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सेठ तो ठगता ही है, इस बार बादल ने ठग लिया

मध्य प्रदेश के धार ज़िले का झाबा गाँव में रेश्मी और माधो का पूरा परिवार खेत में जुटा है. पठारी ढलानों पर खेतों में हल चालते माधो और बीज डालती रेशमी और उनके बच्चों की ये तस्वीरें कितनी सुहानी लगती हैं. 

काश इनकी कहानी भी इतनी ही सुहानी होती. ये तस्वीरें 12 जुलाई की हैं और बुआई को कम से कम एक महीने की देरी हो चुकी है.

दो दिन पहले हल्की बारिश से खेतों में नमी आई है तो पूरा परिवार सुबह से खेत में जुताई बुवाई में लग गया है. 

रेश्मी मिट्टी में बीज डालती जाती है और मन ही मन कुदरत से मिन्नतें करती रहती है कि आसमान से पानी बरसे, इन किसानों का सहारा कुदरत ही तो है. 

रेशमी बताती हैं, “इस बार पानी टाइम से नहीं आया, इसलिए बुवाई में देरी हो गई है. हम लोग कपास और तूर की दाल बो रहे हैं.” वो आगे कहती हैं, “ हम चाँदी गिरवी रख कर क़र्ज़ लेते हैं और दिहाड़ी की कमाई भी सब इस बुवाई में लगा रहे हैं.”

30 मई से 2 जून के बीच मध्य प्रदेश के निमाड़ कहे जाने वाले इलाक़ों में बादल घिर कर आए और बरसे भी. किसानों को लगा गोया मानसून वक़्त से पहले आ गया है.

वो अपने हल बैल लेकर खेतों में उतर गए और बुवाई शुरू कर दी. खरगोन, अलिराजपुर, बड़वानी, धार हो या फिर झाबुआ किसानों ने कपास, मक्का और अरहर यानि तूर की बुवाई कर दी. 

लेकिन दो -तीन दिन की बारिश के बाद बादल ग़ायब हो गए और फिर महीने भर तक नहीं लौटे. खेतों की नमी जल्दी ही उड़ गई और फ़सल ने दम तोड़ दिया.

आदिवासी किसानों ने परिवार की औरतों के ज़ेवर गिरवी रख कर बीज और खाद के लिए क़र्ज़ लिया था. इसके अलावा मज़दूरी से कमाए पैसा भी बुवाई में लगा दिया था. 

माधो कहते हैं, “ पिछले महीने दो दिन तूफ़ान आया तो हमें लगा बुवाई कर देनी चाहिए, फिर महीने भर तक एक बूंद नहीं गिरी. सब बीज बर्बाद हो गया और फ़सल मर गई. अब फिर से बुवाई कर रहे हैं. लागत दोगुना हो गई है. 

जून महीने में हुई पहली बारिश में जितने किसानों ने बुवाई की थी उसमें से ज़्यादातर किसानों की फ़सलें बर्बाद हो गई. हमारे अंदाज़े से कम से कम 80 प्रतिशत किसानों को दोबारा बुवाई करनी पड़ी.

कुछ किसान जिनके पास पानी का साधन है, उन्होंने ज़रूर अपनी फ़सल बचा ली. 

लेकिन इसकी लागत भी बढ़ी है, क्योंकि बारिश की कमी की वजह से किसानों को डीज़ल पर पैसा ख़र्च करना पड़ा है. बाक़ी किसानों के पास अब मज़दूरी के अलावा कोई और चारा नहीं है. 

सेंधवा की बीज और कीटनाशक दवाओं की दुकानों पर आदिवासी किसानों की भीड़ है. यहाँ ज़्यादातर किसान दूसरी बार बीज ख़रीदने आए हैं.

इसके अलावा कीटनाशक दवा भी ख़रीदनी पड़ रही हैं. आधुनिक बीजों से ठीक ठाक उत्पादन के लिए इन दवाओं का इस्तेमाल अनिवार्य है. 

रामदुलारे कहते हैं, “ मेरे पास पाँच एकड़ ज़मीन है. जब पहली बार बारिश आई तो मैंने मक्का बोई थी. पर पानी ना गिरने से सब मर गई है. अब दोबारा बीज ख़रीदने आए हैं.”

इस बाज़ार में खाद, दवाई बीज के अलावा गहनों की बड़ी दुकानें हैं. इन दुकानदारों का धंधा भी पूरी तरह से आदिवासी किसानों और मज़दूरों से चलता है.

जब बुवाई होती है तो इन दुकानदारों से ये आदिवासी क़र्ज़ लेते हैं और जब फ़सल पक जाती है तो ख़रीदारी भी करते हैं. लेकिन पहले कोरोना और अब बारिश की कमी ने पूरा मामला ही गड़बड़ कर दिया है. 

इन आदिवासियों की फ़सल मर जाने का दुख इन व्यापारियों को ज़्यादा नज़र आता है. क्योंकि आख़िरकार तो इस फ़सल को आना तो उन्हीं के पास है.

आदिवासी फ़सल के लिए उन्हीं से बीज, खाद और दवाई के लिए क़र्ज़ लेता है. उसका ब्याज चुकाता है. उसके बाद जो बचता है उससे शादी ब्याह के लिए गहने और कपड़े लत्ते ख़रीदता है. 

ये आदिवासी किसान कपास के अलावा कई तरह की दालें पैदा करते हैं. दालों के मामले में देश के लिए आत्म निर्भर बनना एक बड़ी चुनौती है. हमारा देश खाने का तेल भी तो आयात करता है. 

ये आदिवासी किसान सोयाबीन भी पैदा करते हैं. यानि देश को आत्मनिर्भर बनाने में ये किसान जी जान से जुटे हैं, लेकिन इन्हें आत्मनिर्भर बनाने में देश कितना जुटा है, यह सोचते हुए हम भी आगे बढ़ गए.

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