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क्या जीन थेरेपी के ज़रिए आदिवासियों को सिकल सेल रोग से मिलेगी मुक्ति

सिकल सेल रोग (Sickle Cell Disease) आदिवासी समाज के लिए एक अभिशाप है. आंकड़ों से पता चलता है कि आदिवासी समाज में पैदा होने वाले 86 मे से 1 बच्चा सिकल सेल एनीमिया (Sickle Cell Anemia) से प्रभावित है. मध्य, पश्चिमी और दक्षिणी भारत में यह दर अधिक है.

वहीं पूरी दुनिया में अफ्रीकी देशों के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है. जहां सबसे ज्यादा सिकल सेल रोग से लोग प्रभावित होते हैं.

भारत में हर साल अनुमानित 30 से 40 हज़ार बच्चे इस बीमारी के साथ पैदा होते हैं.

2023-24 के बजट सत्र में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि सरकार का लक्ष्य 2047 तक इस बीमारी को खत्म करना है.

सिकल सेल एनीमिया बच्चों को माता-पिता से मिलती है. इस रक्त रोग के लिए कोई ठोस इलाज़ अभी तक मौजूद नहीं था.

हालांकि, जीन-एडिटिंग टूल, CRISPR, सिकल सेल रोग और थैलेसीमिया जैसी रक्त बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए उम्मीद की किरण बनकर आया है.

विज्ञानिकों का दावा है कि यह तकनीक सिकल सेल रोग से पीड़ित लोगों को कुछ हद तक राहत दिला सकती है.

दरअसल इस तकनीक के ज़रिए शरीर लाल रक्त कोशिकाएं बनाने में सक्षम हो जाता है. सिकल सेल रोग के दौरान रक्त में आसामान्य हीमोग्लोबिन आ जाते हैं और लाल रक्त कोशिकाएं सिकल के आकार की हो जाती है.

जिसके कारण कोशिकाओं में ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता और रक्त प्रवाह की मात्रा कम हो जाती है.

इस तकनीक में 10 करोड़ से 15 करोड़ तक खर्चा आ सकता है. इसके अलावा स्थानीय जगहों पर विनिर्माण सुविधाओं की अनुपस्थिति भी हो सकती है.

इसलिए यह कहा जा रहा है कि इस तकनीक को भारत में आने में समय लगेगा.

सिकल सेल रोग से प्रभावित आदिवासी
मध्य प्रदेश के 45 जिलों में से 27 जिलों में सिकल सेल एनीमिया का प्रभाव है. इस राज्य में सबसे ज्यादा सिकल सेल रोग से पीड़ित आदिवासी ही हैं.

इसके अलावा यह बीमारी भील, मादिया, पवारा और प्रधान आदिवासियों में 20 से 35 प्रतिशत मिलता है.

वहीं महाराष्ट्र के गढ़चिरोली, चंद्रपुर, नागपुर, बांदरा, यवतमाल और नंदुरबार जिले में इस रोग के 5000 से ज़्यादा केस मिले थे.

दक्षिण भारत में केरल के वायनाड में एक लाख से ज़्यादा लोगों की स्क्रिनिंग की गई थी. इसमें से 18 से 34 प्रतिशत तक आदिवासी इस रोग से जूझ रहे हैं.

इतने सालों बाद इस रोग का कोई ठोस इलाज तो मिल पाया है लेकिन सवाल यह है कि इतनी महंगी तकनीक क्या आदिवासियों तक पहुंच पाएगी?

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