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टी ट्राइब: पहचान की राजनीति और मुक्ति की तलाश में आदिवासी समुदाय

आदिवासी नेशनल लिबरेशन आर्मी (AANLA) के 46 से अधिक नेताओं और कार्यकर्ताओं ने रविवार को असम के सोनितपुर जिले में आत्मसमर्पण करने के साथ अपने हथियार डाल दिए. 

2006 में गठित AANLA, असम में बागान श्रमिकों की आदिवासी संस्कृति के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने का दावा करती है. यह समूह असम के उन आठ आदिवासी उग्रवादी संगठनों में शामिल है, जिन्होंने 15 सितंबर, 2022 को नई दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा की उपस्थिति में केंद्र सरकार के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. 

इस आदिवासी संगठन और केंद्र सरकार के बीच समझौते और फिर उसके नेताओं के आत्मसमर्पण से असम में हथियारबंद आंदोलन और जातीय हिंसा को ख़त्म करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम ज़रूर है.

लेकिन इस तरह के आत्मसमर्पण और समझौते से असम के चाय बाग़ानों में काम करने वाले आदिवासी समुदायों की पहचान और अधिकार से जुड़ा मसला भी क्या सुलझ जाएगा ? यह दावा करना बेहद मुश्किल है. 

टी ट्राइब आदिवासियों की पहचान का संकट

असम की कुल जनसंख्या का क़रीब 20 प्रतिशत हिस्सा टी ट्राइब (Tea Tribes) के नाम से पुकारे जाने वाले आदिवासी समुदायों का है.  यानि इन आदिवासी समुदाय के लोगों की जनसंख्या पूरे राज्य में लगभग 50 लाख है.

इन 50 लाख आदिवासियों में से क़रीब 11 लाख आदिवासी राज्य के 800 से ज़्यादा चाय बाग़ानों में मज़दूरी करते हैं. असम में इन आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल नहीं किया गया है. 

चाय बाग़ानों में काम करने वाले इन आदिवासी समुदायों में मुंडा, संथाल, उराँव, और कई और आदिवासी समुदायों के लोग शामिल हैं. इन आदिवासी समुदायों को झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और देश के कई और राज्यों में अनुसूचित जनजाति माना गया है. 

लेकिन असम में इन्हें यह दर्जा हासिल नहीं है क्योंकि ये यहाँ के मूल निवासी (Indigenous groups) नहीं माने जाते हैं. चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी समुदाय अपनी पहचान और काम दोनों की वजह से वंचित, शोषित और दबाए गए, महसूस करते हैं. 

अपनी पहचान और अधिकारों के लिए टी ट्राइब कहे जाने वाले आदिवासी समुदाय लंबे समय से अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की माँग कर रहे हैं. 

अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिलने से इन समुदायों को संविधान में प्रदान की अधिकारों और सुरक्षा से वंचित रहना पड़ा है. 

असम की तरक़्क़ी में भूमिका

असम में जिन आदिवासी समुदायों को टी ट्राइब कहा जाता है उन्हें आज़ादी से पहले यहाँ पर लाया गया था. जब अंग्रेज़ी शासकों ने असम में चाय बाग़ानों के ज़रिये आर्थिक शोषण शुरू किया तब इन आदिवासियों को 1820 के आस-पास यहाँ लाना शुरू किया गया. 

चाय उद्योग में मानव श्रम की ज़रूरत काफ़ी ज़्यादा होती है. इसलिए कई राज्यों से अलग अलग आदिवासी समुदायों को असम में चाय बाग़ान लगाने और चाय उत्पादन से जुड़े दूसरे काम के लिए बड़ी तादाद में लाया गया. 

वर्तमान में असम के दरांग, सोनितपुर, नोगाँव, जोरहाट, गोलाघाट, डिब्रूगढ़, कछार, करीमगंज, तिनसुकिया और कोकराझार ज़िलों में इन आदिवासी समुदायों की आबादी है.

अंग्रेजों के ज़माने से अभी तक असम की तरक़्क़ी में चाय बाग़ानों की अहम भूमिका रही है. चाय उद्योग के विस्तार के साथ ही इस उद्योग के लिए और मज़दूरों की ज़रूरत बढ़ती गई. इसलिए आज़ादी के बाद भी अलग अलग राज्य से यहाँ पर लोगों का आना लगा रहा.

आज़ादी के बाद भी हालत ज़्यादा बदले नहीं 

असम के चाय बाग़ानों में काम कर रहे आदिवासी समुदायों में से ज़्यादातर को यहाँ पर बसे हुए एक शताब्दी से भी ज़्यादा समय बीत चुका है. लेकिन आज भी इन आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की पहचान या फिर शोषण से मुक्ति नहीं मिली है.

संविधान के तहत अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाली सुरक्षा या वित्तीय मदद इन आदिवासी समुदायों को नहीं मिलती है. इन आदिवासी समुदायों में अभी साक्षरता दर 25 प्रतिशत से भी कम है. 

चाय बाग़ानों में काम करने वाले आदिवासी समुदायों में से अधिकतर भूमिहीन मज़दूर हैं. असम में इन आदिवासी समुदायों को कभी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं माना गया है. 

इस समुदाय के साथ भेदभाव और शोषण ने लोगों के मन में राज्य शासन के प्रति काफ़ी नाराज़गी और निराशा पैदा की है. 

नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ संघर्ष 

चाय बाग़ानों में काम करने वाले आदिवासियों ने अपने साथ नाइंसाफ़ी और भेदभाव का विरोध लंबे समय से किया है. इसके लिए उनके संगठन भी बने और उन्होंने आंदोलन भी किये.

उनके संगठन और आंदोलन के दबाव में उनके शोषण को समाप्त करने के लिए कई क़ानून भी बनाए गए. मसलन संसद ने 1951 में प्लांटेशन लेबर एक्ट पास किया था. इस क़ानून में बाद में कई संशोधन भी किये गये थे. 

इस क़ानून में चाय बाग़ानों से जुड़े लोगों के विकास के लिए कई प्रावधान किये गए थे. लेकिन इस क़ानून का कभी ईमानदारी से पालन ही नहीं किया गया. इसलिए शिक्षा या स्वास्थ्य या फिर अन्य मामलों में इन आदिवासी समुदाय की हालत निरंतर बिगड़ती चली गई. 

चाय बाग़ानों में काम करने वाले मज़दूरों के साथ एक अजीबो गरीब स्थिति है. यहाँ पर बरसों के अनुभवी मज़दूर या फिर एक नये मज़दूर को लगभग बराबर वेतन मिलता है. क्योंकि फ़ैक्ट्री में चाय उत्पादन के अलावा ज़्यादातर काम करने वाले मज़दूरों के अकुशल मज़दूरों की श्रेणी में रखा जाता है. 

इसलिए इन मज़दूरों को दिहाड़ी मज़दूर ही माना जाता है. इन आदिवासी मज़दूरों में से ज़्यादातर को किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है. 1951 में बने क़ानून के अलावा 1959 में भी चाय बाग़ानों में काम करने वाले मज़दूरों का कल्याण फंड क़ानून बनाया गया था. 

इस क़ानून का हश्र भी वही हुआ जो पहले के क़ानूनों का होता रहा था. राज्य सरकार यह दावा करती है कि चाय बाग़ानों में काम करने वाले आदिवासी समुदायों को वो सभी सुविधाएँ हासिल हैं जो किसी भी अनुसूचित जनजाति के समुदाय को मिलती हैं. 

गुवाहाटी में स्थित एक संगठन नॉर्थ इस्टर्न सोशल रिसर्च सेंटर ने साल 2004 में एक विस्तृत स्टडी में पाया था कि चाय बाग़ानों के मज़दूरों के हितों के लिए जो क़ानून बनाए गए हैं उनमें से ज़्यादातर को लागू करने में कोताही बरती जाती है.

असम की सरकार का दावा है कि चाय बाग़ान के आदिवासियों को वो सभी लाभ मिलते हैं जो किसी अनुसूचित जनजाति को हासिल होते हैं.

राज्य सरकार के इस दावे को स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी इन समुदायों को राजनीतिक आरक्षण और हिस्सेदारी तो नहीं मिलती है. चाय बाग़ानों के आदिवासी समुदायों के लिए यह निश्चित ही एक बड़ा मसला है.  

जब एक के बाद एक बनाए गए क़ानूनों के बावजूद चाय बाग़ानों के आदिवासी समुदायों को सम्मान, पहचान और अधिकार नहीं मिला तो यह लाज़मी था कि ये समुदाय समझ गए थे कि जब तक उन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल नहीं किया जाएगा तब तक संविधान में प्रदान सुरक्षा या अधिकार उन्हें नहीं मिलेगी.

आदिवासी संगठनों का गठन

साल 1990 से चाय बाग़ानों के आदिवासियों ने अपने संगठन और एसोसिएशन बनानी शुरू की. इन आदिवासियों के संगठनों में ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ असम (AASAA) और असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ATTSA) शामिल थे. 

इस सिलसिले में बिरसा कमांडो फ़ोर्स और कई संगठन बने जिन्होंने हथियारबंद आंदोलन का रास्ता अपनाया था. कई एक्सपर्ट मानते हैं कि अगर चाय बाग़ानों के इलाक़े में 1951 में बने क़ानून को ढंग से लागू किया जाता तो यह नौबत नहीं आती. 

असम में चाय बाग़ानों में काम करने वाले आदिवासियों की ख़राब स्थिति के लिए कौन से कारण ज़िम्मेदार हैं, इस पर बहस हो सकती है. लेकिन इस सच से आँखें नहीं फेरी जा सकती हैं कि पिछले कम से कम 5 दशक में इन आदिवासी समुदायों का भयानक शोषण हुआ है.

इसके अलावा उनके समुदाय को कई बार अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने का आश्वासन दिया गया है. लेकिन यह वादा कभी पूरा हुआ नहीं है. 

पहचान की राजनीति का उभार और आकांक्षाएँ 

असम के आदिवासी समुदायों के शोषण और भेदभाव ने उन्हें मजबूर किया है कि वे अपनी जातीय पहचान को अपनी ताक़त बनाने की कोशिश करें. क्योंकि उनकी इसी पहचान के कारण उनके साथ लगातार भेदभाव किया गया है. 

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यह पहचान की राजनीति का उभार है. लेकिन इसमें आदिवासी समुदायों के लोगों की आकांक्षाएँ भी शामिल हैं. 

असम सरकार और केंद्र सरकार किसी तरह से इन आदिवासी समुदायों को बहलाती रही है. क्योंकि इन आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने का फ़ैसला पूरे राज्य की राजनीति में नए आयाम पैदा कर सकता है.

यहाँ की मूल जनजातियाँ इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ आंदोलन का रास्ता पकड़ सकती हैं. लेकिन टी ट्राइब कहे जाने वाले आदिवासी समुदायों की पहचान और अधिकार की लड़ाई को भी एक तर्कसंगत मुक़ाम पर पहुँचाना बेहद ज़रूरी है.

भारत के लोकतंत्र की यही ताक़त रही है कि वह अपने अलग अलग समुदायों की माँगो को समाहित करने की कोशिश करता है. देश के अलग अलग राज्यों में कई मसले आते रहे हैं और उन मसलों को हल भी निकाला गया है.

असम के चाय बाग़ानों में बसे आदिवासी समुदायों का मसला काफ़ी पुराना है और इसका तर्कसंगत समाधान भी निकाला जाना ज़रूरी है.

क्योंकि उसके बिना चरमपंथी संगठनों के साथ शांति समझौते अपने अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं कर सकेंगे.

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