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वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 और आदिवासी अधिकारों की बहस जारी है

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 (The Forest (Conservation) Amendment Act, 2023) को संसद से पास हुए अब एक साल से ज़्यादा बीत चुका है. लेकिन इस क़ानून पर बहस अभी भी थमी नहीं है. हाल ही में दिल्ली में संपन्न आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच नाम के एक संगठन के सम्मेलन में बोलने वाले कई वक्ताओं ने इस क़ानून की आलोचना की.

हांलाकि इस सम्मेलन का विषय सरकारी नौकरियों में आदिवासी आरक्षण था. लेकिन सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल (2014-24) में आदिवासी हितों की रक्षा के लिए बने क़ानूनों को बदलने या कमज़ोर करने की कोशिशों और फैसलों पर भी बात हुई.

इसके अलावा हाल ही में EPW पत्रिका में एक लेख में वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 को आदिवासियों और वंचितों के ख़िलाफ़ बताया गया है. इस लेख में कहा गया है कि राज्य (सरकार) और आदिवासी समुदायों के बीच वन क्षेत्रों को लेकर लंबे समय से चल रही लड़ाई का उदाहरण है. 

इस लेख में यह दावा किया गया है कि यह अधिनियम पूर्ववर्ती कानूनों के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन करता है. इसके अलावा यह क़ानून राज्य के ‘प्रमुख क्षेत्राधिकार’ (Eminent Domain) को मजबूत करता है. 

इस लेख में एक ज़रूरी बात यह भी कही गई है कि इस क़ानून से आदिवासी समुदायों को लंबे आंदोलनों और संघर्षो से हासिल अधिकारों को धक्का लगा है. 

राज्य और समुदायों के बीच संघर्ष

वन लंबे समय से राज्य और आदिवासी समुदायों के बीच संघर्ष का केंद्र रहे हैं. एक समय में जंगलों को कानून की परिधि से बाहर माने जाता था. लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिशों ने महसूस किया कि भारत के वनों में प्रशासन का विस्तार करना उनके लिए राजस्व संग्रह, संसाधनों के दोहन और वन क्षेत्रों में अपने अधिकार को वैध बनाने के लिए आवश्यक था.

दूसरी तरफ़ औपनिवेशकाल से लेकर अभी तक लोगों ने सरकारों से लड़ कर अपने हक़ में क़ानून बनवाने में भी कामयाबी पाई. आदिवासी और जंगल के संदर्भ में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908, संथाल परगना काश्तकारी क़ानून, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996, और वन अधिकार अधिनियम, 2006 जैसे कानूनों का ज़िक्र किया जा सकता है.

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 के बारे में छपे ताज़ा लेख में एक बार फिर यह कहा गया है कि यह क़ानून अपने वादों और वास्तविक उद्देश्यों में विरोधाभासी है. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन भूमि को गैर-वन कार्यों के लिए उपयोग करना ही प्रतीत होता है. जबकि यह क़ानून बात वन संरक्षण और संवर्धन की करता है.

इस अधिनियम में “वन” की परिभाषा को संकुचित कर दिया गया है. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक टी. एन. गोडावरमन थिरुमुलपद बनाम भारत संघ (1996) के फैसले को निष्प्रभावी हो गया है. इसके अलावा, इसमें गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन क्षेत्रों का उपयोग करने के लिए “पर्यटन,” “चिड़ियाघर,” “सफारी,” और अन्य गतिविधियों को वैध कर दिया गया है.

इस लेख के निष्कर्ष में कहा गया है कि 1997 में समता जजमेंट या फिर 2013 का नियमगिरी जजमेंट आदिवासी अधिकारों के लिए लंबे संघर्ष के बाद हासिल परिणाम थे. लेकिन अफ़सोस की संसद में जब वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 पास हुआ था तो उस पर 60 मिनट भी ढंग से बहस नहीं हुई.

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