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आदिवासियों को आर्थिक स्थिति के आधार पर अपराधी मानना आर्टिकल 21 का उल्लंघन : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) ने दिल्ली पुलिस को अपनी हिस्ट्री शीट में बदलाव करने का अनुरोध किया है. कोर्ट ने कहा कि अगर कोर्ई व्यक्ति सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर हो तो उसे ऐतिहासिक अपराधी मानकर हिस्ट्रशीट में शामिल करना गलत है.

ऐसा करने से पुलिस अनुच्छेद 21 (Article 21) का उल्लंघन करती है. अनुच्छेद 21 देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान से जीने का अधिकार देता है.

मानव गरिमा के अधिकार के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति के साथ सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए. फिर चाहे वे किसी भी समुदाय से आता हो या फिर आर्थिक रूप से कमज़ोर क्यों ना हो.

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्याकांत और के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने दिल्ली पुलिस को हिस्ट्री शीट में अपराधी के नाबलिग बच्चे और उनकी पत्नी के नाम पर बुरा चरित्र का दिया गया टैग भी हटाने का निर्देश दिया.

इसके अलावा कोर्ट ने अन्य राज्यों को उनकी हिस्ट्री शीट में बदलाव करने पर बल दिया. कोर्ट ने कहा ब्रिटिश काल की तरह आज के समय में भी आदिवासियों और अनुसूचित जाति के वर्ग से आने वाले लोगो को पुलिस की हिस्ट्री शीट में अपराधी माना जा रहा है. क्योंकि यह लोग आर्थिक, समाजिक और शिक्षा के वर्ग में कमज़ोर होते हैं.

कोर्ट ने कहा कि पुलिस द्वारा विमुक्त जातियों के लोगों को हिस्ट्री शीट में अपराधी के रूप में दर्ज किया गया है.

विमुक्त जातियों को ब्रिटिश काल में क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट 1871 के तहत अपराधी माना गया था. लेकिन आज़ादी के बाद भी इन्हें अपराधी ही माना जा रहा है.

कोर्ट ने जजमेंट लिखते हुए कहा कि राज्य सरकार को पिछड़े वर्गों के साथ हो रहे समाजिक अन्याय को रोकने के लिए प्रावधान बनाने चाहिए.

विमुक्त जनजाति क्यों कहा जाता है

ब्रिटिश काल में बनाये गए क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट 1871 की वजह से देश के कई आदिवासी और पिछड़े समुदायों को जन्मजात अपराधी माना गया था.

देश आज़ाद होने के बाद यह महसूस किया गया कि इस एक्ट के तहत अपराधी घोषित की गए आदिवासी समुदायों और जातियों को इस कलंक से मुक्ति मिलनी चाहिए.

इसलिए संविधान लागू होने के बाद साल 1952 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट 1871 को निरस्त कर दिया गया. इस कानून के ख़त्म होने से कम से कम 200 आदिवासी और पिछड़े वर्ग की जातियों को अपराधी माने जाने के अभिशाप से मुक्त करने का प्रयास हुआ.

लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि अब जब इस कानून को ख़त्म हुए करबी 72 साल हो चुके हैं, विमुक्त कहे जाने वाली जनजातियां और जातियां सचमुच में आज भी मुक्त नहीं हो पाई हैं.

समाज और पुलिस प्रशासन उन्हें आज भी अपराधी ही मानता है. इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश बेहद महत्वपूर्ण है.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है क्या वह लागू होगा, इसमें शक है.

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