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वन कानूनों और आदिवासी आवास पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा कर रहा केंद्र: जुएल ओराम

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 के तहत ‘वन’ की परिभाषा केवल ऐसे क्षेत्रों पर लागू होगी, जिन्हें 25 अक्टूबर 1980 को या उससे पहले वन के रूप में दर्ज किया गया था, जबकि अन्य भूमि पर आदिवासी और अन्य वनवासियों के पारंपरिक अधिकार सुरक्षित रहेंगे.

कोर्ट के आदेश के बाद कई राज्य सरकारें और केंद्र सरकार की कानूनी सलाहकार टीम इसका व्यापक अध्ययन कर रही हैं.

जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओराम ने बताया कि मंत्रालय ने संबंधित मंत्रालयों और राज्यों से उनके विचार मांगे हैं, ताकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 और वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के प्रावधानों की व्याख्या में कोई भ्रम न रहे.

मंत्री जुएल ओराम ने कहा है कि केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रधानमंत्री जनमन (विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों या पीवीटीजी के लिए) और दजगुआ (अनुसूचित जनजाति गांवों के लिए) जैसे प्रमुख योजना संतृप्ति कार्यक्रम “हमारे जनजातीय समुदायों की प्रभावी रूप से सेवा करते रहें.”

मंत्री ने कहा कि सरकार हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अध्ययन कर रही है, जिसमें वन अधिकार अधिनियम (FRA) और वन संरक्षण अधिनियम (FCA) के बीच टकराव का उल्लेख किया गया है.

दरअसल, कोर्ट का यह आदेश उस मामले में आया है, जिसमें मध्य प्रदेश के बिनेगा में पीवीटीजी ग्रामीण वन भूमि पर पीएम-आवास-स्वीकृत घर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिस पर उनके पास पहले से ही वन अधिकार के टाइटल हैं.

23 सितंबर को कोर्ट ने इस मामले में एक आदेश पारित किया था जिसमें स्पष्ट किया गया कि अगर वन अधिनियम (2006) में सरकार को सेवाएँ और सुविधाएं प्रदान करने के लिए कुछ “गैर-वानिकी” गतिविधियाँ करने का प्रावधान था.

फिर भी वन अधिनियम (1980) में यह स्पष्ट किया गया कि इन निर्धारित गतिविधियों में पक्के आवासों का निर्माण स्पष्ट रूप से शामिल नहीं था.

कोर्ट ने सरकार से ऐसा कोई रास्ता निकालने को कहा जहाँ वन भूमि पर पक्के आवास वन अधिनियम के विरोध में न आएं.

यह विषय इसलिए भी अहम है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश में ‘संरक्षित वन’ (Reserved Forest), ‘राज्य वन’ (State Forests) और ‘समुदायिक वन’ (Community Forests) जैसे कानूनी शब्दों की स्पष्ट व्याख्या की है.

सरकार का कहना है कि निर्णय के प्रभावों को ध्यानपूर्वक देखा जाएगा ताकि वनवासियों के कानूनी हितों की रक्षा की जा सके.

मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए मंत्री ने कहा कि मंत्रालय सभी कानूनी पहलुओं देख रहा है और जरूरत पड़ी तो संसद में भी इस संबंध में चर्चा कर सकता है.

वहीं ओराम ने पिछले हफ़्ते द हिंदू को एक लिखित इंटरव्यू में बताया था, “हमने सुप्रीम कोर्ट का आदेश पढ़ लिया है और कानूनी विशेषज्ञों और संबंधित मंत्रालयों के साथ चर्चा कर रहे हैं. हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि पीएम-जनमन और दजगुआ जैसे प्रमुख कार्यक्रम हमारे आदिवासी समुदायों की प्रभावी ढंग से सेवा करते रहें. हर स्तर पर, आदिवासी नागरिकों के अधिकार, कल्याण और प्रगति हमारे मार्गदर्शक सिद्धांत बने रहेंगे.”

अदालत के आदेश के बाद से मंत्रालय में इन कार्यक्रमों पर अदालत की टिप्पणियों के संभावित प्रभाव के बारे में चर्चा चल रही है.

ये योजनाएं पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश भर में विशिष्ट अनुसूचित जनजाति बस्तियों के लिए लक्षित बहु-मंत्रालयी योजना संतृप्ति कार्यक्रमों के रूप में शुरू की गई थीं.

इन दोनों कार्यक्रमों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि ये देश भर में एफआरए कवरेज का उपयोग अनुसूचित जनजातियों की बस्तियों, गांवों और समुदायों की पहचान करने और उन्हें बिजली, पाइप से पानी, मोबाइल नेटवर्क और पीएम-आवास के तहत सरकार द्वारा स्वीकृत आवास जैसी सभी बुनियादी सरकारी सुविधाओं से परिपूर्ण करने के साधन के रूप में करते हैं.

इसके अलावा डीएजेजीयूए हस्तक्षेपों में एफआरए धारकों की पहचान करना और उनके लिए उद्यमशीलता हस्तक्षेप की योजना बनाना भी शामिल है.

एक सरकारी अधिकारी ने बताया, “यही कारण है कि यह आदेश भविष्य में इन कार्यक्रमों के लिए एक चुनौती बन सकता है. इसका उद्देश्य एफआरए अधिकार धारकों को ढूंढना और फिर उन्हें पीएम-आवास सहित अन्य लाभ पहुँचाना है.”

जनजातीय अधिकारों और वन संरक्षण के क्षेत्र में दोनों मंत्रालयों के बीच के अंतर के बारे में पूछे जाने पर ओराम ने कहा, “हम समझते हैं कि जनजातीय सशक्तिकरण में जनजातीय समुदायों का अपनी भूमि और वन संसाधनों पर अधिकार शामिल है. इसलिए हम पर्यावरण, कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालयों के साथ मिलकर काम करते हैं और संयुक्त समीक्षा और चर्चा करते हैं. हमारा उद्देश्य अधिकारों की मान्यता में तेजी लाना और वन-आधारित आजीविका, पर्यावरण-पर्यटन और मूल्य संवर्धन के साथ जुड़ाव के अवसर प्रदान करना है.”

सुप्रीम कोर्ट दिसंबर में बिनेगा के ग्रामीणों के मामले पर अगली सुनवाई करेगा.

यह मामला मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले में वन भूमि को लेकर चल रहे विवाद से जुड़ा है, जहाँ पास के श्री परमहंस आश्रम ने निजी वन अधिकार समूहों (पीवीटीजी) के ग्रामीणों पर व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) के अधिकार वाली ज़मीन पर पीएम आवास योजना के तहत घर बनाकर वन कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया है.

बिनेगा के ग्रामीणों को जहाँ आश्रम द्वारा उनकी व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) ज़मीन पर कब्ज़ा करने का डर है, वहीं केंद्र ने अदालत को बताया है कि प्रारंभिक वन अपराध रिपोर्टों में आश्रम पर भी वन भूमि का उल्लंघन करने और उस पर अवैध निर्माण करने का आरोप है. 

(Photo credit: ANI)

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