर में डायन का प्रवेश नहीं होता है.”

मेरे सवाल का लंबा जवाब देते हुए वो कहते हैं, “हमारे गांव में अगर कोई पक्का मकान भी बनाता है तो भी यह लकड़ी ज़रूर बांधता है. बल्कि तब तो और भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि वो मकान तो मंहगा होता और नज़र से बचाना ज़रूरी होता है.”

हम इस गांव में हाटी समुदाय की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को समझने के लिए आए थे. इस गांव में कई घंटे बीते और यहां के लोगों से लंबी बातचीत हुई. 

इस बातचीत के दौरान मुझे बस्तर के आदिवासी गांवों में बिताए कई दिन याद आ गए. कई बार लगा कि ये जो बातें कर रहे हैं वो बातें ओडिशा के नीलगिरी ब्लॉक के हो आदिवासियों के मिथकों से मेल खाती हैं.

हम यह भी समझना चाहते थे कि हाटी समुदाय की प्रथाओं, परंपराओं और विश्वासों में जनजातिय लक्षण दिखाई देते हैं या नहीं.  कुसाणु गांव में हमें जो नज़र आया वो बेशक हाटी समुदाय की जनजाति सूचि में शामिल किये जाने के दावेदारी को सही ठहराता है.

लेकिन यह भी लगा कि यह समाज अपनी प्रथाओं और धारणाओं में इस कदर जकड़ा हुआ है कि इसमें बदलाव बेहद मुश्किल होगा. 

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