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यह हज़ारों दशरथ माँझियों की कहानी है, आदिवासी एकता और संघर्ष की मिसाल

महाराष्ट्र के तानसा नेशनल पार्क में बसे आदिवासियों से मुलाक़ात के दौरान यहाँ के एक गाँव में यह कहानी हम मिल गई. यहाँ के आदिवासी गाँवों में अधिकतर वारली आदिवासी बसते हैं. इन आदिवासियों से मिलते हुए हम तलवाड़ा गाँव में पहुँच गए.

वैसे इस गाँव तक पहुँचना आसान नहीं था. जंगल के पथरीले और उबड़ खाबड़ रास्ते ने हमारे अस्थि पिंजर को हिला कर रख दिया था. इसके अलावा गर्मी ने जंगल के पेड़ों और ज़मीन दोनों को ही झुलसा दिया था तो फिर हमारी क्या ही बिसात थी.

जब हम इस गाँव में पहुँचे तो दिन के 12 बज चुके थे और सूरज सिर पर आ चुका था. इसके बावजूद इस गाँव के कई लोग हमसे मिलने चले आए. इनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे. इन लोगों से मुलाक़ात में हमें पता चला कि गाँव से पहले जो 5-6 किलोमिटर की एक सड़क हमें मिली थी, वह गाँव के लोगों ने ही बनाई थी.

उन्होंने बताया कि इस गाँव के अलावा आस-पास के गाँवों से क़रीब 2500-3000 लोगों ने मिल कर क़रीब एक हफ़्ते में सड़क बना दी है. लेकिन इसके बाद वन विभाग ने इस काम को रोक दिया है.

हालाँकि इन आदिवासियों ने स्थानीय प्रशासन को कहा था कि इस मसले पर अप्रैल महीने में ही फ़ैसला हो जाना चाहिए. अगर प्रशासन ऐसा नहीं करता है तो आदिवासी सड़क का काम शुरू कर देंगे. हालाँकि मई का महीना आधा जा चुका है अभी तक इस मसले पर कोई फ़ैसला ज़िला प्रशासन ने नहीं किया है.

तलवाड़ा गाँव ज़िला ठाणे में आता है. MBB से फ़ोन पर बात करते हुए भरत वालम्बा ने यह सूचना दी है. उन्होंने बताया कि वो नहीं चाहते कि प्रशासन के साथ आदिवासियों का कोई टकराव हो. लेकिन प्रशासन आदिवासियों के मसले पर गंभीरता से काम नहीं कर रहा है.

उनका कहना है कि एक बार बारिश शुरू हो जाएगी तो फिर इन गाँवों तक पहुँचना मुश्किल हो जाएगा. इस कहानी की तुलना आप दशरथ माँझी की कहानी से कर सकते हैं. लेकिन इस कहानी में एक फ़र्क़ है. यह कहानी किसी एक व्यक्ति की लगन और प्रयास की नहीं है. बल्कि यह कहानी एकता और सामूहिक प्रयास की मिसाल है.

आप इस गाँव से जुड़ी पूरी रिपोर्ट उपर वीडियो में भी देख सकते हैं.

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