भारत में बांस को अक्सर ‘ग्रीन गोल्ड’ कहा जाता है क्योंकि यह पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए समान रूप से उपयोगी है.
2021 के राष्ट्रीय स्तरीय आंकडों के अनुसार, देश में बांस उद्योग का मूल्य ₹12,000 करोड़ से अधिक है और यह 10 लाख से ज़्यादा लोगों को रोज़गार देता है.
भारत सरकार की दलवई कमेटी की 2017 की एक रिपोर्ट बताती है कि बांस से जुड़ी गतिविधियां हर साल करीब 516 मिलियन मानव-दिनों का रोज़गार पैदा करने की क्षमता रखती हैं. लेकिन अगर बांस के पेड़ की संख्या में ही क्षय (गिरावट) होने लगे तो ये कई लोगों की आजीविका को खतरे में डाल देता है.
तेलंगाना के आदिलाबाद ज़िले में रहने वाली विशेष रूप से कमज़ोर समुदाय में शामिल कोलम जनजाति भी आजीविका के लिए बांस पर आश्रित है.
यहां के लगभग 6,000 कोलाम परिवार जीवनयापन के लिए पूरी तरह बांस पर निर्भर हैं.
इनका जीवन बांस की टोकरी, चटाई और अन्य पारंपरिक वस्तुएं बनाने पर टिका रहा है.
लेकिन पिछले कुछ सालों में जंगलों में बांस की संख्या घटने से इस समुदाय की आजीविका पर गहरा असर पड़ा है.
कई परिवारों को बांस की तलाश में किलोमीटरों दूर जंगलों तक जाना पड़ता है. इससे उनके पास बांस से शिल्पकारी और कारीगरी करके उत्पाद तैयार करने के लिए कम समय मिलता है.
कम बांस होने की वजह से कम उत्पाद तैयार हो पाते हैं, जिसका सीधा प्रभाब उनके जीवनयापन पर पड़ता है.
कोलम जनजाति के इस संकट को देखते हुए पूर्व राज्यसभा सांसद जोगिनिपल्ली संतोष कुमार ने आदिलाबाद ग्रामीण मंडल के मोल्ललगुट्टा गांव में बांस के पौधे लगाकर ग्रीन इंडिया चैलेंज के तहत इस इलाके में एक नई पहल की शुरुआत की.
इस अभियान के पहले चरण में लगभग 2,000 बांस के पौधे लगाए जा रहे हैं और आने वाले समय में इसे तेलंगाना के 70 से अधिक स्थानों तक पहुंचाने की योजना है.
संतोष कुमार ने बताया कि उन्होंने सात सालों में ग्रीन इंडिया चैलेंज के तहत 20 करोड़ से ज़्यादा पौधे लगाए हैं. अब उनका ध्यान बांस की खेती बढ़ाने और इससे जुड़ी परंपरागत कला को पुनर्जीवित करने पर है.
इस पहल की सबसे प्रेरक बात यह है कि कोलाम समुदाय के वरिष्ठ कारीगर रावजी पटेल ने बांस की खेती के लिए अपनी पांच एकड़ ज़मीन दान कर दी है.
रावजी पटेल ने देहरादून में बांस शिल्प की ट्रेनिंग ली थी और वर्षों तक इस कला को आगे बढ़ाया है.
अब वे चाहते हैं कि उनकी अगली पीढ़ियां भी इस कला को अपना कर आत्मनिर्भर बनें.
ये भूमि दान करने के लिए संतोष कुमार ने उनकी सराहना की. उन्होंने आने वाले तीन साल तक इस बांस बागान की देखभाल और खर्च वहन की ज़िम्मेदारी भी ग्रीन इंडिया चैलेंज पर ले ली.
स्थानीय समुदाय ने भी इस पहल की प्रशंसा की है. एक स्थानीय कोलाम कारीगर ने कहा,”बांस हमारी जीवनरेखा है. इस नई बागान के पास होने से अब हमारे बच्चों को जंगल में दूर-दूर तक नहीं जाना पड़ेगा. वे हमारी पारंपरिक कारीगरी सीख सकते हैं, गरिमा के साथ कमाई कर सकते हैं और बेहतर जीवन बना सकते हैं.”
यानी इस पहल से कोलाम जनजाति के लोगों के मन में उनकी परंपरा और जीविका को बचाने की उम्मीद जगी है.
(Image is for representation purpose only.)