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श्रद्धांजलि: डायन-प्रथा के खिलाफ लड़ने वाली बिरुबाला राभा का निधन

असम (Assam) में डायन-बिसाही (Witch-hunting) के खिलाफ लंबे समय से अभियान चलाने वाली पद्मश्री पुरस्कार विजेता बिरूबाला राभा (Birubala Rabha) का तीन साल तक कैंसर से जूझने के बाद 70 साल की उम्र में सोमवार को निधन हो गया.

असम के राज्य कैंसर संस्थान, गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज अस्पताल (GMCH) के एक बयान में उनकी मृत्यु की पुष्टि की गई और कारण मल्टी ऑर्गन फेलियर बताया गया. बयान में कहा गया है कि राभा “एडवांस्ड स्टेज कार्सिनोमा एसोफैगस (भोजन नली में कैंसर) की मरीज थीं.”

वहीं असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) ने एक्स पर एक पोस्ट में अपनी संवेदना व्यक्त की और असमिया समाज की सेवा के लिए राभा के प्रयासों की सराहना की.

उन्होंने एक्स पर लिखा, “सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के अपने अथक प्रयासों के माध्यम से उन्होंने असंख्य महिलाओं के मार्ग को आशा और आत्मविश्वास से रोशन किया. चुनौतीपूर्ण जीवन से आगे बढ़ते हुए उन्होंने सभी बाधाओं के खिलाफ साहस का प्रतीक बनाया.”

असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनकी मृत्यु पर शोक व्यक्त किया और कहा, “आदिवासी समुदायों के बीच डायन-बिसाही जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ बिरुबाला राभा के आजीवन अभियान ने हजारों महिलाओं को सशक्त बनाया है और समाज में बड़े पैमाने पर बदलाव लाए हैं.”

कौन हैं बिरुबाला राभा

बिरुबाला राभा का जन्म 1954 में असम और मेघालय के सीमा से सटे गोलपारा ज़िले के ठाकुरभिला में हुआ था.

एक इंटरव्यू में अपने जीवन के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि उन्होंने 5वीं कक्षा तक ही पढ़ाई की है. जिसके बाद उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया था क्योंकि उनको अपनी माँ के साथ काम में हाथ बंटाना होता था.

जब वह छोटी थी तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी और उनका विवाह 16 साल की उम्र में करा दिया गया था.

उनका विवाह चंद्रेश्वर राभा के साथ होने के बाद उनके तीन बेटे और एक बेटी हुई.

महज छह साल की उम्र में अपने पिता की मृत्यु के बाद स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर बिरुबाला राभा ने डायन विरोधी अभियान चलाया. जिसके कारण असम सरकार को 2015 में सबसे कड़े कानूनों में से एक बनाना पड़ा.

असम विच हंटिंग (निषेध, रोकथाम और संरक्षण) अधिनियम, 2015… इसके अधिनियमन के तीन साल बाद जून 2018 में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त होने के बाद लागू हुआ.

इसमें किसी व्यक्ति को डायन के रूप में पहचानने, प्रताड़ित करने और बदनाम करने या किसी व्यक्ति को आत्महत्या करके मरने के लिए मजबूर करने पर सात साल तक की कैद और भारी जुर्माने का प्रावधान है. सज़ा को आजीवन कारावास तक भी बढ़ाया जा सकता है.

बिरुबाला राभा पश्चिमी असम के गोलपारा जिले के सुदूर ठाकुरभिला गांव के एक आदिवासी समुदाय से आती थीं. दो दशकों से अधिक समय तक चलने वाला उनका काम, एक व्यक्तिगत अनुभव के बाद 1990 के दशक के मध्य में शुरू हुआ.

जब उनके बेटे को, जो मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा था, इलाज के लिए गांव के एक नीम-हकीम के पास ले जाया गया, तो नीम-हकीम ने कहा कि उस पर डायन का साया है और वह सिर्फ तीन दिन ही जीवित रहेगा.

हालांकि, बेटा ठीक हो गया और उसके तुरंत बाद 2001 में राभा ने डायन-प्रथा और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ने के लिए एक स्थानीय महिला समूह के साथ काम करना शुरू कर दिया.

इस दौरान उन्हें अपने समुदाय से बहिष्कृत करने की धमकी दी गई लेकिन वे निडर रहीं और कई महिलाओं को डायन करार दिए जाने और मारे जाने से बचाया.

एक समय था जब वह अपने ही गांव में अलग-थलग थी, अंधविश्वासों और सामुदायिक मान्यताओं को चुनौती देने के कारण उसे बहिष्कृत कर दिया गया था. जब वह पीड़ितों की मदद के लिए जाती थीं तो उन पर भी हमला किया जाता था.

2011 में राभा ने डायन-शिकार के खिलाफ एक जागरूकता अभियान, मिशन बिरुबाला शुरू किया, जो अक्सर अंधविश्वास की आड़ में पारिवारिक और संपत्ति विवादों से अधिक जुड़ा होता है. असम में ऐसी घटनाएं देखी गई हैं जिनमें पुरुषों को भी डायन बताकर मार डाला गया या अपंग बना दिया गया.

राभा के जानने वालों का कहना है कि उन्होंने कड़ी मेहनत की ताकि एक दिन आने वाली पीढ़ियां कभी किसी को दैनी (चुड़ैल या डायन) न कहें. वो बात का प्रतीक थीं कि कैसे व्यक्तिगत स्तर पर बहादुरी समाज में एक बड़ा बदलाव ला सकती है.

अप्रैल 2015 में गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने डायन-शिकार के खिलाफ उनके अभियान के लिए उन्हें सम्मानित किया. वहीं 2005 में असम में महिला अधिकार संगठन, नॉर्थईस्ट नेटवर्क ने उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया.

इसके बाद उन्हें 2021 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया गया.

उसी वर्ष उन्हें इसोफेजियल कैंसर (Oesophageal cancer) का पता चला. तब से वह गुवाहाटी, जहां उनका इलाज चल रहा था, राज्य कैंसर संस्थान और गोलपारा स्थित अपने घर के बीच आवाजाही करती रही हैं.

अपने शुरुआती इलाज के दौरान भी बिरुबाला ने जागरूकता बैठकों और कार्यक्रमों में भाग लेना जारी रखा, जब तक कि पिछले साल उनका स्वास्थ्य बहुत खराब नहीं हो गया. पिछले कुछ दिन इंटेंसिव केयर में बिताने के बाद सोमवार सुबह उनका निधन हो गया.

आदिवासी समाज और डायन-प्रथा

आज के इस आधुनिक युग में भी सदियों पुरानी डायन-प्रथा जैसी सामाजिक बुराई आदिवासी बहुल राज्यों में प्रचलित है.

झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, असम जैसे और भी आदिवासी बहुल राज्यों में डायन-बिसाही के मामले अक्सर देखने को मिलते हैं. इन मामलों में डायन के शक में ज्यादातर महिलाओं को बेरहमी से पीटा जाता है, यहां तक कि हत्या भी कर दी जाती है.

NCRB के आंकड़ों के मुताबिक विच हंटिंग के रूप में हत्याओं की सबसे ज्यादा संख्या झारखंड में है. दूसरे नंबर पर ओडिशा है.

वहीं साल 2023 के असम सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2011 से 2019 के बीच डायन-शिकार की घटनाओं में राज्य भर में 107 लोग मारे गए थे.

हालांकि, बिहार, राजस्थान और झारखंड सरकार ने डायन-प्रथा को रोकने के लिए कानून भी बनाए है.

बिहार में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 2001 लागू किया गया है. जिसके तहत कोई भी व्यक्ति जो तांत्रिक डायन को पहचाने का काम करता है. या डायन प्रथा से जुड़ा कोई भी गैर कानूनी कार्य करता है तो उसे 6 महीने के लिए जेल और 1000 से 2000 तक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.

वहीं राजस्थान में डायन प्रथा से संबंधित कोई भी गैर कानूनी कार्य करने पर एक से सात साल की जेल और 50000 से अधिक जुर्माना या फिर दोनों भी हो सकता है. साथ ही अगर डायन प्रथा के अंतर्गत गैर कानूनी काम करने वाला व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की हत्या करता है तो उसे सात साल से आजीवन कारावास हो सकता है या आजीवन कारावास के साथ 1 लाख जुर्माना भी हो सकता है.

इसके अलावा झारखंड के डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999 के तहत डायन प्रथा के अंतर्गत आने वाले सभी जुर्मो के लिए 6 से एक साल तक की सजा और 1000 से 2000 तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

डायन प्रथा के लिए कई कानून बनाए तो गए है लेकिन ज़मीनी स्तर यह कानून लागू होते हुए नहीं दिख रहे हैं. सिर्फ कानून बनाने से यह प्रथा खत्म नहीं होगी. हमे जरूरत है की इसके बारे में आदिवासी इलाकों में बड़े स्तर जागरुकता अभियान चलाए जाए. साथ ही इस प्रथा को रोकने के लिए एक केंद्रीय कानून लागू किया जाना चाहिए.

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