राजस्थान के बारां ज़िले के शाहबाद क्षेत्र में रहने वाले सहरिया जनजाति के लोगों की जिंदगी पूरी तरह जंगल पर निर्भर है.
ये आदिवासी पीढ़ियों से जंगल से महुआ, आंवला, तेंदू पत्ता, गोंद और चिरौंजी के जरिए अपना जीवन यापन करते आ रहे हैं. लेकिन अब उनका यह जंगल खतरे में है.
ग्रीनको एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी यहाँ 1800 मेगावाट का “पम्प्ड स्टोरेज हाइड्रो प्रोजेक्ट” बना रही है.
इसके लिए लगभग 408 हेक्टेयर जंगल भूमि और 624 हेक्टेयर में दो बड़े जलाशय बनाए जाएंगे. इन जलाशयों को कुणो नदी क पानी से भरा जाएगा.
हालांकि कंपनी का दावा है कि इससे स्वच्छ ऊर्जा मिलेगी लेकिन स्थानीय लोगों को डर है कि इससे उनका जंगल खत्म हो जाएगा और उनके पास रोज़गार और जीवनयापन का कोई साधन नहीं बचेगा.
प्रभावित क्षेत्र
भूमि अधिग्रहण की सूची में दिखाया गया है कि इस परियोजना के लिए कलोनी, मुंगावली और बैंत नामक तीन गांवों की भूमि प्रभावित होगी लेकिन इस परियोजना से कम से कम सात गांवों पर असर होगा. इन गांवों में सैकड़ों आदिवासी और दलित परिवार रहते हैं.
मूंडियार गांव में करीब 2,500 लोग रहते हैं. इसमें से 400 लोग सहरिया जनजाति से हैं. गांव के अधिकतर लोग बेहद गरीब हैं और यहां शिक्षा का स्तर भी बहुत कम है.
कंपनी के एक प्रतिनिधि ने दावा किया कि अभी तक कोई पेड़ नहीं काटा गया है. लेकिन पत्रकारों ने मौके पर कई पेड़ गिरे हुए देखे हैं.
कंपनी ने कहा कि अंतिम वन मंजूरी के बाद केवल न्यूनतम संख्या में पेड़ ही हटाए जाएंगे.
जल संरक्षण विशेषज्ञ राजेन्द्र सिंह के अनुसार अब तक 1.19 लाख नहीं बल्कि चार गुना ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं.
क्यों कर रहे हैं आदिवासी विरोध?
ज़्यादातर आदिवासी और ग्रामीण इस परियोजना के खिलाफ हैं. उनका कहना है कि पहले भी कंपनियों ने रोज़गार का वादा किया लेकिन काम करने वाले बाहरी लोग ही आए और उनके हाथ कुछ नहीं लगा.
इन आदिवासियों का साफ कहना है “जंगल जाएगा तो हम भी जाएंगे.”
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जैसे ही जंगल कटेगा, वन उत्पाद और मवेशी चराना बंद हो जाएगा. इससे ग्रामीणों की कमाई खत्म हो जाएगी.
सहरिया बच्चों में पहले से ही कुपोषण की समस्या है. जंगल खत्म होने से यह समस्या और ज़्यादा बढ़ेगी.
जंगल में बाघ, तेंदुआ, भालू, लकड़बग्घा जैसे संरक्षित जानवर रहते हैं. जंगल कटेगा तो मानव-पशु संघर्ष में भी बढ़ोतरी देखने को मिलेगी.
लेकिन कुछ ग्रामीण जैसे भूप सिंह मानते हैं कि जंगल पहले ही खराब हो चुका है और प्रोजेक्ट से शायद रोज़गार मिल जाए. लेकिन अधिकतर ग्रामीणों को ऐसी कोई उम्मीद नहीं है.
कंपनियों को स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर जनजातीय समुदायों के जीवन के अधिकार को कुचलने की बजाय उनके साथ मिलकर टिकाऊ विकास का रास्ता निकालना चाहिए.