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भीलों के शहीद स्थल पर नरेन्द्र मोदी बनाम अशोक गहलोत के क्या मायने हैं

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) 1 नवंबर को मानगढ़ धाम जा सकते हैं. यहां वो आदिवासी शहीदों को श्रद्धांजलि देंगे और मानगढ़ धाम को एक राष्ट्रीय स्मारक (National Monument) घोषित कर सकते हैं. दिल्ली में सूत्रों के हवाले से यह ख़बर मिली है कि राजस्थान और गुजरात की सीमा पर पहाड़ियों में स्थिति आदिवासी शहीद स्थल को केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय स्मारक बनाने का फ़ैसला कर लिया है.

उधर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की माँग की है. अशोक गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिख कर यह माँग की है. अशोक गहलोत के कार्यालय से बताया गया है कि मुख्यमंत्री गहलोत ने इस सिलसिले में पहले भी प्रधानमंत्री को दो पत्र लिखे हैं.

यह बड़ी अजीबोग़रीब बात लगती है कि एक तरफ़ केंद्र सरकार ने मानगढ़ धाम के शहीदों को सम्मान देने का फ़ैसला कर लिया है. सरकार मानती है कि मानगढ़ धाम राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के भील आदिवासियों में एक पवित्र स्थल बन गया है. 

इन तीनों ही प्रदेशों के लाखों आदिवासी इस स्थान को ऐतिहासिक मानते हैं. इसलिए केंद्र सरकार भी यह समझती है कि इस स्थान को राष्ट्रीय स्मारक बना कर आदिवासी आकांक्षाओं को पूरा किया जाना ज़रूरी है. 

मानगड़ धाम पर नाचते भील नौजवान

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी यही मानते हैं. उनके पत्रों में भी लिखा गया है कि मानगढ़ धाम आदिवासी शहीद स्थल है. आदिवासियों की क़ुर्बानी और आज़ादी की लड़ाई में योगदान के लिए मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाना चाहिए.

जब केंद्र सरकार और राजस्थान सरकार दोनों ही मानगढ़ धाम पर एक जैसी राय रखती हैं तो फिर समस्या क्या है? केंद्र सरकार ने अगर फ़ैसला कर लिया है तो फिर उस फ़ैसले को इतना गोपनीय क्यों रखा जा रहा है. 

उसका कारण है विधान सभा चुनाव है. गुजरात में इसी साल चुनाव है और इसके लिए प्रचार ज़ोरों पर चल रहा है. अगले साल राजस्थान में भी विधान सभा चुनाव होगा. इसलिए आदिवासी शहीद स्थल मानगढ़ धाम राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का विषय बन गया है.

नरेन्द्र मोदी बनाम अशोक गहलोत

दिल्ली के बीजेपी सूत्रों का कहना है कि 1 नवंबर को प्रधानमंत्री मानगढ़ धाम जाएँगे. वहीं पर प्रधानमंत्री मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर देंगे. बीजेपी का कहना है कि अशोक गहलोत मानगढ़ धाम पर बीजेपी की पहल का श्रेय लेना चाहते हैं.

लेकिन बीजेपी नेताओं को विश्वास है कि नरेंद्र मोदी के सामने अशोक गहलोत की कोशिशों का कोई मोल नहीं है. 

गुजरात में कुल मतदाताओं में से लगभग 15 फीसदी आदिवासी  है. गुजरात विधानसभा में 27 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा भी गुजरात में कई और सीटों पर आदिवासी मतदाता प्रभाव डालता है. 

गुजरात की आदिवासी आबादी में सबसे ज़्यादा संख्या भील आदिवासियों की है. कुल आदिवासी आबादी का लगभग 47 प्रतिशत भील आदिवासी हैं. 

मानगढ़ धाम मेले में लोक कलाकार

गुजरात का आदिवासी मतदाता पारंपरिक तौर पर कांग्रेस का वोटर माना जाता है. 2007 में कांग्रेस ने 27 में से 14 सीटें प्राप्त की थी. 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने 16 सीटें प्राप्त की थी. 2017 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने 14 सीटें जीतीं ओर बीजेपी को 9 सीट ही मिली पाई थी.

अशोक गहलोत यह बात बहुत अच्छी तरह से समझते हैं कि नरेन्द्र मोदी बेशक गुजरात चुनाव के मद्देनज़र मानगढ़ धाम पहुँच रहे हैं. लेकिन बीजेपी गुजरात चुनावों के साथ साथ अगले साल के राजस्थान के चुनाव का माहौल बनाना शुरू कर चुकी है.

इसलिए अशोक गहलोत की कोशिश है कि बीजेपी से अगर एक कदम आगे नहीं जा सकते तो कम से कम पीछे ना रह जाएँ.  उनका यह आकलन ग़लत भी नहीं है क्योंकि दिल्ली में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राजस्थान के सभी बड़े नेताओं के साथ बैठक की है. 

इस बैठक में राजस्थान में बीजेपी की इकाई को संगठित हो कर चुनाव लड़ने की रणनीति बनाने के लिए कहा गया है. इस बैठक में मानगढ़ धाम में 1 नवंबर की रैली पर भी चर्चा हुई है. 

मानगढ़ धाम का इतिहास

उन्नीसवीं सदी में भील आदिवासियों के बीच बढ़ते लगान और बेगारी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ रहा था. स्थानीय राजे रजवाड़े आदिवासियों से ताक़त के दम पर लगान वसूलते थे. उस समय एक आध्यात्मिक नेता गोविंद गुरू ने भील आदिवासियों को संगठित करना शुरू किया. 

उन्होंने संप सभा नाम के एक संगठन का गठन किया. शुरुआत में गोविंद गुरू ने भील आदिवासियों में समाज सुधार के काम किये. मसलन उन्होंने आदिवासियों को शराब छोड़ने को कहा. लेकिन उनके इस संगठन ने जल्दी ही राजनीतिक रूप ले लिया और भील आदिवासियों का यह बड़ा संगठन बन गया. 

राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Museum) में गोविंद गुरू के एक पत्र से इस पूरे घटनाक्रम के बारे में काफ़ी जानकारी मिलती है. 14 नवंबर को लिखे गए इस पत्र से पता चलता है कि स्थानीय राजाओं के ज़ुल्म से परेशान आदिवासी राजाओं से लड़ने को तैयार थे. 

नेशनल म्यूज़ियम में मौजूद कई और दस्तावेज यह बताते हैं कि 14 नवंबर को यह पत्र गोविंद गुरू ने हज़ारों आदिवासियों के बीच बैठ कर लिखा था. यह पत्र अंग्रेज सरकार को लिखा गया था क्योंकि मेवाड़, संतरामपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, कुशल गढ़ और पंचमहल जैसी रियासतों ने अंग्रेज़ों की फ़ौज से मदद माँगी थी. 

17 नवंबर को सुबह सुबह अंग्रेजों की फ़ौज ने मानगढ़ की पहाड़ियों पर जमा भील आदिवासियों पर मशीनगन से गोली चलानी शुरू कर दी. इस हमले में कम से कम 1500 भील आदिवासियों की मौत की बात बताई जाती है. 

मानगढ़ धाम का राजनीतिक मुद्दा बन जाना

मानगढ़ धाम पर एक समय सिर्फ़ गोविंद गुरू की एक धुणी (हवन कुंड) होती थी. यहाँ पर भील आदिवासी आते जाते रहते थे. लेकिन फिर आदिवासी समाज के कुछ जागरूक लोगों ने मानगढ़ धाम पर विश्व आदिवासी दिवस यानि 9 अगस्त को एक मेला आयोजित करने का फ़ैसला लिया.

अब हर साल 9 अगस्त यानि विश्व आदिवासी दिवस पर लाखों आदिवासी इस मेले में शामिल होते हैं. यहाँ के मेले में शामिल होने के लिए राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के भील आदिवासी आते हैं.

ज़ाहिर है जब मेला विश्व आदिवासी दिवस के दिन आयोजित किया जाता है तो उसमें आदिवासियों के अधिकारों का मसला भी उठता है. जब मेले में हज़ारों लाखों लोग शामिल होने लगे तो राजस्थान सरकार ने मानगढ़ धाम के विकास के लिए कुछ फंड भी उपलब्ध करा दिया.

मानगढ़ धाम पर लगने वाले मेले में अब हर साल राजनीतिक दलों ख़ास कर बीजेपी और कांग्रेस के बीच एक प्रतिस्पर्धा देखी जा सकती है. इस राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का एक फ़ायदा तो यह हुआ है कि मानगढ़ धाम तक अब एक अच्छी सड़क बन गई है.

इसके अलावा मानगढ़ की पहाड़ी पर स्थिति इस शहीद स्थल पर अब कई तरह की सुविधाएँ भी दी गई है. साथ साथ कुछ स्मारकों का निर्माण भी हुआ है. अगर मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया जाए तो फिर इसके विकास और संरक्षण के लिए और अधिक संसाधन उपलब्ध हो सकेंगे.

इसके अलावा मानगढ़ धाम पर एक शोध संस्थान या संग्रहालय की स्थापना भी की जा सकती है. लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में ही जनता का भला होता है, लेकिन तभी जब आम नागरिक राजनीतिक दलों और सरकार पर दबाव बना पाएँ.

मानगढ़ धाम पर यह केंद्र सरकार और राजस्थान सरकार के बीच का मुक़ाबला इसलिए नज़र आ रहा है कि भील आदिवासी दोनों ही सरकारों पर दबाव बनाने में कामयाब रहे.

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