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बोंडा आदिवासियों की बस्तियों से अस्पताल का रास्ता अंतहीन है?

देव किरसानी (बदला हुआ नाम) ने 2018-2020 में तीन और चार साल के दो बच्चों को खो दिया. बड़े बच्चे को एक रात तेज़ बुखार हो गया था. जब किरसानी अपने गांव से 10 किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित अस्पताल पहुंचने के लिए पैदल निकले तो जंगल के रास्ते से यात्रा अंतहीन लग रही थी.

क्योंकि वह अपने बेटे को जागते रहने और सांस लेने के लिए कह रहा था. जब तक किरसानी अस्पताल पहुंचे तब तक उनके बेटे को मृत घोषित कर दिया गया था. किरसानी ने बताते हैं, “उसका शरीर तेज़ बुखार से जल रहा था. उसे पिछले कुछ दिनों से बुखार था और हमने स्थानीय उपचार का विकल्प चुना लेकिन उस रात उसकी हालत बिगड़ गई. मुझे उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.”

इसके दो साल बाद इतिहास न खुद को दोहराया. एक रात पेट में तेज़ दर्द के कारण उनकी बेटी को बेचैनी महसूस हो रही थी. रात को वह फिर से उसी मुश्किल रास्ते से अस्पताल पहुंचे क्योंकि वह दर्द सहन नहीं कर पा रही थी. लेकिन रास्ते में ही बेटी की मौत हो गई.

दोनों ही मामलों में उनके बच्चों को समय पर इलाज नहीं मिल सका था. किरसानी पहाड़ी बोंडा जनजाति के हैं, जो ओडिशा का एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) है. यह पीवीटीजी समुदाय दूरदराज के पहाड़ी इलाकों में रहता है. 

डाउन टू अर्थ नाम की पत्रिका में छपी इस खबर पर हमारे लिए यकीन करना मुश्किल नहीं है. क्योंकि हमने ये हालात मलकानगिरी की बोंडा घाटी में खुद देखे हैं.

बोंडा समुदाय में जनसंख्या में ठहराव , कम साक्षरता स्तर और टेक्नोलॉजी से बेहद दूर होने के कारण काफी दयनीय स्थिति में हैं. इस समुदाय के ज़्यादातर गांवों में हेल्थ पैरामीटर चिंता का एक प्रमुख कारण बना हुआ है. 

दूरदराज के पहाड़ी इलाके और संचार और यातायात के सीमित साधन की वजह से उनके स्वास्थ्य देखभाल प्रभावित होती है. असुरक्षित आजीविका और सरकारी सेवाओं तक पहुंच की कमी ने इन जनजातियों के स्वास्थ्य पर काफी खराब प्रभाव डाला है.

ओडिशा के मलकानगिरी जिले के बदादुराल ग्राम पंचायत के सानुगुडा गांव के किरसानी और लगभग 70 अन्य लोगों के लिए चिकित्सा सुविधा तक पहुंचना असंभव हो गया है. गांव में दो तरह से पहुंचा जा सकता है- पहले रास्ते में तीन छोटी नदियां खेत और एक जंगल से संकीर्ण रास्ता है.

इस रास्ते पर किसी गाड़ी का चलना तो दूर यह बमुश्किल-चलने योग्य है. दूसरा रास्ता जो है वो ऐसा है कि एक समय में केवल एक दोपहिया वाहन को उस पर चल सकता है. मानसून के दौरान ये रास्ता खतरे से खाली नहीं है. गांव के सबसे निकटतम चिकित्सा सुविधा अभी भी 12 किलोमीटर दूर है.

किरसानी ने कहा कि आमतौर पर हमें पैदल दूरी तय करने में तीन घंटे से ज्यादा समय लगता है. कोई दूसरा विकल्प नहीं है. एंबुलेंस हम तक नहीं पहुंच सकते हैं. इसलिए अस्पताल जाने के लिए हमें खुद ही दूरी तय करनी होगी.

ओडिशा में 13 पीवीटीजी हैं, जो 0.134 मिलियन की आबादी के साथ 541 पीवीटीजी बस्तियों में रहते हैं, जो 89 ग्राम पंचायतों में फैले हुए हैं.

ओडिशा पीवीटीजी एम्पावरमेंट एंड लाइवलीहुड्स इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम (OPELIP) से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, कुल 541 बस्तियों में से कुछ 127 पूरी तरह से दुर्गम यानि पहुंच से दूर हैं. OPELIP प्रोजेक्ट के डायरेक्टर पी अर्थनारी के हवाले से बताया गया है , “भौगोलिक रूप से दूरदराज के गांवों तक पहुंचने के लिए हम सड़कों को माध्यम बनाते हैं लेकिन ये बारहमासी सड़कें नहीं हैं. लगभग 90 प्रतिशत गांवों को सड़क संपर्क से कवर कर लिया गया है और हम आने वाले महीनों में बाकी बचे गांवों को कवर करने की योजना बना रहे हैं.”

कॉम्प्ट्रॉलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की 2017 की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “स्वास्थ्य सेवाओंका ना होना और परिवहन की कमी के कारण, कमजोर जनजातियां समय पर स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं.”

बाकी आबादी की तुलना में आदिवासी समूह बीमारी और कुपोषण के प्रति अधिक संवेदनशील हैं. एक समुदाय या जिला स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचने के लिए ये लोग 5 से 80 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं.

ओडिशा के रायगड़ा जिले के टांडा गांव में 30 डोंगरिया कोंध परिवार एक दूरदराज के पहाड़ी की चोटी पर रहते हैं. रोजाना पुरुष और महिलाएं अपने स्थानीय उपज जैसे ईंधन की लकड़ी, हल्दी और बाजरा बेचने के लिए बोरीगुडा गांव की यात्रा करते हैं.

गांव वाले सुबह जल्दी ही पहाड़ी से नीचे की तरफ चल पड़ते हैं. उन्हें पहाड़ी से नीचे आने में करीब करीब डेढ़ घंटा लगता है. ये लोग स्थानीय बाजारों में अपनी उपज बेचने के बाद वे शाम तक घर लौट आते हैं. संकरे, छोटे और बड़े पत्थरों और घने पेड़ों के साथ पहाड़ी को काटता हुआ रास्ता ग्रामीणों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है.

इस इलाके तक पहुंचने के लिए एक रास्ता बनाया जा रहा है जिसे पूरा होने में अभी समय लगेगा. ग्रामीण अभी भी पारंपरिक मार्ग का ही चुनाव करते हैं. लेकिन स्वास्थ्य संबंधी आपात स्थितियों के वक्त ये रास्ता एक चुनौती बन जाती है.

एक ग्रामीण कुडूजी जकासिका ने कहा, “हम अस्पतालों में नहीं जाते हैं. आपात स्थिति के दौरान यहां से स्वास्थ्य सुविधा तक पहुंचना लगभग असंभव है. ऐसा बहुत कम होता है कि हम अस्पतालों में जाते हैं.”

इस आदिवासी समूह में शिशु और मातृ मृत्यु दर काफी ज़्यादा है और इसके अलावा मलेरिया और दस्त से भी यहां लोगों की मृत्यु आम बात है. कुडूजी ने कहा, “गर्भावस्था के मामले में ज्यादातर प्रसव घर पर ही होते हैं. एक गर्भवती महिला पहाड़ी पर कैसे चढ़ और उतर सकती है? 

लेकिन अगर वे एक संस्थागत प्रसव चाहते हैं तो वे पहले एक गांव में जाते हैं फिर एक रात आराम करते हैं और अगले दिन फिर से अपनी यात्रा शुरू करते हैं. यह काफी लंबी प्रक्रिया है.”

गर्भवती महिलाओं को खाट और अस्थायी डोली की मदद से लंबी दूरी तक पैदल भी ले जाया जाता है.

टांडा में वन क्षेत्रों के ज्यादातर दूरदराज के गांवों की तरह आजीविका का प्राथमिक स्रोत वन उपज है. पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों, ज्यादातर छोटे बच्चों के साथ घने जंगलों में जाते हैं, जिससे उन्हें गैर-संचारी रोगों (non-communicable desease) का खतरा होता है.

PVTG आबादी के 40 प्रतिशत से अधिक लोगों ने सड़क संपर्क और 30 प्रतिशत से अधिक लोगों ने माना कि स्वास्थ्य सुविधाओं में सेवा की उपलब्धता सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में प्रमुख बाधा थी.

मौजूदा सुविधाएं

बोंडा जनजाति के लगभग 7,000 लोगों के घर मलकानगिरी जिले में बोंडा घाटी में हैं. यहां सिर्फ एक स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र है जो पूरी आबादी की सेवा करता है. 2013 में इसे सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के तहत एक स्थानीय गैर-लाभकारी संगठन द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया था.

इस केंद्र में एक आयुष डॉक्टर और दो एमबीबीएस डॉक्टर हैं. इसमें ब्लड टेस्ट और प्रसव की सुविधा है लेकिन अल्ट्रासाउंड या एक्स-रे के लिए लगभग 20 किलोमीटर दूर दूसरे अस्पताल जाना पड़ता है. वहां से उन्हें आगे जिला स्वास्थ्य मुख्यालय और फिर पड़ोसी जिले कोरापुट रेफर किया जाता है.

इस केंद्र के प्रभारी डॉ प्रफुल्ल परिदा ने कहा, “लोग समय-समय पर हमारे पास आते हैं लेकिन बुर्जुग लोगों के लिए यह मुमकिन नहीं है. आपात स्थिति के मामले में हम उन्हें खैरपुट के ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र के लिए रेफर करते हैं.”

आपात स्थिति के लिए एक गांव में बाइक एंबुलेंस की व्यवस्था की गई है.

नियामगिरी पहाड़ियों में डोंगरिया कोंध पीवीटीजी का घर है. कुर्ली ग्राम पंचायत में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहाड़ी के ऊपर रहने वाले पूरी आबादी की सेवा करता है. इस केंद्र में एक आयुष डॉक्टर, एक नर्स और एक चपरासी है. जब डॉक्टर छुट्टी पर होता है तो चपरासी ही बुखार, खांसी, सिरदर्द और पेट दर्द जैसी बीमारियों के लिए दवाएँ लिखता और देता है.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जनजातीय स्वास्थ्य पर 2018 की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि सरकारों को विशेष उपाय करने चाहिए जैसे कि नियमित स्वास्थ्य जांच, शिक्षा की निगरानी, कुपोषण और बाल विवाह को रोकना, शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग आदिवासी बच्चों का संस्थागत पुनर्वास और दूरदराज के इलाकों में रहने वाले पीवीटीजी समुदाय जो विलुप्त होने के कगार पर हैं उनको नियमित मोबाइल स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जाए.

ओडिशा स्टेट ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डॉ एबी ओटा ने कहा कि आम तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर और संबंधित स्वास्थ्य सुविधाएं उन गांवों या क्षेत्रों को उपलब्ध कराई जाती हैं जो जनसंख्या मानदंडों को पूरा करते हैं. लेकिन यह अफ़सोस की बात है कि अधिकांश पीवीटीजी बसावटें जनसंख्या के मानदंडों को पूरा नहीं करती हैं, जिसके चलते वो ऐसी सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं.

ओटा ने कहा, “इसलिए सुविधाओं को प्रदान करने के लिए पीवीटीजी क्षेत्रों में सरकार को जो सबसे बड़ी पहल करनी चाहिए, वह इस तरह के प्रावधानों को सुविधाजनक बनाने के लिए जनसंख्या मानदंड में ढील देना है.”

राज्य के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग ने मानव संसाधनों के प्रबंधन और प्राथमिक देखभाल प्रावधान के संबंध में विशिष्ट स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने वाली पहलों को लागू किया.

ओडिशा के सार्वजनिक स्वास्थ्य निदेशक डॉ बिजय महापात्रा ने कहा, “बेहद कठिन पहुंच वाले स्थानों में निदान और टेस्टिंग किसी भी बीमारी के लिए एक चुनौती बन जाता है. हमने इन इलाकों के लिए गैर-लाभकारी संस्थाओं के साथ भी करार किया है. जहां वे हमारी आशा, सहायक नर्स और एएनएम के अलावा संपर्क का पहला जरिया बन जाते हैं.”

ये साझेदारियाँ संसाधन जुटाने, सेवा वितरण बढ़ाने और पीवीटीजी समुदायों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद करती हैं. मोबाइल हेल्थकेयर यूनिट की तैनाती एक और रणनीति है लेकिन दुर्गम इलाके इसे और भी कठिन बना देते हैं. 

इसी तरह टेलीमेडिसिन भी इन इलाकों के लिए बेहतर हैं और दूर से रोगियों का निदान और उपचार करने के लिए बढ़िया है. लेकिन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना भी इनमें से अधिकांश बस्तियों में उचित नेटवर्क कनेक्टिविटी के अभाव में चुनौतीपूर्ण साबित होता है.

विशेषज्ञों का तर्क है कि गाँवों के भीतर से सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना इन गाँवों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने का एक प्रभावी तरीका हो सकता है. यह इस विचार पर आधारित है कि इस प्रक्रिया में समुदायों को शामिल करने से उपयुक्त और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील समाधानों की पहचान करने और उन्हें लागू करने में मदद मिलेगी.

पीवीटीजी स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित करने वाले एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ केसी साहू ने कहा, “एक उपाय पीवीटीजी समुदायों के भीतर सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (Community health workers) को शिक्षित करना है. ये सीएचडब्ल्यू प्राथमिक चिकित्सा, माताओं और बच्चों की देखभाल और बीमारी की रोकथाम जैसी सेवाएं प्रदान कर सकते हैं और समुदाय को स्वास्थ्य और स्वच्छता पर शिक्षित करने में मदद कर सकते हैं.”

रिमोट पीवीटीजी गांवों में स्वास्थ्य सेवा की कमी को दूर करने में सरकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. उन्होंने कहा, “सरकार स्वास्थ्य सेवा के लिए अधिक धन आवंटित कर सकती है, दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का निर्माण कर सकती है और इन क्षेत्रों में काम करने वाले हेल्थकेयर प्रोफेशनल को वित्तीय सहायता प्रदान कर सकती है.”

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