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भाषाविद जानुम सिंह को हो भाषा के विकास में योगदान के लिए पद्म पुरस्कार मिलेगा

झारखंड के डॉक्टर जानुम सिंह सोय को आदिवासी भाषा ‘हो’ के विकास में योगदान के लिए पद्म पुरस्कार दिया जाएगा. 

डॉक्टर जानुम सिंह झारखंड में घाटशिला के रहने वाले हैं. वे क़रीब 40 सालों से हो-भाषा के विकास के लिए काम कर रहे हैं. डॉ जानुम सिंह कोल्हान विश्वविद्यालय से रिटायर हैं. 

इन्हें साल 2023 के लिए पद्म पुरस्कार से नवाजा गया है. इस बार 106 हस्तियों को सम्मानित किया गया है. 

डॉ सोय ने हो जनजाति की संस्कृति और जीवनशैली पर 6 पुस्तकें लिखी हैं. उनके हो-भाषा में चार कविता संग्रह  और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. 

पहला काव्य संग्रह साल 2009 में प्रकाशित हुआ. इसे बाहा सगेन नाम दिया गया था. इस काव्य संग्रह का दूसरा हिस्सा इसी साल प्रकाशित हुआ है. 

इस उपन्यास में उन्होंने आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति, त्योहारों और लोकगीतों को शामिल किया है. इनका 2010 में कुड़ी नाम उपन्यास प्रकाशित हुआ. 

यह उपन्यास हो जीवन के सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित है. इसके अतिरिक्त इनके कविता संग्रह हरा सागेन के दो भाग प्रकाशित हो चुके हैं.

72 साल के डॉक्टर जानुम सिंह ने उम्मीद ज़ाहिर की है कि उन्हें यह सम्मान मिलने से हो भाषा के संरक्षण के काम को कुछ बल मिल सकेगा. उन्होंने कहा है कि वे मूलतः हिन्दी के अध्यापक थे.

लेकिन जब वे अपनी पीएचडी की पढ़ाई कर रहे थे तब उनका झुकाव अपनी मातृ भाषा हो की तरफ़ बढ़ने लगा. वे 2012 में विश्वविद्यालय से रिटायर हो गए. 

उन्होंने ख़ुद को सम्मान मिलने पर ख़ुशी के साथ साथ आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के काम पर चिंता भी प्रकट की है. उनका कहना है कि हो और अन्य आदिवासी भाषाओं के लिए सरकार और समाज दोनों को काफ़ी काम करने की ज़रूरत है.

उन्होंने बताया कि आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के लिए जितने संसाधनों की ज़रूरत, वे उपलब्ध  नहीं हैं. मसलन उनकी अपने विश्वविद्यालय के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया कि वहाँ पर हो भाषा विभाग का कोई अध्यक्ष नहीं है. 

वहाँ पर ज़्यादातर टीचर्स कॉन्ट्रैक्ट पर ही काम कर रहे हैं. 

हो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग

झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम राज्यों में हो भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की माँग लंबे समय से की जाती रही है.

इस सिलसिले में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए एक हो भाषा एक्शन कमेटी का गठन भी किया गया है. इस कमेटी में चारों राज्यों के वो संगठन शामिल हैं जो हो भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग करते हैं.

इस सिलसिले में हो एक्शन कमेटी के पूर्व सचिव लक्ष्मीधर सिंह तीव ने MBB से बातचीत में कहा, “एक अनुमान के हिसाब से झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और असम मिला कर कम से कम 35 लाख लोग हो भाषा बोलते हैं.”

इस भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग के समर्थन में उनका तर्क है कि संविधान में देश की भाषाई विविधता को बनाए रखने पर ज़ोर दिया गया है.

उनके अनुसार संविधान में आर्टिकल 29 भाषाओं के संरक्षण का प्रावधान करता है जबकि आर्टिकल 350A में मातृभाषा में पढ़ाई पर ज़ोर दिया गया है.

उन्होंने MBB से बातचीत में कहा कि इस बात में कोई दो राय नहीं है कि किसी भी भाषा को बचाने और उसका प्रसार करने में समुदाय की ज़िम्मेदारी अहम होती है. इसलिए हो भाषा को बचाने और उसके विकास के लिए हो राइटर्स एसोसिएशन और हो लेंग्वेज़ एजुकेशन काउंसिल का गठन किया गया है.

वो दावा करते हैं कि हो भाषा को बचाने के जितने भी प्रयास हुए हैं वो सामुदायिक तौर पर ही ज़्यादा हुए हैं. लेकिन वर्तमान सरकार से उन्हें कोई उम्मीद नहीं है.

उनका कहना है कि वर्तमान सरकार तो एक देश- एक भाषा में विश्वास रखती है, इसलिए इस सरकार से कोई उम्मीद करना ही ग़लत होगा कि वह हो भाषा या किसी और क्षेत्रिय या आदिवासी भाषा को आठवीं अनुसूची में जगह देगी.


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