आंध्र प्रदेश की अराकू, पडेरू और चिंतापल्ली की हरी-भरी घाटियां, जहां सीढ़ीदार खेत सुबह की रोशनी में चमकते हैं और आदिवासी किसान अपने पूर्वजों की तरह अपना दिन शुरू करते हैं, एक धीमे लेकिन गहरे बदलाव का गवाह बन रही हैं.
जो पहाड़ियां कभी आदिवासी जीवन के गीतों और लय से गूंजती थीं, अब वहां गैर-आदिवासी बसाहट, कारोबारियों और भूमि दलालों की मौन मौजूदगी है.
सदियों से इन समुदायों को बनाए रखने वाला संतुलन टूट रहा है और वह भूमि जो उनकी पहचान को पोषित करती थी, अब अपरिचित होती जा रही है.
आंकड़ों में बयां कहानी
आदिवासी विस्थापन की कहानी अक्सर आंकड़ों के नीचे दब जाती है. 1961 से 2011 के बीच जनगणना रिकॉर्ड्स यह दर्शाते हैं कि किस तरह आंध्र प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों में जनसंख्या में धीरे-धीरे लेकिन लगातार बदलाव आया है.
पूर्वी गोदावरी जिले (रामपचोदारवरम और येल्लावरम तालुक) में गैर-आदिवासी जनसंख्या 1961 में कुल जनसंख्या के 30.58 फीसदी थी.
1971 में यह 33.85 फीसदी, 1981 में थोड़ी गिरकर 32.70 फीसदी, और 1991 में 31.27 फीसदी हो गई. अगले दो दशकों में यह 32.56 फीसदी और फिर 2011 में 28.16 फीसदी पर पहुंच गई.
पश्चिम गोदावरी जिले के पोलावरम एजेन्सी में 1961 में गैर-आदिवासी जनसंख्या 18,605 थी, जो 1991 में 68,191, 2001 में 71,285 और 2011 में 73,362 तक पहुंच गई.
विशाखापट्टनमु एजेन्सी क्षेत्र (पादेरु और चिन्तापल्ली तालुक) में 1961 में गैर-आदिवासी जनसंख्या 9.22 फीसदी थी, जो 1981 में 11.51 फीसदी तक बढ़ गई.
संविधान ने जिस क्षेत्र को आदिवासी प्रधान माना था, वो अब एक मिश्रित और असमान जगह बन गई है, जहां मूल निवासी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से किनारे किए जा रहे हैं.
माइग्रेशन और चुपचाप घुसपैठ
1991 से 2011 के बीच पहाड़ी इलाकों में गैर-आदिवासियों का प्रवाह जारी रहा। पादेरु मंडल में गैर-आदिवासी जनसंख्या 7,952 से बढ़कर 10,289, मुनचिंगपुट में 1,217 से बढ़कर 2,880 और जी मदुगुला में लगातार बढ़ोतरी हुई.
अराकू घाटी में 1991 में 4,970 से 2001 में 8,954 और 2011 में फिर गिरकर 4,798 हो गई.
हालांकि, सिर्फ जनसंख्या वृद्धि ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि गैर-आदिवासियों ने इन क्षेत्रों में आर्थिक छाप भी छोड़ी है.
साल 2022 के पडेरू रेवेन्यू डिवीजन के तहसीलदार रिपोर्ट के मुताबिक, अराकू घाटी में गैर-आदिवासी घरों में से 92 फीसदी खेती में लगे हैं; पडेरू में 77 फीसदी कृषि कार्य में, मुनचिंगपुट में 100 फीसदी व्यापार में और जी मदुगुला में 60 फीसदी खेती व व्यापार दोनों में हैं.
गैर-आदिवासी अब व्यापार, कृषि और स्थानीय बाजारों पर नियंत्रण रखते हैं.
वहीं आदिवासी परिवार, जो कभी खुद ज़मींदार थे, अब उन्हीं ज़मीनों पर मज़दूर बन गए हैं जो उन्होंने कभी खुद जोती थीं.
चुपचाप चली आ रही माइग्रेशन अब संरचनात्मक विस्थापन में बदल गई है, जहां आदिवासियों ने न केवल ज़मीन बल्कि आजीविका, स्वायत्तता और गरिमा भी खो दी है.
संविधान में जिस क्षेत्र को जनजातीय बहुल क्षेत्र माना गया था, वह धीरे-धीरे एक मिश्रित, असमान क्षेत्र बन गया है, जहां मूल निवासियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर धकेला जा रहा है.
कागज़ पर क़ानून, व्यवहार में चूक
आदिवासी ज़मीन के संरक्षण का कानूनी ढांचा कागज पर बहुत मजबूत है. आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भूमि अंतरण अधिनियम (1959 का विनियमन I, 1970 में संशोधित) आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर स्पष्ट रूप से रोक लगाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने पी रामिरेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1988) में इस संरक्षण की पुष्टि की थी. हालांकि, इसका पालन बहुत कमजोर और समझौतावादी है.
अगस्त 2025 तक आंध्र प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों ने भूमि अंतरण विनियमों के तहत 12,732 मुकदमे जीते, जिसमें 57,076 एकड़ ज़मीन को दोबारा प्राप्त किया गया. इसमें पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिले में 6,768 मामले और 32,448 एकड़ ज़मीन शामिल है.
लेकिन ये कानूनी जीतें राज्य के प्रायोजित विस्थापन (जैसे पोलावरम परियोजना) से दब जाती हैं जिसने अकेले 27,917 एकड़ ज़मीन डुबो दी है. इसमें से सिर्फ 10,719 एकड़ को भूमि-से-भूमि पुनर्वास से मुआवजा दिया गया.
इस तरह, राज्य का एक हिस्सा कोर्ट के आदेशों से भूमि वापस देता है तो दूसरा विकास के नाम पर छीन लेता है. यह विरोधाभास स्पष्ट और दुखद है.
DPTF प्रस्ताव: एक कानूनी खामी
इन सब के बीच सरकार ने एक नई पहल – जिला स्थायी आदिवासी कोष (DPTF) शुरु की है, जो अनुसूचित क्षेत्रों में वाणिज्यिक उपक्रमों से मिलने वाली आय को आदिवासी कल्याण के लिए चलाई जाती है.
इसका उद्देश्य संविधान के संरक्षण की पुष्टि करना है लेकिन इसकी रूपरेखा से वही संरक्षण खतरे में पड़ सकता है.
अनुच्छेद 3(1)(a) के तहत राज्य आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को सीधे या परोक्ष रूप से हस्तांतरित या पट्टे पर नहीं दे सकता. लेकिन DPTF राज्य एजेंसियों, जैसे आंध्र प्रदेश टूरिज़म डिवेलपमेंट कॉर्पोरेशन (APTDC), को ज़मीन रखने और निजी ऑपरेटरों के साथ पर्यटन या कृषि व्यवसाय हेतु प्रबंधन अनुबंधों के लिए साझेदारी करने की अनुमति देता है.
इससे गैर-आदिवासी कंपनियों के लिए अनुसूचित क्षेत्र में प्रवेश का एक बैकडोर खोल जाता है, जिसमें “पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप” के नाम पर आदिवासी भूमि का लाभ उठाया जाता है.
समथा जजमेंट ने भूमि का उपयोग केवल राज्य संस्थाओं को सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए दिया था, निजी लाभ हेतु नहीं. DPTF निजी भागीदारी को अनुमति देता है, भले ही 20 फीसदी मुनाफा आदिवासियों को देने का वादा हो, यह उस निर्णय की आत्मा का उल्लंघन करता है.
यह योजना ग्रामसभा को भी दरकिनार कर देती है, जो PESA कानून के तहत भूमि, पानी और जंगल के स्रोतों पर विशेष अधिकार रखती है.
असल में DPTF आदिवासी स्वशासन की जगह प्रशासनिक नियंत्रण शुरू कर देता है, जिसमें संवैधानिक सुरक्षा सिर्फ औपचारिकता बन जाती है. जिसे सशक्तिकरण दिखाया जा रहा है, वह नए शोषण की रूपरेखा बन सकता है.
उदासीनता का इतिहास
यह संकट नया नहीं है; यह दशकों से राज्य की निष्क्रियता के साये में बढ़ रहा है.
1976 में आंध्र प्रदेश जनजाति सलाहकार समिति ने “कुख्यात गैर-आदिवासियों” की बढ़ती मौजूदगी पर चिंता जताई थी. सरकारी प्रतिक्रिया केवल एक औपचारिक सर्कुलर रही थी.
आज भी यही पैटर्न जारी है. भूमि अंतरण विनियम का अनुपालन बेतरतीब है, निगरानी तंत्र कमजोर हैं और ग्रामसभाएं, जो PESA के तहत स्वशासन का आधार हैं अक्सर केवल औपचारिकता रह गई हैं.
समस्या कानून की कमी नहीं है बल्कि शासन की विफलता है. संवैधानिक संरक्षण होते हुए भी लागू करने वाली संस्थाएं जिम्मेदारी से पीछे हट गई हैं.
अनुसूचित क्षेत्रों की आत्मा
जो कुछ भी आंध्र प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में घट रहा है, वह केवल जनसंख्या या अर्थव्यवस्था का मामला नहीं, यह संवैधानिक आस्था का संकट है.
संविधान की पांचवी अनुसूची राज्य और उसके सबसे कमजोर नागरिकों के बीच एक नैतिक संधि के रूप में बनायी गई थी. इसमें शोषण से सुरक्षा और ग्रामसभा के माध्यम से स्वशासन का वादा किया गया था. आज वह वादा टूटा हुआ दिखता है.
अनुसूचित क्षेत्र सिर्फ भूमि नहीं बल्कि पहचान का धीरे-धीरे क्षरण देख रहे हैं. आदिवासी परिवार जमीन मालिक से किराएदार, किसान से मजदूर में बदलते जा रहे हैं.
अगर राज्य इसी तरह नज़रअंदाज़ करता रहा, तो वह न केवल आदिवासियों का विश्वास खो देगा बल्कि संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन भी करेगा.
आगे का रास्ता: संवैधानिक वादा लौटाना
इस धीमी गति से हो रही बेदखली को पलटने के लिए नैतिक तत्परता और कानूनी स्पष्टता, दोनों की आवश्यकता है.
तीन तत्काल उपाय आवश्यक हैं…
पहला, भूमि अंतरण विनियम का कठोर पालन होना चाहिए. अवैध कब्जों को चाहे जितने पुराने या राजनीतिक रूप से जुड़े हों, खाली कराया जाए. “दीर्घकालिक कब्जा” संवैधानिक संरक्षण पर भारी नहीं पड़ सकता. विशेष निगरानी सेल और फास्ट-ट्रैक न्यायाधिकरण प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित कर सकते हैं.
दूसरा, ग्रामसभा को अपने अधिकार में पूरी तरह सशक्त करना चाहिए. PESA के तहत यह अनुसूचित क्षेत्र में भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर संवैधानिक प्राधिकरण है. किसी भी भूमि, वन या जल परियोजना के लिए इसकी सहमति अनिवार्य, केवल सलाह नहीं होनी चाहिए।
तीसरा, राज्य को पांचवीं अनुसूची के अनुच्छेद 5(2) के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों की तरह इनर लाइन परमिट (ILP) प्रणाली शुरु करनी चाहिए. इससे गैर-आदिवासियों की अनुसूचित क्षेत्र में प्रवेश नियमित होगा और व्यवसाय, रोजगार या पर्यटन केवल समुदाय की स्वीकृति और निगरानी में ही हो सकेगा.
संवैधानिक पुनर्विचार
आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में चल रहा बदलाव केवल भूमि का मामला नहीं है. यह न्याय, विश्वास और अस्तित्व का सवाल है. अनुसूचित क्षेत्र भारत के आदिवासी लोगों के लिए स्वशासन और गरिमा के गढ़ थे.
उनकी शांत बेदखली को अनुमति देना संविधान की नैतिकता के मूल को कमजोर करना है.
राज्य को अब एक स्पष्ट चुनाव करना है: विकास और विस्थापन, प्रशासकीय सुविधा और संवैधानिक आस्था के बीच.
जब अराकू, पडेरू और चिंतापल्ली की पहाड़ियाँ एक बार फिर स्वतंत्र और सुरक्षित आदिवासी समुदायों की आवाज़ों से गूंजेंगी, तभी संविधान की पांचवी अनुसूची का वादा पूरी तरह पुनर्जीवित होगा.