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50 साल पहले अगर हम जनजाति घोषित हो जाते तो ?

दुनिया भर में लोग बेहतर ज़िंदगी की तलाश में पलायन करते हैं. इनमें से कुछ लोग कुछ समय बाद अपने घरों (जन्म भूमि) को लौट जाते हैं. कुछ लोग वहीं बस जाते हैं जहां रोटी कमाते हैं. यही इतिहास भी बताता है कि इंसान भोजन की तलाश में घूमता रहता था.

खानाबदोश लोग वक़्त के साथ दुनिया के अलग अलग हिस्सों में बसते चले गए. उसने स्थाई खेती सीख ली और उत्पादन के औज़ारों को बेहतर बना लिया. इंसान की इसी दुनिया को आज सभ्य समाज या आधुनिक दुनिया कहा जाता है.

इस लिहाज़ से पलायन ना तो बुरा माना जा सकता है और ना ही ग़ैर ज़रूरी. लेकिन कई बार इंसान को मजबूरी में पलायन करना पड़ता है. उसकी वजह आमतौर पर किसी इलाक़े में सुविधाओं और अवसरों की कमी मानी जाती है.

हमारी टीम हाल ही में हिमाचल प्रदेश में हाटी समुदाय के लोगों से मिल कर लौटी है. हाटी समुदाय के लोग गिरिपार के इलाक़े में रहते हैं. लेकिन हाटी समुदाय के लोगों से हमारी मुलाक़ात सोलन शहर में ही हो गई थी.

क्योंकि हाटी समुदाय के लोग बड़ी संख्या में सोलन, शिमला या फिर चंडीगढ़ जैसे शहरों में रोज़गार की तलाश में आते हैं. अब सरकार ने इस समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने का फ़ैसला किया है.

यह समुदाय पिछले 50 साल से यह माँग कर रहा था. सोलन में हमारी मुलाक़ात कुछ ऐसे लोगों से भी हुई जो पढ़े लिखे हैं. ये लोग अच्छी नौकरी भी कर रहे हैं और शहर में इन्होंने अपने घर भी बना लिए हैं.

लेकिन फिर भी ये लोग हाटी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल करने की माँग के समर्थन में आंदोलन में शामिल थे. हमने इनसे पूछा कि अगर आज से 50 साल पहले इस समुदाय को जनजाति का दर्जा मिल गया होता तो इनकी ज़िंदगी में क्या फ़र्क़ आया होता.

इस बातचीत में शामिल ज़्यादातर लोगों का कहना था कि अगर उस समय जब उनके ही समुदाय को उत्तराखंड (तब यूपी) में जनजाति का दर्जा मिला था तो उन्हें भी यह दर्जा मिलना चाहिए था. अगर उस समय उनको यह दर्जा मिला होता तो उनके इलाक़े से इतना पलायन नहीं होता.

उनका कहना था कि आज की तारीख़ में सोलन और शिमला जैसे शहरों में हाटी शब्द का मतलब ही कुली हो गया है. क्योंकि यहाँ से हज़ारों की तादाद में कुली या मज़दूर इन शहरों में काम करते हैं.

वो कहते हैं कि अगर उस समय हाटी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल कर लिया जाता तो वहाँ हॉस्टल के साथ स्कूल खुल सकते थे. इसके अलावा वहाँ के छात्र JNU जैसी यूनिवर्सिटी में पहुँच सकते थे.

इनमें से कुछ लोग कहते हैं कि अगर ऐसा होता तो आदिवासी इलाक़ों के लिए मिलने वाले फंड से उस इलाक़े के रास्ते बेहतर हो सकते थे. वहाँ पर पर्यटन बढ़ता और रोज़गार के नए अवसर पैदा होते.

इनमें से कुछ लोग कहते हैं कि जनजाति की श्रेणी में शामिल किये जाने से वो अपनी संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था को संरक्षित कर सकते थे. इस पूरी बातचीत का वीडियो उपर के लिंक को क्लिक कर देखा जा सकता है.

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