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सरना धर्म: आदिवासियों की अलग धार्मिक पहचान का मज़बूत आधार

जानिये सरना धर्म के बारे में

‘सरना’ शब्द झारखंड, ओडिशा, बंगाल, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रेदश के कुछ हिस्सों में इस्तेमाल होता है. इस लिहाज़ से यह थोड़ा सा स्थानीय नाम है. अगर राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो इसे आदि धर्म या प्रकृति धर्म कहा जा सकता है और काफ़ी लोग कह भी रहे हैं.

जहां तक बात है आदिवासियों के धर्म की तो लंबे समय तक यह धारणा रही या फिर आप कह सकते हैं कि अभी भी यह धारणा है कि आदिवासियों का कोई धर्म या आस्था नहीं होती है. आम धारणा यही रही है कि वो प्रकृति की पूजा करते हैं और उसके पीछे कोई दर्शन यानि फ़िलॉसफ़ी नहीं है. लेकिन यह सही धारणा नहीं है.

आदिवासियों की धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं पर हुए शोध इस बात को स्थापित करते हैं कि इनके पीछे बाक़ायदा एक दर्शन है. मैंने अपने शोध (पीएचडी थीसिस) में आदि धर्म की वेदिक और पश्चिमी धर्म के दर्शन से तुलना की है. दरअसल, लंबे समय तक इस दर्शन को नकार दिया गया. लेकिन अब बुध्दिजीवी, विश्वविद्यालय और इतिहासकार यह मानने लगे हैं कि आदिवासियों की धार्मिक मान्यताओं की मज़बूत दार्शनिक पृष्ठभूमि है.

सरना धर्म के समर्थन में झारखंड में एक रैली

आदिवासी धार्मिक मान्यताओं की दार्शनिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए आदिवासियों के धार्मिक क्रिया कलापों को सही से समझने की ज़रूरत है. मसलन, जब कोई ग़ैर आदिवासी किसी आदिवासी को पूजा करते देखता है, तो वो पाता है कि आदिवासी पेड़ की पूजा कर रहा है या फिर वो पहाड़ या नदी की पूजा करता है. यह देख कर मान लिया जाता है कि आदिवासी प्रकृति का ही पुजारी है.

आदिवासी जब साल के पेड़ की पूजा करता है या फिर पहाड़ और नदी की पूजा करता है तो उसका मतलब सिर्फ़ यह नहीं होता है कि पेड़ की ही पूजा करता है. आदिवासी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एक अदृश्य शक्ति दुनिया को चलाती है. आदिवासियों के पाहन या फिर अलग अलग समूहों में वो व्यक्ति जिसे यह शक्ति मिलती है उस अदृश्य शक्ति का आह्वान करता है. पाहन के बुलाने पर वो अदृश्य शक्ति आती है और साल के वृक्ष पर विराजमान होती है. उसी तरह से यह अदृश्य शक्ति नदी या फिर पहाड़ पर बस जाती है.

झारखंड विधान सभा से सरना कोड पास होने के बाद एक रैली

आदिवासी धर्म दर्शन के अनुसार अगर प्रकृति यानि पेड़, नदी-नाले और पहाड़ नहीं होंगे तो वो अदृश्य शक्ति जिसे ग़ैर आदिवासी भगवान कहते हैं वो आदिवासियों के पास नहीं आएंगे. इस लिहाज़ से आदिवासी दर्शन में ही पर्यावरण और वनों का संरक्षण निहित है. किसी और धर्म में यह ख़ासियत नहीं मिलेगी कि भगवान को पाने के लिए प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण सबसे पहली शर्त है. यह ख़ासियत आदिवासियों के धर्म में ही मिलती है. सभी धर्मों में यह मान्यता है कि भगवान है तो प्रकृति है, जंगल है, नदी है पहाड़ हैं. लेकिन आदिवासी मानते हैं कि पर्यावरण है, वन हैं, नदी और पहाड़ हैं तो ही उस अदृश्य शक्ति को पाया जा सकता है. आदि धर्म या प्रकृति धर्म इस नज़र से व्यवहारिक धर्म है.

किसी भी धर्म के लिए फ़िलॉसफ़िकल बैकग्राउंड अहम माना जाता है. जहां तक कर्मकांड और प्रैक्टिस का सवाल है वो अलग-अलग इलाक़ों में अलग -अलग हो सकता है. ये समय के साथ बदलता रहता है. लेकिन किसी भी धर्म के पीछे जो दर्शन होता है वह ठोस होता है. इस लिहाज़ से आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं के पीछे भी ठोस दर्शन है. इसलिए यह कहना कि आदिवासियों का कोई धर्म नहीं है और उनकी परंपराओं या मान्यताओं को अलग से धर्म की पहचान देना संभव नहीं है, सही समझ नहीं है.

आदिवासियों का पहले से एक धर्म है, यह सवाल ही नहीं है. मामला सिर्फ़ इस धर्म को एक पहचान और क़ानूनी मान्यता देने का है. इसलिए सरना धर्म कोड पर यह बहस चल रही है.

एक और तर्क दिया जाता है कि आदिवासियों का इतिहास मौखिक है. उनके धर्म से जुड़े कोई ग्रंथ नहीं मिलते हैं. लेकिन क्या यह बात सही नहीं है कि वेद भी सैंकड़ों साल तक मौख़िक ही रहे और एक ख़ास समय पर ही लिखे गए. क्या यह बात भी सही नहीं है कि बाइबल भी एक ख़ास समय पर लिखी गई, इससे पहले वो भी श्रुति में ही थी.

आज की बात करें तो आपको आदिवासी धर्म के समर्थन में काफ़ी कुछ लिखित मिल सकता है, जो इस आदि धर्म के समर्थन में इस्तेमाल हो सकता है. मसलन मुंडा समाज पर जेबी ओबमेन की 16 वॉल्यूम के एन्साइकलोपीडिया में आदिवासियों के धर्म के टेनेट्स मिलेंगे. रामदयाल मुंडा की किताबों में आदिवासियों के धर्म दर्शन पर काफ़ी कुछ मिलता है. इसके अलावा गोंड और भील आदिवासियों के धर्म दर्शन से लेकर उत्तर पूर्वी राज्यों के आदिवासियों के धर्म दर्शन पर काफ़ी लिखित जानकारी मिलती है.

फ़िलहाल ज़रूरत इस बात की है कि आदिवासियों के धर्म दर्शन पर उपलब्ध जानकारी के हिसाब से आदिवासियों की अलग धार्मिक पहचान को माना जाए. इस धर्म को कोडिफ़ाई किया जाए. यह बेहद ज़रूरी काम है जो किया जाना चाहिए.

अब सवाल आता है कि क्या देश के सभी आदिवासियों को एक ही धार्मिक पहचान देना संभव है. इसका जवाब हां है. यह बात सही है कि भारत या यूं कहें कि दुनिया में अलग-अलग आदिवासी समूह अलग-अलग तरह की पूजा पद्धति अपनाते हैं. लेकिन यह बात तो हर धर्म के लिए सच है. दुनिया भर के आदिवासियों में जो धर्म का दर्शन है वो एक ही मिलेगा. उनकी ज़्यादातर धार्मिक मान्यताएं भी मिलती जुलती हैं.

भारत एक बड़ा देश है और यहां आदिवासियों के 700 से ज़्यादा समूह हैं. लेकिन इसके बावजूद आप देखेंगे कि वो प्रकृति के पुजारी हैं. उनके धार्मिक कर्मकांडों के पीछे एक ही दर्शन है. इसलिए आदिवासियों को धार्मिक पहचान दी ही जानी चाहिए. इसमें कोई बहुत मुश्किल नहीं होगी.

जहां तक बात है अलग-अलग आदिवासी समूहों की, मसलन गोंड, भील, मुंडा, संथाल, उरांव या फिर पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी समूह, इनमें कई तरह की धार्मिक प्रैक्टिस हो सकती हैं. उस केस में किया यह जा सकता है कि एक कोड तैयार किया जाए और इन सभी नामों को उसमें समाहित कर लिया जाए.

(संतोष किडो ने वैदिक और आदिवासियों के धार्मिक दर्शन पर पीएचडी की है. आप कई किताबें भी लिख चुके हैं)

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