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नागरहोल में अपनी ज़मीन पर रहने के हक़ पर लड़ते आदिवासी और क्रूर वन संरक्षण नीतियाँ

नागरहोल रिज़र्व फ़ॉरेस्ट के आदिवासियों के समर्थन में कई राज्यों के आदिवासी 15 मार्च से 21 मार्च के बीच एक पैदल मार्च में शामिल हुए. इस मार्च में बाहर से शामिल होने वालों में गुजरात, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और असम तक के आदिवासी थे. 

देश के अलग अलग आदिवासी इलाक़ों से आने वाले ये लोग इस दौरान यहाँ के आदिवासी गाँवों में ही ठहरे और आदिवासियों के साथ पैदल मार्च किया. इस मार्च का आयोजन नागरहोल आदिवासी समुदाय दावा समिति ने किया था.

दरअसल दक्षिण कर्नाटक के नागरहोल टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में आदिवासी लंबे समय से जबरन विस्थापन और वन अधिकार क़ानून, 2006 के तहत अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे है. 

यहाँ आदिवासी कार्यकर्ता का कहना है  कि नागरहोल के लोगों के संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है और यह इस बात का उदाहरण है कि भारत में वन संरक्षण नीति कैसे ग़लत अवधारणाओं पर बनी हैं. 

यहाँ के जंगल के बारे में कहा जाता है कि यहाँ पर कई तरह के हितों का टकराव है. मसलन कॉफी एस्टेट के मालिक, लाभ-केंद्रित वन्यजीव लॉबी और औपनिवेशिक रवैये वाला वन विभाग  सभी यहाँ के आदिवासियों के ख़िलाफ़ खड़े हैं. यहाँ पर जेनु कुरुबा, बेट्टा कुरुबा, पनियास, यारवास और जंगल के कुछ अन्य मूल निवासियों के साथ रहते हैं.  

राजीव गांधी या नागरहोल नेशनल पार्क के रूप में जाना जाने वाली भूमि को 1999 में एक टाइगर रिजर्व घोषित किया गया था. यहां के स्थानीय समुदायों का संघर्ष लोगों के अपनी जमीन पर रहने के अधिकार के मूल सिद्धांत में निहित है.

दुनिया भर में यह माना जात है कि आदिवासी और उनकी विचारधारा और जंगलों में रहने के तरीका वनों की रक्षा के लिए सबसे उपयुक्त हैं. क्योंकि वनस्पतियों और जीवों के जीवन के बारे में आदिवासी सबसे अधिक जानते हैं. इस संघर्ष में 

देश के कई राज्यों में वन संरक्षण के नाम पर क्रूर दमन और लोगों की हत्याएं भी देखी गई हैं. इस तरह की घटनाएँ इसलिए होती हैं क्योंकि वन विभाग आदिवासियों को संरक्षण में शामिल करने की बजाए, बंदूक़ से आदिवासियों को डरा कर जंगल से बाहर करना चाहता है.

नागरहोल में आदिवासियों और यहाँ के मूल निवासियों के विस्थापन का सिलसिला  1978-80 में शुरू हुआ. यहां रहने के अपने अधिकारों के लिए लोगों के निरंतर संघर्ष के बावजूद यहां से विस्थापन भी अनवरत जारी है. संरक्षित क्षेत्र के रूप में नागरहोल की स्थापना के बाद से विस्थापित गांवों की संख्या 47 हो चुकी है. 

लेकिन अभी भी वन विभाग लोगों को जंगल से निकालने के इरादे छोड़ नहीं रहा है. स्थानीय लोगों का कहना है कि वन अधिकारियों ने इस जंगल में आठ लोगों को मार डाला है. इसके अलावा यहाँ पर इतनी चोट आई थी कि वो स्थाई तौर पर अपंग हो गए हैं. उनका कहना है यह वन विभाग कि डर पैदा करने की उनकी रणनीति का हिस्सा है.

2021 में जेनु कुरुबा जनजाति के सदस्य, बसवा को कथित तौर पर जवाबी कार्रवाई में वन अधिकारियों द्वारा गोली मार दी गई थी क्योंकि उसने अपनी बहन का बचाव किया था जिसे वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा परेशान किया जा रहा था. 

स्थानीय लोगों का कहना है कि 2022 में करियप्पा, एक अन्य जनजाति के सदस्य को वन विभाग के अधिकारियों द्वारा कथित रूप से प्रताड़ित कर मार डाला गया था. इन घटनाओं की वन अधिकारियों ने पुष्टि नहीं की है.

नागरहोल आदिवासियों का कहते हैं कि निजी कॉफी एस्टेट मालिकों की जमीन हड़पना यहाँ एक बड़ा मसला है.

इस रैली में के बारे में आयोजकों ने दावा किया कि युवा, बुजुर्ग, महिलाएं और पुरुष समान रूप से शामिल हुए. रैली पार्क की सीमा के अंदर एक गांव में स्थानीय ग्रामीणों की एक विशाल बैठक के साथ समाप्त हुई. रैली में मांगों का एक चार्टर है, जिसे स्थानीय लोगों ने कई स्थानीय नेताओं और विभिन्न वन और बाघ पार्कों से शामिल होने वाले प्रदर्शनकारियों की उपस्थिति में नागरहोल टाइगर रिजर्व के प्रभागीय वन अधिकारी को प्रस्तुत किया.

मांगे कुछ इस प्रकार है:

1. नागरहोल के स्वदेशी आदिवासी समुदायों को 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत लाया जाना चाहिए.

2. एफआरए के अनुसार समुदाय के पास संसाधन अधिकार, सांस्कृतिक अधिकार और वन के भीतर आवास के अधिकार होने चाहिए. ग्राम सभा नागरहोल को टाइगर रिजर्व के रूप में मान्यता नहीं देती है, इसलिए इसे लगाना वन्यजीव अधिनियम का उल्लंघन है.

3. बाघ संरक्षण के नाम पर लोगों का जबरन पुनर्वास बंद करो.

4. 2006 के एफआरए से पहले बेदखल किए गए सभी समुदायों को अपनी भूमि पर वापस जाने का अधिकार दिया जाना चाहिए और उनके अधिकारों को मान्यता दी जानी चाहिए.

5. ज़बरदस्ती बेदखली बंद होनी चाहिए और देश का जो भी कानून है उसे लागू करना होगा और उसका पालन करना होगा.

6. हमारी सहमति के बिना हमारी भूमि और हमारे जंगलों को बाघ आरक्षित क्षेत्र या संरक्षित क्षेत्र घोषित नहीं किया जा सकता है. संविधान कहता है कि जहां भी स्वदेशी समुदाय रहते हैं, वह एक अनुसूचित क्षेत्र है.

7. संविधान की 5वीं अनुसूची के तहत प्रत्येक अनुसूचित क्षेत्र में सरकार में उसका प्रतिनिधित्व करने वाले अनुसूचित समुदाय का एक मंत्री होगा. लेकिन पिछले 15 साल में इस कानून में बदलाव किया गया है ताकि अब जो यहां का मूल निवासी नहीं है वह भी मंत्री बन सके. इसे बदलना होगा. यह पूरी तरह से गलत है क्योंकि जो भी यहां आकर बसा है, वह हमारे दर्द या जंगल से हमारे जुड़ाव को नहीं समझेगा. मंत्री को इस भूमि के मूल समुदायों से आना चाहिए.

दिलचस्प बात यह है कि इस साल भारत में प्रोजेक्ट टाइगर के 50 साल पूरे हो रहे हैं. इसे मनाने के लिए आयोजित कार्यक्रम बाघ संरक्षण में आदिवासी औरजंगल के मूल निवासी समुदायों की भूमिका और वन्य जीवन की रक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए बलिदानों का कोई संज्ञान नहीं लेते हैं.

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