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पाकिस्तान की जेल में कै़द खलासियों की कहानी और सरकार की बेरुख़ी

महाराष्ट्र के पालघर ज़िले की डहाणू तहसील समन्दर से सटी है. समन्दर यहाँ के लोगों को एक ख़ूबसूरत मौसम और रोज़गार दोनों देता है. ज्वार-भाटा या High tide और Low tide समंदर के स्वभाव से जुड़ी हुई एक प्राकृतिक क्रिया है. जब हम डहाणू पहुंचे तो महीने का शुक्ल पक्ष चल रहा था यानि रात को संमदर में ज्वार उठने का समय था.

इस दौरान बड़े समुद्री जाहज़ों को तो कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता है, पर छोटी नावों का इस्तेमाल करने वाले मछुआरों का समंदर में जाना बंद हो जाता है. इस दौरान छोटी नाव वाले मछुआरे अपनी नाव और जालों की मरम्मत का काम निपटाते हैं.

मछुआरों के बच्चे ज़मीन पर कम और समंदर में ज़्यादा पलते हैं. इसलिए वो समंदर के स्वभाव को खूब समझते भी हैं. बचपन से ही वो समंदर में नाव चलाने और मछली मारने में माहिर हो जाते हैं. ये मछुआर रात भर समंदर में रहते हैं और सुबह लौटते हैं. जिन मछुआरों की बड़ी नाव है उन्हें अपने काम में मदद के लिए लोगों की ज़रूरत होती है.

इसके लिए वो कुछ लोगों को काम पर रखते हैं. इन्हें खलासी कहा जाता है, खलासी, समंदर में जाल लगाने या फिर मछली मारने का काम नहीं जानते हैं, बल्कि ये हेल्पर की तरह काम करते हैं. इसमें नाव की साफ सफ़ाई और नाव से मछली उतारने का काम होता है. खलासी का काम करने वाले ज़्यादातर लोग आदिवासी हैं.

हमें पता चला कि यहां के आदिवासी अब मुंबई या गुजरात की बड़ी बंदरगाहों परो भी काम करने के लिए जाते हैं. बड़े जाहज़ों का इस्तेमाल कर मछली पकड़ने वाली कंपनियों के ठेकेदार अक्सर सस्ते खलासियों की तलाश में पालघर के आदिवासी इलाकों में आते हैं.

इस कहानी को समझने की कोशिश में हमें खलासियों यानि आदिवासियों की एक ऐसी कहानी मिली जो परेशान कर देने वाली थी. हमें पता चला कि यहां के कई आदिवासी लड़के जो खलासी का काम करते थे, फ़िलहाल पाकिस्तान की जेल में बंद हैं.

अफ़सोस की बात ये है कि  उनके परिवारों को काफ़ी दिन तक यह पता ही नहीं था कि रोज़गार की तलाश में निकले उनके बच्चे, दुश्मन देश बताए जाने वाले पाकिस्तान की जेल में हैं. उन्हें किसी ठेकदार, जाहज़ के मालिक या फिर सरकार की किसी एजेंसी ने यह ख़बर तक नहीं दी थी. उनके गांव के लोगों ने सोशल मीडिया पर यह खबर देखी और अपने गांव के लड़कों को पहचाना.

उसके बाद परिवारों को पता चला कि उनके लड़के पाकिस्तान की क़ैद में हैं. हम इस कहानी को कुछ और समझना चाहते थे और इस सिलसिले में हमने उन परिवारों की तलाश की जिनके लड़के खलासी का काम करने गए थे.

इस सिलसिले में हम नौसिया जाना रावते के घर पहुंचे. उनके घर में एक पक्का कमरा है. कमरे पर सीमेंट की चादर की छत है. पीछे की तरफ का घर अभी भी छप्पर का है. उनकी पत्नी और वो खुद दोनों ही काफ़ी परेशान हैं. बाप जो थोड़ी बहुत भाग दौड़ कर रहा है. लेकिन पढ़ा लिखा नहीं है, इसलिए कुछ ज़्यादा समझ नहीं पा रहा है.

मां जब तब रो पड़ती हैं. वो कहती हैं कि उनका बेटा बाहर होता तो कोशिश करता था कि दिन में एक बार फोन पर मां से बात हो जाए. अब तो दो महीने से ज़्यादा हो गए हैं. वो जेल में है और वो भी पाकिस्तान की जेल में है. ना जाने उसका क्या हाल होगा.

नौसिया ने बताया कि उनके बेटे की उम्र 21 साल है और उसका नाम विशाल है. वो बताते हैं कि डहाणू में भी काम तो मिल जाता है पर रेगुलर काम नहीं मिलता है. इसलिए लड़का मछुआरों की बोट पर काम करता है.

वहाँ पर कुछ महीने का काम रेगुलर रहता है और पैसा भी यहाँ से थोड़ा ज़्यादा मिलता है. बेटे की इच्छा थी कि कुछ पैसा मिलेगा तो एक घर बन जाएगा.

वो कहते हैं, ” जब मुझे पता चला कि बेटा पाकिस्तान की जेल में पहुँच गया है तो मैं खूब रोया, लेकिन बीवी को नहीं बताया था. लेकिन गाँव के लोगों से उसे पता चल गया.”

नौसिया ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिए नहीं जानते कि वो ऐसा क्या करें कि उनका बेटा पाकिस्तान जेल से छूट जाए. उसने अपने बेटे के सेठ से बात की और कहा कि देखो अगर पैसा दे कर बेटा छूट जाए तो वो कुछ इंतज़ाम करेगा.

दुख मापने का भला क्या पैमाना हो सकता है…यह सवाल मेरे मन में आया जब हम एक और परिवार से मिले. इस परिवार की कहानी और भी मुश्किल हालातों से भरी पड़ी है. पालघर के इलाक़े में वारली आदिवासी समुदाय सबसे बड़ा है.

इस समुदाय में शादी ब्याह के मामले में रीति रिवाज और क़ायदे अलग हैं. यहाँ लड़के और लड़की के परिवार के बीच सहमति बनने के बाद लड़के का परिवार लड़की के परिवार के गाँव भर को दावत देता है और लड़की के परिवार को कुछ उपहार. इसके बाद शादी तय हो जाती है.

एक बार शादी तय हो जाने के बाद लड़की लड़के के परिवार के साथ आ सकती है. इस दौरान लड़का और लड़की शादीशुदा के तरह से रह सकते हैं और बच्चे भी पैदा कर सकते हैं. लेकिन शादी जब तक नहीं होती जब तक के लड़का पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता है.

यानि लड़की कभी भी अपने पिता के पास लौट सकती है या फिर किसी और से शादी कर सकती है. गोपाल ने भी अपने बेटे रवि की शादी फूलवती के साथ तय कर दी थी. रवि चाहता था कि जल्दी ही फूलवती से शादी को समाज मान्यता दे.

इसलिए वो खलासी का काम करने के लिए निकल गया. उसे उम्मीद थी की कुछ पैसा कमा कर वो अपने लिए घर बना लेगा और फिर फूलवती उसके साथ पत्नी बन कर रहेगी. क्योंकि आदिवासी समुदाय में यह भी परंपरा है या नियम भी कह सकते हैं कि शादीशुदा जोड़े को अपने अलग घर में रहना होता है. 

गोपाल कहते हैं कि उन्होंने बेटे की शादी तय करने के लिए समाज के नियम के हिसाब से गाँव को दावत दी थी. बेटा चाहता था कि जल्दी ही उनकी शादी को सामाजिक मान्यता मिल जाए. लेकिन बेटा तो अब पाकिस्तान की जेल में है.

“बेटा घर चलाने में कुछ मदद करता था, अब तो परिवार का जीना मुश्किल हो गया है.” यह कहते हुए वो लगभग रो पड़ते हैं. बेटा जिस बोट पर काम करता था, उसके मालिक या फिर सरकार की तरफ़ से उन्हें कोई छोटी मोटी आर्थिक मदद भी नहीं मिली है.

जंगल में बसे इन आदिवासी परिवारों को अंदाज़ा भी नहीं है कि डिप्लोमेसी क्या होती है. दो देश की सरकारें कैसे बातचीत करती हैं, हाँ इतना ज़रूर पता है कि पाकिस्तान की भारत से दोस्ती नहीं है.

इसलिए अपने बेटे के को लेकर चिंता बहुत ज़्यादा हो रही है. राज्य सरकार के जानकारी में यह बात है. लेकिन यह तो दो देश की सरकारों का मसला है, सो राज्य सरकार भी तुरंत कुछ हल तो नहीं निकाल सकती है. लेकिन क्या राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन इन परिवारों की कुछ फ़ौरी मदद कर सकता है.

मसलन जब तक इनके कमाऊ बेटे लौट नहीं आते हैं, इन्हें कुछ वित्तीय मदद कर दी जाए. 

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