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गुजरात में किसान ने 14 आदिवासियों को बनाया बंधक, 2 महीने से कैद में है मजदूर

गुजरात (Gujarat) के डांग ज़िले में 14 आदिवासियों को एक किसान ने कथित तौर पर बंधक बना लिया है. ज़िले के मालुंगा गांव में एक किसान ने ठेकेदार के श्रमिकों के वेतन के लिए अग्रिम 7 लाख रुपये लेकर भाग जाने के बाद 14 आदिवासी मजदूरों को बंधक बना लिया.

किसान ने इन आदिवासियों को दो-तीन महीनों से बंधक बनाकर रखा हुआ है. खबरों के मुताबिक बंधक बनाए गए मजदूरों के परिवारों ने उन्हें बचाने के लिए गुजरात सरकार से मदद मांगी है.

मनमोदी ग्राम पंचायत के पूर्व सरपंच नगिन गावित ने मीडिया को बताया कि कुछ महीने पहले मोटा मलूंगा के 14 मजदूरों को एक ठेकेदार महाराष्ट्र के तामखेड़ा पवार वाडी गांव में खेती के काम के लिए ले गया था. जब ये मजदूर किसान योगेश ठेंगिल के खेत में पहुंचे, तो ठेकेदार ने वेतन के नाम पर किसान से 7 लाख रुपये एडवांस ले लिए. इसके बाद ठेकेदार न तो गांव लौटा न ही किसान को एडवांस का पैसा लौटाया.

गवित ने कहा, “दो महीने से बंधुआ मजदूर सुनील वाघमारे, उशीबेन, मोहनभाई व अन्य अपने रिश्तेदारों को गांव बुलाकर अपनी आपबीती सुना रहे हैं. उन्होंने परिजनों से यहां तक कहा है कि किसान योगेश 7 लाख रुपए वसूलने के लिए हमारी किडनी बेचने की धमकी दे रहा है.”

इस खबर के सामने आने के बाद डांग के अतिरिक्त जिला कलेक्टर पद्मराज गामित ने बताया कि मजदूरों के परिवार के सदस्यों ने उनसे या अधिकारियों से शिकायत नहीं की है. उन्होंने कहा कि उन्हें मीडिया से आरोपों के बारे में पता चला है, वे इस मामले को देखेंगे और मजदूरों को छुड़ाने के लिए संबंधित अधिकारियों के सामने मामले का उठाएंगे.

इससे पहले दिसबंर 2022 में ही महाराष्ट्र के लातूर जिली से नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर इरेडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर ने 26 दलित-आदिवासी बंधुआ मजदूरों को गुलामी से मुक्ति कराया था. सभी मज़दूर मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले के रहने वाले हैं. सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं देश के अलग-अलग राज्यों से लगभग हर महीने इस तरह की खबरें सामने आती रहती है.

बता दें, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 के अनुसार, मानव तस्करी और जबरन या बंधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध लगाया गया है. इसके अलावा अनुच्छेद 21 जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकारों को सुनिश्चित करता है. जबकि भारतीय दंड संहिता की धारा 374 भी गैरकानूनी अनिवार्य श्रम के अपराध को मान्यता देती है और इसे एक साल तक की कैद, जुर्माना या दोनों से दंडित करती है.

लेकिन इसके बावजूद भी आज़ादी के 75 साल बाद भी देश में बंधुआ मज़दूरी जारी है. गरीब और सामाजिक हाशिए पर रहने वाले लोग सबसे ज्यादा इसकी चपेट में आते है.

बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए कुल बजट और खर्च पर एक नज़र इस मुद्दे पर सरकार की गंभीरता की कमी की ओर इशारा करती है. बंधुआ मजदूर पुनर्वास के लिए जारी की गई कुल राशि 2017-18 में ₹664.5 लाख थी, वह नाटकीय रूप से अगले वर्ष 61% घटकर ₹253.3 लाख रह गई. आश्चर्यजनक रूप से श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने उनके पुनर्वास पर 2019-2020 में एक रुपया भी खर्च नहीं किया. ऐसे आंकड़े न सिर्फ़ देश में मज़दूरों की हालत के बारे में चिंता पैदा करते हैं, बल्कि उन्हें बचाने और संभालने के लिए सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाते हैं.

ऐसे में सरकार को तत्काल बंधुआ मजदूरी प्रथा उन्मूलन अधिनियम 1976 और कोर्ट के फैसलों, श्रम कानूनों को कठोरता से लागू करने की ज़रुरत है. साथ हीअसंगठित क्षेत्र के मजदूरों का सरकार नियमितीकरण कर उन्हें सामाजिक सुरक्षा के साथ जोड़े और अनपेड महिला वर्कर को सामाजिक सुरक्षा दे तभी मजदूरों की दुनिया में बदलाव आ सकता है.

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