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सालबणी में गूंजती बिरसा मुंडा की बाँसुरी

आज यानि 9 जून बिरसा मुंडा की बरसी है.

आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 का माना जाता है. भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदल दी. 

बिरसा मुंडा ने अपने संघर्ष से एक नए सामाजिक और राजनीतिक युग की नींव डाल दी. 

सन 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे.

1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी. बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया. 

ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे. यह मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.

संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया. रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. 

बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई. हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े.  

लोग बेरहमी से मार दिए गए. 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे.

कहा जाता है कि बिरसा मुंडा को इनाम के लालच में आ कर की गई मुखबरी के सहारे अग्रजों ने पकड़ लिया. जेल में 9 जून को उनकी मृत्यु हो गई. 

बिरसा मुंडा को लोग एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद करते हैं. लेकिन बिरसा मुंडा जल, जंगल और ज़मीन के लिए लड़ने के साथ साथ आदिवासी पहचान को भी जीते थे. 

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