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मयूरभंज हैंडलूम: कहानी मरी नहीं, बदल गई

मयूरभंज ज़िले के जेबी नगर ब्लॉक के अस्तिया गाँव में पहुँचते पहुँचते हमें लगभग दोपहर हो गई थी. हमारा इरादा यहाँ पर हथकरघा पर बुनाई देखना था.

इसके साथ साथ बुनकरों से मयूरभंज की ख़ास हैंडलूम साड़ियों, मर्दों की धोतियों और गमछों की बुनाई और डिज़ाइन पर बातचीत करना चाहते थे.

हमारे साथ मयूरभंज के उदला से गदाधर भी हो लिए थे. इनको हमने स्थानीय भाषा समझने के लिए साथ ले लिया था. हम जिस घर में सबसे पहले पहुँचे वो जोड़ीधर पात्रो  का था. 

जोड़ीधर की आँखें बिलकुल सूनी हो गई हैं

जोड़ीधर पात्रो दोपहर में हमें अपने घर पा कर अज़ीब से उलझन में पड़ गए. गदाधर ने उन्हें बताया कि हम लोग दिल्ली से आए हैं और उनके बुनाई के हुनर के बारे में उनसे बात करेंगे.

इसके अलावा उनके हथकरघे का वीडियो बनाएँगे और हो सकेगा को तो एकाध साड़ी ख़रीदना भी चाहते हैं. यह सुनकर उनके चेहरे पर जो भाव आए, लगा उनकी उलझन और बढ़ गई.

उन्होंने गदाधर को बताया कि साड़ी तो उनके पास नहीं है. गदाधर ने जब मुझे यह बताया तो मैंने उनसे पूछा कि उनके पास हथकरघा तो होगा, इसके जवाब में जोड़ीधर घर के अंदर चले गए. 

मुझे लगा था कि जोड़ीधर हमें भी घर के अंदर बुलाएँगे और हथकरघे पर बुनाई का नमूना दिखाएँगे. लेकिन कुछ मिनट बाद जब वो घर से निकले तो उनके हाथ में कुछ सामान था.

वो आँगन में इस सामान को टिका कर फिर अंदर चले गए. कुछ और सामान लेकर बाहर आए, और बोले यह है मेरा हथकरघा. हमारे सामने आँगन में लकड़ी के कुछ औज़ार पड़े थे. ये औज़ार दरअसल एक हथकरघा यानि हैंडलूम में इस्तेमाल होने वाले अलग अलग हिस्से थे.

जोड़ीधर के साथ उनके घर के आँगन में रिपोर्टर श्याम सुंदर

हमारे इरादों पर पानी फिर चुका था. हमारी कहानी मर चुकी थी. एक ख़ीझ सी मन में पैदा हो गई. हम यहाँ पर मयूरभंज हैंडलूम की ख़ूबसूरती और यहाँ के कारीगरों के हुनर पर कहानी बनाने आए थे.

हमने पढ़ा भी था और सुना भी था कि मयूरभंज में जो हैंडलूम की साड़ी बनती हैं, उन पर आदिवासी चिन्ह मसलन तीर धनुष, जंगली जानवर और पेड़ पत्तों को बुना जाता है. लेकिन आँगन में जो सामान और औज़ार हमारे सामने पड़ा था, मेरे कैमरामैन साथी अरविंद और सुधीर लगातार मेरी तरफ़ सवाल भरी नज़रों से देख रहे थे.

अरविंद ने मेरे पास आ कर हल्के से कहा, “सर स्टोरी तो मर गईं”. लेकिन मेरे मुँह निकल गया, “अरविंद, स्टोरी मरी नहीं है, बदल गई है.”

अरविंद मेरी बात समझ चुके थे. उन्होंने और सुधीर ने जोड़ीधर के घर का शूट शुरू किया और जो औज़ार आँगन में बिखरे पड़े थे उनकी तस्वीरें भी उतारनी शुरू कर दीं. 

कुछ देर की हिचक के बाद जोड़ीधर हमारे साथ बातचीत में सहज हो गए थे. उन्होंने बताया कि उनके माता-पिता भी बुनाई का काम करते थे.

उन्होंने यह काम कब शुरू किया था, उन्हें ठीक ठीक याद नहीं है पर कहते हैं कि 10-12 साल के रहे होंगे जब उन्होंने बुनाई का काम शुरू किया था. वो बताते हैं कि उनके इलाक़े में ज़्यादातर संताल आदिवासी हैं. उनके बनाए कपड़ों के ज़्यादातर ग्राहक आदिवासी ही थे.

वो साप्ताहिक हाट में जा कर साड़ी, धोती और गमछे बेचते थे. आदिवासियों के अलावा व्यापारी भी उनके घर आ कर कपड़े ख़रीद ले जाते.

जोड़ीधर का घर

लेकिन एक वक़्त आया जब व्यापारियों ने उनसे कपड़े ख़रीद कर ले जाने की बजाए बंगाल से साड़ियाँ, धोती और गमछे ला कर यहाँ मयूरभंज के बाज़ारों और हाटों में बेचना शुरू कर दिया.

ये कपड़े पावरलूम के बने थे. हाथ से बुनी साड़ियों के मुक़ाबले ये मशीन से बनी साड़ी कहां टिकती. मशीन से बनी साड़ी सस्ती थी. बस यहाँ से मुश्किलों का दौर शुरू हो गया. हालात ये बने कि बुनकरों को बुनाई छोड़, खेतों और ईंट भट्ठों में मज़दूरी करनी पड़ी. 

मयूरभंज ओडिशा का आदिवासी बहुल ज़िला है. ओडिशा के कुल 62 आदिवासी समुदायों में से कम से कम 45 छोटे बड़े आदिवासी समुदायों के लोग यहाँ रहते हैं.

लेकिन संताल या संथाल आदिवासी समुदाय यहाँ का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है.

इस समुदाय के बारे में कहा जाता है कि 18वी और 19वीं शताब्दी में किसी समय पर संताल आज के झारखंड और पश्चिम बंगाल से आ कर यहाँ पर बस गए. संताल आदिवासी अपने घरों की पेंटिंग के अलावा अपने कपड़ों के डिज़ाइन के लिए भी जाने जाते रहे हैं. 

मयूरभंज में संताल अभी भी परंपरागत साड़ी और धोती पहनते हैं, पर ये मशीन से बनी हैं

जोड़ीधर इतने बुजुर्ग हैं नहीं जितने नज़र आते हैं. लेकिन वक़्त की मार ने उम्र से पहले ही इनको बुढ़ा कर दिया है.

इनकी आँखों में जीने का कोई मक़सद या तमन्ना नज़र नहीं आती है. सारा दिन यूँ ही बैठे बैठे कट जाता है….अजीब सा अवसाद और निराशा ने इनकी ज़िंदगी में घर कर लिया है.

अगर किसी से जीने का मक़सद और हसरत छीन ली जाए तो शायद यही होता है…इंसानों के साथ ही नहीं कई बार समाज के साथ भी. 

मयूरभंज में हैंडलूम पर पॉवरलूम की मार पड़ी. बिजली से चलने वाली मशीनों और नए नए फ़ैशन ने जोड़ीधर से ना सिर्फ़ उनकी रोज़ी छीन ली, बल्कि उनका इलाक़े का एक कुशल कारीगर होने का अभिमान भी तोड़ दिया.

वक़्त के साथ तकनीक और फ़ैशन में बदलाव लाज़मी है. मशीनों से कम श्रम में अधिक उत्पादन और नए फ़ैशन की माँग को पूरा करना आसान था.

इसे रोकना ना तो ज़रूरी था और ना ही मुमकिन. लेकिन जंगलों में बसे गाँवों के कारीगरों को क्या यह दोष दिया जा सकता है कि उन्होंने नई तकनीक और बाज़ार से ताल नहीं मिलाई.

यह तो इन कारीगरों के साथ नाइंसाफ़ी के साथ साथ इनके हुनर का अपमान भी होगा. इस सवाल का जवाब तो देश चलाने वालों को ही देना होगा. इस मामले में सबसे अफ़सोसनाक बात ये है कि इन हुनरमंद कारीगरों को खेत मज़दूर बनना पड़ा.

यानि ये कारीगर सामाजिक और आर्थिक मामले में एक पायदान गिर गए थे. क्योंकि होता तो ये है कि आधुनिकतावाद के साथ आदमी खेती किसानी से उद्योग की तरफ़ बढ़ता है…यहाँ तो उल्टा हुआ है.

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