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आदिवासी क्यों कर रहे हैं केन-बेतवा लिंक परियोजना का विरोध,उनकी मांगें क्या हैं?

आदिवासियों का कहना है कि इस परियोजना के कारण वो अपने खेत, पेड़ और ज़मीन खो देंगे. अगर पुनर्वास प्रक्रिया के दौरान उचित मुआवजा, रोज़गार और सुविधाएं नहीं दी गईं तो आदिवासी समुदाय कभी भी खुद को स्थापित नहीं कर पाएगा.

देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती (25 दिसंबर) के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने केन-बेतवा लिंक परियोजना (Ken-Betwa Link Project) की आधारशिला रखी.

मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड क्षेत्र में सिंचाई और पेयजल संकट के लिए इस परियोजना को काफी अहम माना जा रहा है.

इस परियोजना को बुंदेलखंड क्षेत्र में जल संकट के समाधान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. इसे जल सुरक्षा के एक नए युग के रूप में देखा जा रहा है.

हालांकि, सरकार की इस प्रगति की दृष्टि के पीछे एक दर्दनाक कहानी सामने आ रही है और वो है आदिवासी समुदायों की दुर्दशा, जिनकी पुश्तैनी जमीनें विकास के नाम पर बह रही हैं.

जैसे ही परियोजना की नींव रखी गई, प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की उम्मीदें और डर पीछे छूट गए. इसने न्याय, अधिकारों और विकास की वास्तविक लागत से संबंधित सवाल उठाए.

एक तरफ परियोजना लाखों लोगों को पानी, सिंचाई और बिजली लाने का वादा करती है. तो दूसरी तरफ इसने आदिवासियों के विरोध की लहर भी ला दी है जो अपनी जमीन, घर और आजीविका खो देंगे.

उचित मुआवजे, पुनर्वास और न्याय की उनकी मांगों को अधिकारियों द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज किया गया है. ये विरोध सिर्फ जमीन की लड़ाई नहीं है बल्कि उनके अधिकारों, सम्मान और अस्तित्व के लिए एक गहरा संघर्ष है.

केन-बेतवा लिंक परियोजना क्या है?

यह परियोजना एक बड़े पैमाने पर नदी-जोड़ने का प्रयास है जिसे केन नदी से बेतवा नदी में पानी स्थानांतरित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है. इसका उद्देश्य बुंदेलखंड क्षेत्र को जल सुरक्षा प्रदान करना है.

मोदी सरकार द्वारा 2021 में स्वीकृत इस परियोजना की लागत 44,605 करोड़ रुपये है, जिसमें से 39,317 करोड़ रुपये यानि 90 प्रतिशत केंद्रीय सहायता के रूप में हैं. बाकी 10 प्रतिशत राशि राज्य सरकार वहन करेगी.

सरकार का दावा है कि इस परियोजना से महत्वपूर्ण बदलाव होने वाले हैं – केन नदी पर 77 मीटर ऊंचा बांध, 221 किलोमीटर लंबी नहर और दाहोधन में एक विशाल जलाशय का निर्माण, लेकिन इससे हजारों लोग विस्थापित होंगे.

इस जलाशय से कथित तौर पर पन्ना टाइगर रिजर्व के महत्वपूर्ण हिस्सों सहित करीब 9 हज़ार हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी.

इससे 10 गांवों के 1,913 परिवारों के प्रभावित होने की भी संभावना है. जैसे-जैसे भूमि पानी के नीचे गायब होती जा रही है, वैसे-वैसे इस पर निर्भर आदिवासी लोगों की आजीविका भी प्रभावित हो रही है.

2019 में केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि इस परियोजना के लिए 23 लाख पेड़ काटे जाएंगे. इसने पहल की पर्यावरणीय लागत के बारे में गंभीर चिंताएं जताईं.

आदिवासी मुखर हुए हैं

अब जब सरकार ने परियोजना को आगे बढ़ाया है तो आदिवासी, जो इसके परिणामों का खामियाजा भुगतने की संभावना रखते हैं, उन्होंने विरोध में अपनी आवाज़ उठाई है.

अधिकारियों और प्रधानमंत्री को लिखे उनके पत्रों और ज्ञापनों में अन्याय की गहरी भावना और मुआवजे और पुनर्वास की हताशा भरी मांग झलकती है.

जब 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने परियोजना की आधारशिला रखी थी उस दिन 8 आदिवासी गांवों के लोगों ने अपने चूल्हे नहीं जलाए थे. उनके घरों में खाना नहीं बना था. आदिवासी लोगों ने उद्घाटन को अपने दुख का प्रतीक मानकर शोक मनाया था.

प्रभावित आदिवासी गांवों के ग्रामीणों का कहना है कि आदिवासी समुदायों को पूरा मुआवजा, पुनर्वास और अन्य सुविधाएं नहीं मिली हैं. फिर भी परियोजना का उद्घाटन कर दिया गया. यह कैसी नीति है? कौन सा न्याय किया जा रहा है? अगर यह परियोजना वाकई लोगों के कल्याण के लिए है तो आगे बढ़ने से पहले प्रभावित लोगों को उनके वाजिब अधिकार दिए जाने चाहिए. नहीं तो यह परियोजना उनके लिए तबाही लेकर आएगी.

आदिवासियों का कहना है कि इस परियोजना के कारण वो अपने खेत, पेड़ और ज़मीन खो देंगे. अगर पुनर्वास प्रक्रिया के दौरान उचित मुआवजा, रोज़गार और सुविधाएं नहीं दी गईं तो आदिवासी समुदाय कभी भी खुद को स्थापित नहीं कर पाएगा. आर्थिक न्याय के बिना, हम कभी भी अपना जीवन फिर से नहीं बना पाएंगे.

लोगों ने अपनी शिकायत में कहा है कि आधारशिला रखने से पहले प्रधानमंत्री मोदी को आदिवासी लोगों का दर्द समझना चाहिए था. हमने कई बार विरोध किया है लेकिन हमारी मांगें नहीं सुनी गईं. हमारे घर, जमीन और संसाधनों की बलि दी जा रही है और इस बलिदान का घाव हमेशा हमारे साथ रहेगा.

दिसंबर 2024 में आदिवासी युवा शक्ति संगठन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक ज्ञापन भेजा था, जिसमें पन्ना जिले के 8 गांवों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया, जो परियोजना से सीधे प्रभावित हैं.

पत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि पर्याप्त मुआवजा और पुनर्वास योजनाएं प्रदान नहीं की गई हैं और विस्थापन प्रक्रिया उचित परामर्श या पारदर्शिता के बिना की गई है.

पर्यावरण और कानूनी चिंताएं

आदिवासियों के विरोध के अलावा केन-बेतवा लिंक परियोजना को पर्यावरणविदों और कानूनी विशेषज्ञों से भी काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

पर्यावरणविदों के मुताबिक इस परियोजना के जैव विविधता और पर्यावरण पर बहुत गंभीर प्रभाव हैं. ख़ास तौर पर पन्ना जैसे क्षेत्र में जहां लुप्तप्राय बाघों की आबादी और विविध वन्यजीव रहते हैं.

पर्यावरणविद् सुभाष सी. पांडे चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं, “नदियों की प्राकृतिक संरचना को संरक्षित किया जाना चाहिए. दो नदियों को जोड़ने से जलीय जीवन, पौधों और जानवरों के अस्तित्व को ख़तरा हो सकता है. बाघ अभयारण्य में हस्तक्षेप करना और बाघों को उनके प्राकृतिक आवास से हटाना उनके बीच आक्रामकता और संकट पैदा कर सकता है.”

केन-बेतवा लिंक परियोजना का उद्देश्य मध्य प्रदेश में केन नदी से पानी को उत्तर प्रदेश के बेतवा नदी में ट्रांसफर करना है.

लेकिन पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट में एनवायरनमेंटल क्वालिटी मॉनिटरिंग के प्रमुख अनिल गौतम का कहना है कि केन नदी में अप्रयुक्त पानी है, जबकि बेतवा का ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग किया जाता है. इसलिए यह दावा करना कि केन में ज़्यादा पानी है, पूरी तरह से झूठ है.

न्याय’ के लिए संघर्ष

केन-बेतवा लिंक परियोजना भारत की जल सुरक्षा और बुनियादी ढांचे के विकास की महत्वाकांक्षी योजनाओं का प्रतीक है. लेकिन जिन आदिवासियों की ज़मीनें जलमग्न हो रही हैं, उनके लिए यह प्रगति किसी काम की नहीं है.

उनकी लड़ाई सिर्फ़ अपने घरों के नुकसान के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि उस व्यवस्था के खिलाफ़ है, जिसके बारे में उन्हें लगता है कि उसने बहुत लंबे समय तक उनके अधिकारों की अनदेखी की है.

परियोजना से प्रभावित आदिवासी समुदाय पर्याप्त मुआवज़ा, उचित पुनर्वास की मांग कर रहे हैं.

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