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भील आदिवासियों के ढोल की धाक कायम है

(Adivasi Music) मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में रहने वाले आदिवासी अक्सर यह शिकायत करते हैं कि आज की पीढ़ी अपने लोक गीतों और वाद्य यंत्रों को भूलते जा रहे हैं.

आज का युवा डीजे पर झूमता है. वे माँदर, ढाक, बाँसुरी और तारपा जैसे वाद्य यंत्रों को भूलते जा रहे हैं. अब इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले लोग भी कम रह गए हैं.

लेकिन आदिवासी गीत-संगीत पर हमले के इस दौर में भी भीलों का ढ़ोल ऐसा वाद्य है जिसीक धाक आज भी कायम है.

मध्य प्रदेश के अलिराजपुर ज़िले की सोंडवा तहसील के महलगांव में हमारी मुलाकात लाल सिंह से हुई. लालसिंह भील समुदाय के उप समूह भिलाला से हैं और उनकी उम्र क़रीब 60 साल हो चुकी है.

जब वे 14-15 साल के थे तब से वे ढोल बजा रहे हैं. उन्होंने हमें बताया कि भील आदिवासियों में दशहरे से लेकर होली तक यह ढोल बजाया जाता है.

यह ढोल काफी भारी भरकम होता है. इसका वज़न 60-70 किलोग्राम तक हो सकता है. लाल सिंह ने हमें विस्तार से अपने अनुभव, आदिवासी संस्कृति में आ रहे बदलाव और भीलों के ढोल के बारे में बताया.

आप उपर दिए लिंक पर क्लिक करके यह पूरी रिपोर्ट देख सकते हैं.

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