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Special Report – त्रिपुरा में अलग आदिवासी राज्य की माँग पर फँसी बीजेपी, IPTF कभी भी साथ छोड़ सकती है

त्रिपुरा में बीजेपी की सहयोगी इंडिजिनियस पीपुल्स फ़्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (IPFT) अगले चुनाव से पहले गठबंधन तोड़ सकती है. IPTF का कहना है कि बीजेपी की केन्द्र सरकार ने उन्हें निराश किया है. केन्द्र सरकार ने राज्य के आदिवासी इलाक़ों के लिए किए गए किसी भी वादे को पूरा नहीं किया है.

IPFT का क्या कहना है

त्रिपुरा सरकार में मंत्री और IPTF के नेता मेवार कुमार जमातिया ने हम से बातचीत में यह बात कही है. उन्होंने आगे कहा, “बीजेपी ने हमारी माँगो पर ध्यान नहीं दिया है. अलग राज्य की माँग हो या फिर आदिवासी इलाक़ों का विकास. हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी.” 

“अगले विधानसभा चुनाव में हम बीजेपी के साथ रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता है.” मेवार कुमार जमातिया ने कहा. 

दरअसल त्रिपुरा में प्रद्योत देबबर्मा के नेतृत्व में बने टिपरा मोथा नाम के संगठन ने राज्य के सभी राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने पर मजबूर कर दिया है. यह संगठन राज्य के आदिवासियों के लिए अलग राज्य की माँग कर रहा है. 

राज्य के आदिवासी इलाक़ों में इस संगठन को समर्थन मिल रहा है. ख़ासतौर से आदिवासी नौजवानों में इस संगठन को ज़बरदस्त लोकप्रियता मिल रही है. IPTF ने भी माना कि राज्य के आदिवासी इलाक़ों में ख़ासतौर से युवाओं में टिपरा मोथा और अलग राज्य की माँग को ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है.

टिपरा मोथा ने आदिवासी स्वायत्त परिषद (TTADC) के चुनाव में IPTF और बीजेपी का सुपड़ा साफ़ कर दिया था. 2018 के चुनाव में बीजेपी को राज्य में जीत दिलाने वाली IPTF अपनी ज़मीन खो चुकी है. उसके कई नेता और ज़मीनी कार्यकर्ता पहले ही टिपरा मोथा में शामिल हो चुके हैं.

टिपरा मोथा के अध्यक्ष प्रद्योत देबबर्मा इस सिलसिले में पूछे जाने पर कहते हैं, “ अलग राज्य की माँग तो IPTF की ही थी, लेकिन बीजेपी के साथ जाने के बाद उन्होंने इस माँग को किनारे कर दिया.” 

वो आगे कहते हैं, “अलग राज्य की माँग कोई चुनावी पैंतरा नहीं है. यह माँग संविधान के दायरे में की जा रही है.” 

उन्होंने ने कहा कि राज्य में सत्ताधारी बीजेपी फ़िलहाल डरी हुई है. उसे स्वायत्त परिषद के चुनाव में मुँह की खानी पड़ी थी. इसलिए अब विलेज काउंसिल के चुनाव को टाल रही है. MBB से ख़ास बातचीत में उन्होंने कहा कि वो राज्य के लोगों के लिए काम कर रहे हैं. उन्हें अगले चुनाव में टिपरा मोथा या किसी गठबंधन का चेहरा बनने की इच्छा नहीं है.

सीपीआई (एम) का क्या कहना है

2023 के चुनाव से पहले क्या वो कांग्रेस, IPFT या फिर सीपीआई (एम) के साथ कोई गठबंधन बनाना चाहेंगे. इस सवाल के जवाब में वो कहते हैं कि जो भी पार्टी या संगठन टिपरा मोथा की माँग से सहमति रखता है या समर्थन करता है, उसका स्वागत है.

सीपीआई (एम) नेता जितेन्द्र चौधरी

MBB ने लंबे समय तक सत्ता में रही और फ़िलहाल विपक्षी दल सीपीआई (एम) के राज्य सचिव जितेन्द्र चौधरी से इस सिलसिले में बात की. जितेन्द्र चौधरी कहते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं है कि ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की माँग एक चुनावी स्टंट है. लेकिन यह बात भी सही है कि आदिवासी इलाक़ों में इस माँग को समर्थन मिल रहा है.

उन्होंने माना कि टिपरा मोथा को आदिवासी नौजवानों का समर्थन मिल रहा है. जितेन्द्र चौधरी कहते हैं कि टिपरा मोथा राज्य की बीजेपी सरकार के सहयोगी IPFT पर दबाव बनाने में कामयाब रही है. उन्होंने कहा, “ऐसा लगता है कि IPFT अगले चुनाव से पहले बीजेपी से अलग हो जाएगा. क्योंकि उसके ज़्यादातर नेता और कार्यकर्ता पहले ही टिपरा मोथा की तरफ़ जा चुके हैं.”

‘क्या लेफ़्ट टिपरा मोथा के साथ किसी तरह का गठबंधन बना सकता है,’ इस सवाल पर चौधरी कहते है कि अभी कुछ कहना मुश्किल है. लेकिन वो कहते हैं कि आदिवासी आबादी में जनाधार वापस पाए बिना लेफ़्ट के लिए जीतना आसान नहीं होगा.

उन्होंने कहा कि लेफ़्ट ने आदिवासी इलाक़ों के विकास के लिए काफ़ी काम किया था. लेकिन बेरोज़गारी एक बड़ा मुद्दा है जिसका तोड़ पेश करना पड़ेगा. 

बीजेपी क्या कहती है

बीजेपी का कहना है कि ग्रेटर टिपरालैंड उनके एजेंडे में कभी भी शामिल नहीं था. MBB से बात करते हुए बीजेपी के वरिष्ठ नेता डा माणिक शाह ने कहा कि त्रिपुरा में अगले साल विधान सभा चुनाव है. इन चुनावों में ग्रेटर टिपरालैंड की मांग कोई मुद्दा नहीं बन सकेगा.

अपने सहयोगी दल IPFT के आरोप का जवाब देते हुए वो कहते हैं, “पिछले चार साल से IPTF हमारे साथ है और सरकार का भी हिस्सा है, इस दौरान कभी भी उन्होंने यह माँग नहीं उठाई है.”

बीजेपी नेता माणिक शाह

बीजेपी नेता का कहना था कि त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी आश्वस्त है.

फ़िलहाल बीजेपी को राज्य में बहुमत हासिल है और IPTF के बाहर जाने से भी सरकार को ख़तरा नहीं है. लेकिन अगले विधान सभा चुनाव में बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. क्योंकि 2018 के चुनाव में बीजेपी की जीत में आदिवासी वोटरों के समर्थन का बड़ा योगदान था.

IPTF के साथ समझौते से पहली बार बीजेपी त्रिपुरा की राजनीति में ना सिर्फ़ पैर ज़माने में कामयाब रही, बल्कि उसने सरकार भी बना ली थी. फ़िलहाल बीजेपी बेशक यह कह रही है कि उसे अगले विधान सभा चुनाव में टिपरालैंड मुद्दा बनता नहीं दिखाई दे रहा है.

लेकिन आदिवासी स्वायत्त परिषद के चुनाव में जिस तरह से वो और उसका सहयोगी दल IPTF को हार झेलनी पड़ी, वो एक बड़ा संकेत है.

ग्रेटर टिपरालैंड मुद्दा बन गया है 

फ़िलहाल ऐसा लगता है कि त्रिपुरा में 2023 का एजेंडा तय हो चुका है. प्रद्योत देबबर्मा के टिपरा मोथा की अलग राज्य की माँग को चाहे चुनावी पैंतरेबाज़ी कहा जाए या फिर एक कभी ना पूरी हो सकने वाली माँग. लेकिन इस मुद्दे से फ़िलहाल कोई भी राजनीतिक दल नज़र नहीं चुरा सकता है.

इसी साल हुए आदिवासी स्वायत्त परिषद के चुनावों में यह देखा जा चुका है. इसके अलावा बीजेपी के सहयोगी IPTF इस माँग को मिल रहे समर्थन के दबाव में बिखर रहा है. कांग्रेस पार्टी या फिर लेफ़्ट दोनों ही प्रद्युत देबबर्मा को गंभीरता से ले रहे हैं. 

दरअसल 2018 के चुनाव में अगर IPTF अगर आदिवासी आबादी का सबसे बड़ा संगठन बन कर उभर पाया, तो उसका कारण अलग राज्य की माँग ही थी. लेकिन बीजेपी के साथ सरकार में शामिल होने के बाद उन्होंने इस मसले को धीरे से पीछे सरका दिया था.

इस सिलसिले में कुछ औपचारिकताएँ ज़रूर निभाई गई थीं. 2018 में केंद्र सरकार की तरफ़ से इस सिलसिले में एक 13 सदस्य की कमेटी बनाई गई थी. लेकिन पिछले 4 साल में इस कमेटी की सिर्फ़ तीन बैठक ही हुई हैं.

ग्रेटर टिपरालैंड की माँग को समर्थन क्यों मिलता है

2011 की जनगणना के अनुसार त्रिपुरा में कुल आबादी में 31.80 प्रतिशत आदिवासी हैं. लेकिन यह स्थिति हमेशा से नहीं थी. इस राज्य में 1947 और फिर बांग्लादेश युद्ध के समय 1971 में बड़ी तादाद में बंगाली लोग आ कर बस गए.

यहाँ के आदिवासी मानते हैं कि राज्य में लगातार बढ़ती ग़ैर आदिवासी आबादी ने उनके संसाधनों पर क़ब्ज़ा किया है. त्रिपुरा ने जातीय हिंसा का एक लंबा दौर भी देखा है. 

अभी तक आदिवासी आकांक्षाओं के लिए क्या किया गया है

1985 में त्रिपुरा में आदिवासी बनाम ग़ैर आदिवासी संघर्ष को रोकने और आदिवासियों की आकांक्षाओं को समझते हुए त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनॉमस काउंसिल का गठन किया गया है. संविधान की अनुसूची 6 के तहत गठित इस परिषद को व्यापक अधिकार हासिल हैं.

इस परिषद को वैधानिक अधिकारों के साथ साथ कार्यपालिका के अधिकार भी दिए गए हैं. राज्य का क़रीब दो तिहाई हिस्सा इस परिषद के दायरे में आता है. इस परिषद में कुल 30 प्रतिनिधि चुने जाते हैं. इनमें से 28 का चुनाव होता है और 2 सदस्य गवर्नर नामित करता है.

राज्य की 60 विधान सभा सीटों में से 20 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित की गई हैं. टिपरालैंड अलग राज्य की माँग इसी इलाक़े के लिए की जा रही है जो स्वायत्त परिषद के दायरे में है. केन्द्र और राज्य सरकारों के लगातार प्रयास के बावजूद अलग आदिवासी राज्य की माँग त्रिपुरा में एक भावनात्मक मुद्दा रहा है.

यह मुद्दा एक बार फिर से राज्य की राजनीति के केन्द्र में आ गया है. 

राज्य में बन सकते हैं नए समीकरण

बेशक बीजेपी और सीपीआई (एम) यह मानते हैं कि टिपरालैंड का मुद्दा एक चुनावी पैंतरेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं है. लेकिन सच यही है कि यह मुद्दा फ़िलहाल राज्य की राजनीति के केन्द्र में हैं. टिपरा मोथा के नेता प्रद्योत देबबर्मन इस मुद्दे पर लोगों को लामबंद करने में कामयाब रहे हैं.

आदिवासी स्वायत्त परिषद के चुनाव में उसकी जीत के बाद राज्य की राजनीति में उन्हें काफ़ी गंभीरता से लिया जा रहा है. MMB से बातचीत में एक लेफ़्ट नेता ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि उनकी भी बातचीत प्रद्योत देबबर्मन से चल रही है.

हालाँकि अभी यह बातचीत बेहद शुरुआती स्तर पर ही है. यह एक पेचीदा मसला है. उधर बीजेपी के साथ सत्ता भोग रही IPFT का ज़मीन पर अब ज़्यादा कुछ बचा नहीं है. लेकिन फिर भी चुनाव से कुछ पहले वो भी बीजेपी से नाता तोड़ सकते हैं. 

त्रिपुरा में कांग्रेस पार्टी फ़िलहाल हाशिये पर नज़र आ रही है. लेकिन टिपरा मोथा के नेता प्रद्योत इस संगठन को बनाने से पहले कांग्रेस में ही थे. जब उन्होंने पार्टी छोड़ी उस समय वो कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष थे.

दिल्ली में टिपरा मोथा के धरने में कांग्रेस के सांसद दीपेंद्र हुड्डा भी पहुँचे थे. इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने भी उनका समर्थन किया था.

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